मैं गीत प्रेम के लिख बैठी…गीत



मैं गीत प्रेम के लिख बैठी 

मनमीत मुसाफ़िर पढ़ लेना 


मेरे मनमंदिर की सीढ़ी 

है रिक्त अभी पदचिन्हों से 

मन व्याकुल भाव अगोर रहा 

कोई जुड़ जाए पन्नों से 

लिखने को आतुर पोरों को 

मैं कलम दवात थमा बैठी

तुम आखर-आखर गढ़ लेना 


क्या लिखा और क्या है बाक़ी 

हिय की भाषा हिय ही जाने 

शब्दों में रचे समर्पण का 

हर मूल्य आस्था पहचाने 

भूखे-प्यासे निर्वात नयन 

मैं नीर क्षुधा बरसा बैठी 

तुम अपनी गागर भर लेना 

 

ये कोमल हृदय विवेचन की 

इच्छा में दर-दर भटक रहा 

उठती ज्वाला विकराल हुई

अमृत थी उसने स्वयं कहा 

थी अग्नि नीर की परितोषक 

मैं कोरे दीप जला बैठी 

तुम इक उँजियारा गढ़ लेना 


जिज्ञासा सिंह

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत कोमल भावपूर्ण गीत

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  2. अप्रतिम सृजन!

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  3. वाह!!!
    हिय की भाषा हिय ही जाने
    बहुत खूब👌👌
    लाजवाब ।

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  4. लाजबाव कविता

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  5. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 28 जून 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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  6. ये मृदुल प्रेम गीत अत्यन्त मधुर है ।

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  7. ये कोमल हृदय विवेचन की
    इच्छा में दर-दर भटक रहा
    उठती ज्वाला विकराल हुई
    अमृत थी उसने स्वयं कहा
    थी अग्नि नीर की परितोषक
    मैं कोरे दीप जला बैठी
    तुम इक उँजियारा गढ़ लेना

    बहुत सुन्दर

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  8. क्या लिखा और क्या है बाक़ी

    हिय की भाषा हिय ही जाने - Waah, kya baat! Khub likhi ha prem geet!

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