सोचना कुछ तो पड़ेगा

सभ्यताओं के महल 
जब खंडहर होने लगेंगे,
फूल बनके शूल जब भर
पाँव में चुभने लगेंगे, 
सोचना कुछ तो पड़ेगा 

सोचना हमको है उस परिवेश को,
हो जहाँ पे सभ्यताओं का उदय ।
दीमकों का भी जहाँ साम्राज्य हो,
और मिलता हो घुनों को भी प्रश्रय ॥
खोखली जो कर रहे हैं वे जड़ें,
उन जड़ो को सींचना हमको पड़ेगा ॥

काली काली बदलियाँ हों उठ रहीं,
इंद्र्धनुषों का चुका हो जब पलायन ।
बूँद भी बरसें धरा पर कंटकों से,
मलिनता बिखरी पड़ी भू से गगन ॥
जटिलता के द्वार का हर रास्ता
प्रेम और सौहार्द्र से अब मोड़ना हमको पड़ेगा ॥

भूमि में जल की जगह पे अग्नि हो,
हैं हवा में रेत के बारूद उड़ते ।
प्रस्तरों के खंड राहों में पड़े,
मनुजता के द्वार पर हों मनुज भिड़ते ॥
मच रहे भूचाल का संदर्भ ले 
हर दिशा को नवलता से जोड़ना हमको पड़ेगा ॥

सिंहनादी हो रहा हर ओर जो,
सौ निनादों से जुड़ा जो नाद है ।
अव्ययों के हो रहे विस्तार का,
नव कुटुम जो दिख रहा आबाद है ॥
आँधियां संग लेके आऐंगी बवंडर
उस बवंडर की ध्वजा को तोड़ना हमको पड़ेगा ॥

**जिज्ञासा सिंह**

जीवन है एक खेल


मन मेरे अलबेले साथी सुनता जा ।
जीवन है ये,गुणागणित तू गुनता जा ॥

ठहरे पानी में जो कंवल खिला 
कीचड़ ही निकला ।
डाला अंजन दिया हुआ आँखों में 
कंकड़ ही निकला ॥
देख जरा पुतली को उलट पुलट के
बीन बीन कर किरचें
कंकड़ की रखता जा ॥

चुभता काँटा पावों में 
हो जैसे आँखों में कंकड़ ।
चलना दिखना दोनो दूभर
लुढ़का जाए बेबस ही धड़ ॥
कटे पेड़ के तने अलग हो रहे हों जैसे
उखड़ी जड़ है 
झड़ी कोपलें चुनता जा ॥

अनायास तू अब मत समझा 
बजी दुंदुभी टूटे मेखड़ बैंड बजा ।
सात सुरों के साज बीन में बजें सभी
ताल में ताल भिड़ा हाथों से आज सजा ॥
चले मदारी चाल नाचते पले पलाए
नाच उन्हीं की ताल
नई धुन बुनता जा ॥

रेखाओं का तंत्र बूझता जाने कब से
बचा नहीं है भोग लगाना अब कुछ ।
जो कुछ है संज्ञान रखो उर भीतर
मोल तोल का पलड़ा जाने सारा कुछ ॥
दाग धुला और चला गया फिर से आएगा
जीवन है एक खेल 
मदारी बनता जा ॥

**जिज्ञासा सिंह**

योग कर निरोग हों

 


जल,अग्नि,भू, नभ, वायु

का इस हृदय में संयोग हो 

आइए नित भोर संग 

हम योग कर निरोग हों 


ये सृष्टिये धरतीगगन 

ये प्रकृतिये सुंदर चमन 

ये मेघये शीतल हवा

सबको करें मन में ग्रहन 

करें आचमन पंचतत्व का,

अपने पराए लोग हों 

आइए नित भोर संग 

हम योग कर निरोग हों 


हमने स्वयं की आत्मा

परमात्मा को त्याग कर 

मूल्य-संस्कृति को भुलाया

दूसरों की नक़ल कर 

फिर से जुड़ें अपनी जड़ों से

एकता का योग हो 

आइए नित भोर संग 

हम योग कर निरोग हों 


इस राष्ट्र की हर चेतना

उस राष्ट्र ने अपना लिया 

जिसने  जाना योग को

 प्रकृति की पूजा किया 

हम से बड़ा मूरख नहीं

जो पूजते उपभोग हों 

आइए नित भोर संग 

हम योग कर निरोग हों 


जो भी मनुज गह योग को 

सुख स्वास्थ्य का अपना रहे 

वे ही समय के साथ चलकर

प्रगति का मग पा रहे 

ले मंत्रणा गुरु सेस्वयं से

भाव से शिवयोग हों 

आइए नित भोर संग 

हम योग कर निरोग हों 


**जिज्ञासा सिंह**

कि बेटी चाहती है अब !

