साँसों का साथ

एक गहरी साँस 
और उदास 
मन की बात 
पिघल गए हर हालात 
बह गए 
रह गए

कुछ अनछुए विस्मृत से पहलू 
मैं सम्भल लूँ 
उसे गले लगाऊँ 
अपना बनाऊँ 

और वो मेरा आंतरिक सौंदर्य
मेरा माधुर्य 
अपने में समेटती 
लपेटती 

गई धीरे धीरे 
और बोलती गई सखी रे 
मैं तुम्हारी हूँ 
केवल तुम्हारी ही हूँ 

अनगिनत साथी आए 
गए 
हम तुम साथ रहे 
घर्षण करते रहे 

आजीविका .
को जीविका 
बनाया मैंने
तुमने 

सहर्ष स्वीकारा 
धिक्कारा 
कभी नहीं 
लेती रहीं 

अपनी ऊर्जा 
ऊष्मा की पूजा 
कर ग्रहण 
अभिग्रहण 

कर उसे विस्तृत स्थान दिया 
मान किया 
और आज 
मैं तुम्हारी धमनियों की सरताज 

बन बैठ गई तुम्हारे भीतर 
ऊर्जावान हूँ गर्भ के अन्दर 
धीरे-धीरे बह रही हूँ 
रच रही हूँ 

तुम्हारी मनोरम कल्पना का दैदीप्य 
हो रहा है उदीप्य 
वही तो तुम्हारी शक्ति है 
कहीं कुछ और नहीं, इन्हीं साँसों के 
द्वार से बँधी सुन्दरतम मुक्ति है...

**जिज्ञासा सिंह**

हकीकतों ने पाला है


हमें हकीकतों ने पाला है 
हाँ ये सच है कि 
कि हमें हकीकतों ने पाला है 

हम पले घास के मैदानों में ।
ऊँची नीची टेढ़ी मेंढ़ी पगडंडियों ,
और गर्म रेगिस्तानों में ।।
कंकड़ पत्थरों पे चलते हुए, कई बार पड़ा पैरों में छाला है 
सच हमें हक़ीक़तों ने पाला है..

हम पले बरखा की फुहारों में ।
झीलों तालाबों नदियों किनारों ,
समुद्री तूफ़ानों और मँझधारों में  ।।
काग़ज़ की नाव बना हमने सागर मथ डाला है 
सच हमें हक़ीक़तों ने पाला है..

हम पले उतरनों को पहन के ।
बुआ चाचा दीदी भैया जो कपड़े पहनते , 
बिना शर्म पहन हम खड़े हो जाते बन ठन के ।।
घुटनों पे फटी पतलून हाथों से छुपा खुद को सम्भाला है 
सच हमें हकीकतों ने पाला है ..

किताबें भी माँगकर पढ़ लेते थे हम ।
पुरानी किताबों की ज़िल्दसाजी कर,
नयी बना देते थे एकदम ।।
बड़ी खुशी से कहते थे कि बस्ता भैया वाला है 
सच हमें हकीकतों ने पाला है ..

हमने सुनी हैं हज़ारों किस्से और कहानी ।
बाबा दादी नाना नानी के पहलू में चहक चिपक,
जिद कर कर के, उन्हीं की जुबानी ।।
अब तो रिश्तों पे लग गया ताला है 
सच हमें तो हकीकतों ने पाला है ..

**जिज्ञासा सिंह**

नींद की गद्दारी


आज फिर ज़िद पे अड़ गई 
मुझसे अकड़ गई 
मुई नींद 
छोड़ गई फिर उनींद
नहीं आना था तो नहीं आई 
मैं कितनी बार गिड़गिड़ाई
शांत मन से समझाया 
बुझाया, रिझाया 
फिर भी मुकर गई 
कर, ना नुकर गई 
ऐसी गई कि लौटी ही नहीं 
है यहीं कहीं 
मेरे आसपास 
मुझे है आभास 
पूछा क्यूँ नाराज है वो 
इतनी बदमिजाज़ है वो 
देने लगी ताने 
उलाहने 
उड़ा के मुझे यहाँ से वहाँ ले गई 
दुनिया टहला गई 
योग क्षेम करवा लिया 
तबला भी बजवा लिया 
राग बताती रही
बहाने बनाती रही 
अजीब अजीब 
बैठी रही बिल्कुल पुतलियों में,
छुपकर आँखों के करीब 
चिमचिमाती रही 
आती जाती रही 
कोई खटपट 
कोई आहट 
उससे न छूटी 
हर बात पे रूठी 
जैसे हूर की परी है वो 
इतनी नकचिढ़ी है वो 
कि मैं मना मना के गई हार !
दुःख दर्द में जब जरूरत हो तो
नींद दिखती सबसे बड़ी ग़द्दार !!

