उम्र को जाना है
वो तो जा रही है,
याद का मधुरिम
तराना गा रहे हम ॥
खट्टी-मीठी-शर्बती
नमकीन जो थी,
उसके अफ़साने में
डूबे जा रहे हम ॥
क्या कहें इस कदर
डूबे उबर ना पाए कभी,
खुल न पाई बंद मुट्ठी
उड़ गया हर आसमाँ ।
रास्तों पे रास्ते की
भीड़ में चलके अकेले,
कदम पर ही कदम रख
गुजरा अनेकों कारवाँ ॥
बंद हों या खुली आँखें
पुतलियों ने दृश्य देखा,
लुट रही अपनी अमानत
और लुटाते जा रहे हम ॥
ज्यों फिसलती रेत
अपने आप,
पाँचों उँगलियों से
रोक न पाती हथेली ।
उम्र की बढ़ती उमर
दर्पण दिखाता,
झाँकते केशों की लड़ियाँ
बन रहीं अनुपम सहेली ॥
लीजिए आनंद, कहिए
पकड़कर इस दौर से,
उम्र ढलती जा रही और
जवाँ होते जा रहे हम ॥
**जिज्ञासा सिंह**