पिता जी सोच कुछ लेना 

तभी टीका मेरा करना 

देखकर धन  दौलत 

मोह और माया में  पड़ना 


कि मैं अम्मा के जैसे 

शीश  अपना झुकाऊँगी 

 दादी की तरह दिन रात 

मैं घूँघट निकालूँगी 

मेरे खुद्दार मन का 

मान  सम्मान तुम रखना 


 ये कहना मेरे ससुराल में

कि बेटियाँ हैं ग़ैर 

जो जाती मायके से फिर 

बतातीं बस ख़ुशी  खैर 

मैं वो बेटी हूँ जो है जानती

 हर भाव को पढ़ना 


मैं इतना जानती हूँ 

बाप को इज़्ज़त बड़ी प्यारी 

उसी इज़्ज़त की ज़िद पर

बेटियाँ जाती रहीं मारी 

हमें तो अश्रुओं में डूबकर

आया सदा बचना 


मेरे मन के सलोने भाव 

तुमसे और माँ से हैं

मेरे विश्वास की पूँजी

जुड़ी ही मायके से हैं

अतः ये ध्यान रखना कि

नज़र को  पड़े गिरना 


वहाँ मैं संस्कारों का

तुम्हारे मान रक्खूँगी 

मूल्य का निज के जीवन में

नित्य अवधरण कर लूँगी 

मगर मिथ्या अनर्गल 

बात पर मुझको नहीं झुकना  


तुम्हें मैं सच बताऊँ झेलना

मुझको नहीं अब कुछ 

उसूलों मान्यताओं का

खजाना लग रहा है तुच्छ 

कि बेटी चाहती है अब 

समय के साथ ही चलना 


पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ

**जिज्ञासा सिंह**

नैया कैसे पार लगेगी

सेतुबंध बनने की अब तुम सोचो
नौका कैसे पार लगेगी
टूटा पुल है।
जाना है उस पार, नदी में बाढ़ भरी
घाटों का व्यापार 
भरा दलदल है ॥

चप्पू कुंदन की कीलों से ठुककर गढ़ा हुआ
हत्थे पर चांदी का पत्तल चढ़ा हुआ
पकड़ बड़ी मजबूत किए बैठा नाविक
चहुँ ओर निहारे दरिया ही अभिशाप,
बढ़ रहा जल है ॥

पोर-पोर है भरा हुआ जैसे तारों से अंबर
बंद कर रहा छेद आज रांगे को भरकर
रांगा छेद, छेद रांगे को रंज पाएगा
छेद-छेद जब भरी हुई है गाद 
कील में छल है ॥

गंध फैलती गई हुआ जल खारा कड़ुआ
भरा अश्रु आँखों में दिखता धुआँ धुआँ 
ठूंठ बबूल समुख बैठा है हलधर देखो
ताक रहा अंबर की रेखा-रेखा
बदरी की हलचल है ॥

**जिज्ञासा सिंह**

दिन में तारे

 

दिन में तारे फिर  

नज़र आने लगे 

बन गए मेहमान 

सबका द्वार खटकाने लगे 


सड़क चिकनी है बनी

कल तक थीं जो पगडंडियाँ 

हैं हवाओं से भरी दिखतीं

हज़ारों मंडियाँ 

पेड़ अपने पाँव चलकर

छाँव तक जाने लगे 


कलम काग़ज़ बिक रहा है

सज गई हैं क्यारियाँ 

साथ ही रक्खी हुई 

दिखतीं हैं पैनी आरियाँ 

फूलदानों में लगे कुछ

बाग इतराने लगे


रोकना उनको मुझे था

रोकते मुझको हैं वो

घर में बागों मंडियों में

बेंचते सबको हैं जो

उनके आगे हर मुकुट 

हैं शीश झुक जाने लगे 


**जिज्ञासा सिंह**