**जिज्ञासा सिंह**

क्षणिकाएं ( मान्या सिंह को समर्पित)

खून पसीना आँसू 
का एक धांसू 
मिश्रण हूँ मैं 
अपने को अर्पण हूँ मैं 

धोखा दर्द दुःख 
के सम्मुख 
दीवार हूँ मैं 
अपनी पतवार हूँ मैं 

दिल आत्मा मन 
के मिलन 
का ठिकाना हूँ मैं 
अपने आप में एक नजराना हूँ मैं 

बेबसी बेदर्दी बेकसी 
को दूर 
करने को मजबूर हूँ मैं 
अपनी आँखों का नूर हूँ मैं 

गरीबी भुखमरी लाचारी 
या बेरोजगारी 
से नहीं हारी हूँ मैं 
मन की राजकुमारी हूँ मैं 

तन मन धन 
का आकलन 
करती धुरी हूँ मैं 
अपने आप में संपूर्ण और पूरी हूँ मैं 

युग काल समय 
का विलय 
संजोती संरचना हूँ मैं 
सृष्टि की अद्भुत रचना हूँ मैं 

परिवार रिश्ते नाते 
को निभाते 
सब पे भारी हूँ मैं 
आत्मविश्वासी नारी हूँ मैं 

**जिज्ञासा सिंह**

नियति का क्रूर दंश ( हृदयाघात )



मुझपे बिजली गिरा गई नियति 

दे गई घाव और जला गई नियति 

 

चले भी कितना थे हम साथ उनके 

कदमों को हाशिए पे रुका गई नियति

 

अभी कल ही तो ख़ुशगवार मौसम था 

आई आँधी और सब कुछ उड़ा गई नियति

 

जो चमन उनके संग गुलाबों का लगाया था मैंने 

उन्हीं के काँटों में उलझा गई नियति 


ये सोचता कौन है कि कल क्या होगा 

 इन्हीं प्रश्नों में किस तरह उलझा गई नियति 


वो दो शब्द कह तो जाते मुझसे आख़िर में 

उन्हें सुनने को तरसा गई नियति 


ये उजाले ये रोशनी चुभ रही है मुझको 

घुप अंधेरों से दोस्ती करा गई नियति 


अब कहें तो किससे और क्या बोलें 

सब आंसुओं से बात करा गई नियति 


लोग कहते हैं कि भूल जाओ सब कुछ अब 

करूँ, क्या और कैसे ? भूलना ही भुला गई नियति 


समझ तो जाऊँगी उनकी बेबसी को एक दिन 

ज़िंदगी को फ़साना बना गई नियति

 

वो इस तरह बेरुख़ी कर नहीं सकते 

दिले नादान से धोखा दिला गई नियति 


**जिज्ञासा सिंह**

चित्र साभार गूगल 

ऋतुराज आए हैं

फिर उलझ गई 
पैरों से झाँझर खिसक गई 
क्या सुन्दर थी 
मन मुंदर थी 
बजती थी झनन झनन 
कानों में खनन खनन 
मधुर रस बरबस 
बिहँस बिहँस 
घोलती थी 
ऐसे बोलती थी 
कोयल भी चुप रह जाय 
सप्त सुर ही सुनाय 
चहुँ ओर दिशाओं में 
बासंती हवाओं में 
उसकी ही तान थी 
गीत और गान थी 
उसकी मधुर धुन 
पे झूमे भौंरे गुन गुन
चिड़ियों ने नृत्य किया 
महक उठी हर बगिया 
बगिया के रंग देख 
तितली के पंख देख 
अप्सरा उतर आईं 
लेकर के अंगड़ाई 
कलियों से बोलीं ये 
सजो आज वेणी में 
देखूँगी दर्पन मैं 
कजरारे नैनन में 
कौन रसिक 
कौन पथिक 
बसा चला जाता है 
ढूँढ मेरी लाता है 
झनन झनन झाँझर वो 
खनन खनन बजती जो 
पहन पहन झूमूँगी
ऋतुराज आये हैं, चरण आज चूमूँगी ..

