नई करेंसी धूम करेगी

 

रेशे-रेशे घुसे पड़े हैं दांतों में

भजिया अब घर नहीं बनेगी ।

जली पराली धुआँ भरा है साँसों में

भंडरिया क्या ख़ाक भरेगी ?


तपी दोपहर, चला नहीं

पानी का इंजन ।

खेत सूखते खलिहानों में

भटके खंजन ॥

जमा-बचा गुल्लक का रुपया,

डॉलर बन कर घूम रहा परदेसों में ।

सेंसेक्स में नई करेंसी धूम करेगी ॥


गई जवानी लौट नहीं आयेगी

जितनी जुगत लगा लो ॥

पॉप गाओ, रैपर बन जाओ

भोजपुरी-अवधी अब गा लो ॥

रंग-मंच पे धूम मची, देखो जमजम के, 

योगा-जिम करने वाले संग-संग नाचेंगे ।

मुद्रा नव-नव रूप बदलकर ऐश करेगी ॥


अरे! कहा था नहीं परेशॉं 

होना तुम जग बदलेगा ।

रोटी नून बदल जाएगा

पिज़्ज़ा-बर्गर घर पहुँचेगा ॥

एक हाथ से लेते रहना,कर्ज बैंक से,

ड्योढ़ी पर किश्तों पे किश्तें दे जाएँगे ।

बैंक पॉलिसी आवभगत अब खूब करेगी ॥


**जिज्ञासा सिंह**


देखे हैं तिनके जंगल की दाढ़ी में


गौरैया अब पंख बदलती झाड़ी में,
फुर-फुर करती बैठे लम्बी गाड़ी में ।
आम और अमरूद लगें फल सारे फीके,
ख़ुशी ढूँढती महुवे में औ ताड़ी में ॥

नए नवेले पँख खरीदे रंगबिरंगे,
फ़ेविक्विक से फ़िक्स करे ।
हैट लगाई सैंडिल पहनी,
सेल्फ़ी खींची और फ़ोन में पिक्स भरे ॥
मिडी पहनकर फुदकी,
संग कबूतर झूमें,
पल भर बाद नज़र आई वो साड़ी में ॥

उपवन के पिंजरे में वर्षों क़ैद रही,
झेले हैं कौवों के लाखों ही प्रतिबन्ध ।
जंगल के तिनके-तिनके पर गिद्ध बसेरा,
तोड़ न पाई वो अब तक कोई अनुबन्ध ।
मौक़ा आज मिला तो,
चौके से चूके क्यूँ ,
देखे हैं तिनके जंगल की दाढ़ी में ॥

मतलब और मसाले का स्वादिष्ट सम्मिश्रण
उदर क्रांति का माँगेगी अब हक़ ।
प्यास बुझाया बूँद-बूँद गंगा के जल से
अम्बर छू उतरेगी गहरे, तैर बेझिझक ॥
माँगेगी अधिकार घोंसले के बाहर भी,
भर लेगी नव शक्ति, स्वयं की नाड़ी में ॥

**जिज्ञासा सिंह**

फूलदान में सजते गाँव


हुआ मेड़ पर फिर झगड़ा ।
दौड़ पड़े दाऊ संग कक्का
ले कुदाल, बेलचा, फवड़ा ॥
हुआ मेड़ पर फिर झगड़ा ॥

नाली, नर्मद, घूर, कंडौर
बीते भर भी अपनी ठौर ।
कैसे सौंपें पुश्तैनी सब
लाय खतौनी देखो गौर ॥
बाबा-दादा सात पुश्त का
छोड़ गए सब लफड़ा ॥

दिया-दिया भर चले उधारी
चाहें उनकी भरी बखारी ।
बदल गया सब गजब जमाना
न बदली मन की लाचारी ॥
हुई तरक्की दिन दूनी 
छूटा न घर का रगड़ा ॥

एक तलैया चर-चर नाव
कब्जा किया जमाया पाँव ।
जलकुंभी के फूल सजे हैं
फूलदान में  सजते गाँव ॥
बगुला-बतखें दूर उड़ गए
झटका देकर तगड़ा ॥

**जिज्ञासा सिंह**

मौन का अस्त्र

 

शब्द ही मौन होते गए ख़ुद बख़ुद

जब भी संवाद का अर्थ धूमिल हुआ 

वर्णमाला बिना व्यंजनों के रही

सुर  संगीत हर साज बोझिल हुआ 


मौन जीवन में जब तक रहा गौड़ था

बात ही बात में बात बढ़ती रही 

बात काँटा बनी बात झाड़ी बनी

बात भट्ठी पे चढ़के सुलगती रही 

जब कलुष और कपट बात से  मिटे

मौन का अस्त्र मानव का संबल हुआ 


मौन के चाक पर शब्द चढ़ते रहे

घूमते-घूमते मर्म गढ़ते रहे 

गढ़ लिए और मिटाएमिटाते रहे

भाव बनते रहेभाव मिटते रहे 

मौन दृढ़ हो गया और होता गया

मुस्कुराने का हथियार शामिल हुआ 


मौनमुस्कान उलझन का हल बन गए

शक्तियाँ शब्द की दूर जाती गईं 

मुस्कुराता अधर, मौन होती ज़ुबाँ

दूर मंज़िल को पग-पग नपाती गईं 

हारते-हारते जीत मिलने लगी

ख़ुद से जीता ये मन दृढ़  निर्मल हुआ 


**जिज्ञासा सिंह**