**जिज्ञासा सिंह**

आँसू के रूप


झिमिर झिमिर 
ठहर ठहर 
बूँदों का बरसना 
आँचल में ठहरना 
देख मैं हुई अचंभित 
सशंकित 
भी !!!
अभी अभी 
तो ठहरी है बरसात 
फिर ये बूँदों की बारात
कहाँ से आ रही है ?
मुझे भरमा रही है 
क्या ???
ठहरकर देखा 
तो अनमनी सी दिखी 
बेरुखी 
से बोली 
मैं हूँ सहेली 
इसकी पुरानी 
बड़ी जानी पहचानी 
ये होती है जब उदास
मैं ही होती हूँ इसके पास 
काली घटा बन 
बन ठन 
इसके आँखों में 
ख्यालों ख्वाबों में 
समा जाती हूँ 
रह रह बरस जाती हूँ 
ये समेट लेती है 
अपने आँचल में लपेट लेती है 
कभी-कभी बन जाती है सहेली भी 
हमजोली भी 
लड़कपन के किस्से सुनाती है 
लगाती है 
ठहाके खिलखिलाकर 
मैं भी हँसकर 
लोटपोट हो जाती हूँ 
फिर उसकी मुस्काती आँखों में बस जाती हूँ 
हँसते-हँसते बिहँस पड़ती हूँ 
उन्हीं आँखों से बरसती हूँ 
जिनमें अनमोल आँसुओं की बिरासत है 
और आँसुओं के पास रूप बदलने की फितरत है 

**जिज्ञासा सिंह**

मौन से साक्षात्कार



उथलपुथल उठापटक 
खटपट 
शोरशराबा भूचाल 
भूत भविष्य वर्तमान काल 
हलचल 
घोर कोलाहल 
नृत्य क्रीड़ा 
व्याधि पीड़ा 
हँसन रुदन
करुण क्रंदन 
ऊँच नीच आकाश पाताल 
भ्रमों का जाल 
संदेहों का स्पन्दन 
भ्रांतियों का स्फुरण 
जीव परजीव की व्युत्पत्ति 
सद्गति सन्मति अवनति 
सब का अधिग्रहण  
करता हुआ मेरा मन 
विपाशा में फँसा 
अपने ऊपर ही हँसा 
हो न पाया शान्त 
रहा अशान्त 
बार बार 
बारम्बार 
झकझोर जगाया 
न उठा न जागा न कसमसाया 
हार कर हो गई आज मौन 
है कहीं, कोई और कौन ?
जिससे साक्षात्कार हो
अंगीकार हो 
जिसे मेरा, ये वाचाल मन
कर ले आत्म आलिंगन 
मुझे प्रस्फुटित कर दे 
प्रज्ज्वलित कर दे 
दीप 
सुदीप 
इन कोलाहलों के मध्य 
मेरे सानिध्य 
बस वही हो,  बस वही हो 
वही सुनूँ, जो उसने कही हो 
वही समझूँ जो वो बताये 
वही रास्ता दिखाए
अब जाके उसे थोड़ा सा पहचाना है 
कोलाहल से, भ्रमों से दूर जाना है 

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल 

समय तो बीतता ही है

समय उड़ चला 
हाथ हिला हिला 
ले रहा विदा 
अलविदा 
जैसे ही कहा मैंने 
मुस्कुरा दिया उसने 
मुझको चिढ़ाता सा 
अजब गजब मुँह बनाता सा 
दिखता रहा वो 
दूर से जाने,  क्या क्या कहता रहा वो 
पल भर में घुमा गया चक्र 
वक्र 
सी दिखी छवि
मेरी अवि 
मुझे कर गई तटस्थ
चित्त शांत आश्वस्त 
कलरव करते मेघ उड़े
उमड़े घुमड़े
कह गए मन्द मन्द 
स्वच्छंद 
मेरे सहगामी 
विचरण के स्वामी 
मैं तुम और समय 
नहीं चलते असमय 
अपनी गति से चले जा रहे 
हवाओं को बहा रहे 
अपने ही साथ 
तुम रह गए अनाथ 
हाथ मसलते रहे
कहते रहे 
ठहरो मैं आ रहा हूँ 
अपनी सुना रहा हूँ 
न तुम सुना पाये न मैं रुका 
झुका झुका सा मेघ थका थका 
उसे न बूँद मिली जो बरसती 
मेरी भी आँखें तरसती 
रह गईं उसके लिए 
जिसके आगोश में अब तक जिए 
जो न रुका है न रुकेगा 
न थका है न थकेगा
वह चलायमान था चलता रहेगा 
न तुम्हारा था न मेरा है न किसी का बनेगा 

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल 

हवाई उड़ान और मैं

हवाओं ने मुझे फिर आजमाया 
बाँह पकड़ी और अपने संग उड़ाया 

ले चलीं वो आसमाँ के पार मुझको 
चाँद और तारों ने स्वागत गीत गाया

देखकर उनके जहाँ की आबे रौनक़ 
कशमकश में पड़ गई दिल हिचकिचाया 

सोचती हूँ मैं कहाँ ये आ गई
इतना उड़ने का नहीं मुझमे समाया 

गर हवा ने हाथ छोड़ा बीच में तो 
गिर के जाऊँगी कहाँ ? जब समझ आया 

देर, काफी देर थी अब हो चुकी 
करूँ क्या ये सोचकर मन डगमगाया 

था किसी ने एक दिन मुझसे कहा 
ये हवाएँ छोड़ देतीं अपना साया 

इस तरह उड़कर पहुँचते जो शिखर पे 
है हवा ने भी उन्हें एक दिन गिराया 

कब औ किसका हाथ ये पकड़ें औ उड़ लें 
आज तक मेरी समझ न राज़ आया 

इस लिए चल चल के उड़ना सीखना 
वरना गिर के कितनों ने खुद को गंवाया 

अपनी काबिलियत को धीरे से परख कर 
जो हैं चढ़ते सीढियों का पहला पाया 

पा ही जाते मंज़िलों का रास्ता वो 
धैर्य औ संयम को जिसने पथ बनाया 

**जिज्ञासा सिंह**

शहीद की पत्नी का विलाप


उस मृगनयनी का विलाप सुनो

जो कल ही ब्याह के आयी थी
उसके क्रंदन का प्रलाप सुनो

इस रुदन की पीड़ा से हृदय 
जाता है थर थर कांप सुनो

है चीख पुकार सी मची हुई
घनघोर हुआ आलाप सुनो 

मेहंदी औ महावर धो डाला
छूटी न लालरी छाप सुनो

घर, देहरी औ दरवाजे पर
सन्नाटा और संताप सुनो

तोरण की लड़ियां टूट गई
मैहर की धूमिल थाप सुनो

पायल के घुँघरू बिखर गए
आती न कोई पदचाप सुनो

प्रभु के आगे सिर पटक पटक
दे रही दुहाई जाप सुनो

हे ईश्वर ! मेरे किन कर्मों का
ऐसा दिया है शाप सुनो

ये जीवन की शुरुआत ही थी 
फिर मुझसे हुआ क्या पाप सुनो ?
          
  **जिज्ञासा सिंह** 

किराए में


किराए में बहुत कुछ मिलता है

घर मकान,ऊँची बड़ी दुकान,
गहना और खाने का सामान
यूँ कहें आजकल ,किराए पे कोख में बच्चा पलता है

दूल्हा दुल्हन,  शादी का जोड़ा, शेरवानी
शादी में मम्मी पापा, नाना नानी
यूँ कहें किराए पे सात फेरों पे, घी का दिया जलता है

किराए पे भीड़, बुला लेते हैं नेतागण 
बिजली पानी राशन, साथ देते है लंबे भाषण
ये किराए का जातिवाद और भ्रष्टाचार बहुत खलता है

चाँद पर मैंने भी ली है जमीन किराए पे
सैटलाइट में बैठ के जाएंगे किराए पे
सुना है खाना कपड़ा पानी, वहाँ किराए पे सब पहुंचता है

सब किराए पे मिले, तो काम क्या करना
अपना चैनो हराम क्या करना ?
किराया देती रहेगी अगली पीढ़ी, 
अपना क्या खाक कुछ बिगड़ता है

किराए में बहुत कुछ मिलता है

     **जिज्ञासा सिंह**

जब जागो तभी सवेरा

वही जो समझना मुश्किल, समझना चाहता है मन 
घनी बस्ती में होकर के, निकलना चाहता है मन 

दिशाएँ देखकर अवरुद्ध, कहीं से रास्ता निकले 
यही एक बात है जो सोचना, अब चाहता है मन 

किनारे ही किनारे से, चले जाने को है बेबस 
भँवर में डोलती नैया, को खेना चाहता है मन 

अगर चलते समय से, तो पहुंचना सहज हो जाता 
कटीले मार्ग को उपवन, बनाना चाहता है मन 

ये काँटे भी तो उसने ही, उगाये थे बहुत पहले 
चुभे जब पाँव में तो, राह तजना चाहता है मन 

पता क्या था कि एक दिन ? रास्ता मिलना कठिन होगा 
पुरानी उन लकीरों को, मिटाना चाहता है मन 

अगर खुद के बनाए रास्ते, इतने कठिन हों तो 
कर्म का आंकलन निज से ही, करना चाहता है मन 

अगर ऐसा सुलभ सौंदर्य, खुद में ही प्रकट होगा 
तो समझो इस धरा पे, राज करना चाहता है मन 

**जिज्ञासा सिंह**