मैं जीवन में नित नए अनुभवों से रूबरू होती हूँ,जो मेरे अंतस से सीधे साक्षात्कार करते हैं,उसी साक्षात्कार को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है मेरा ब्लॉग, जिज्ञासा की जिज्ञासा
सोचना कुछ तो पड़ेगा
जीवन है एक खेल
योग कर निरोग हों
जल,अग्नि,भू, नभ, वायु
का इस हृदय में संयोग हो ।
आइए नित भोर संग
हम योग कर निरोग हों ॥
ये सृष्टि, ये धरती, गगन
ये प्रकृति, ये सुंदर चमन ।
ये मेघ, ये शीतल हवा
सबको करें मन में ग्रहन ॥
करें आचमन पंचतत्व का,
अपने पराए लोग हों ।
आइए नित भोर संग
हम योग कर निरोग हों ॥
हमने स्वयं की आत्मा
परमात्मा को त्याग कर ।
मूल्य-संस्कृति को भुलाया
दूसरों की नक़ल कर ॥
फिर से जुड़ें अपनी जड़ों से
एकता का योग हो ।
आइए नित भोर संग
हम योग कर निरोग हों ॥
इस राष्ट्र की हर चेतना
उस राष्ट्र ने अपना लिया ।
जिसने न जाना योग को
न प्रकृति की पूजा किया ॥
हम से बड़ा मूरख नहीं
जो पूजते उपभोग हों ।
आइए नित भोर संग
हम योग कर निरोग हों ॥
जो भी मनुज गह योग को
सुख स्वास्थ्य का अपना रहे ।
वे ही समय के साथ चलकर
प्रगति का मग पा रहे ॥
ले मंत्रणा गुरु से, स्वयं से
भाव से शिवयोग हों ।
आइए नित भोर संग
हम योग कर निरोग हों ॥
**जिज्ञासा सिंह**
कि बेटी चाहती है अब !
पिता जी सोच कुछ लेना
तभी टीका मेरा करना ।
देखकर धन औ दौलत
मोह और माया में न पड़ना ॥
कि मैं अम्मा के जैसे
शीश न अपना झुकाऊँगी ।
न दादी की तरह दिन रात
मैं घूँघट निकालूँगी ॥
मेरे खुद्दार मन का
मान औ सम्मान तुम रखना ॥
न ये कहना मेरे ससुराल में
कि बेटियाँ हैं ग़ैर ।
जो जाती मायके से फिर
बतातीं बस ख़ुशी औ खैर ॥
मैं वो बेटी हूँ जो है जानती
हर भाव को पढ़ना ॥
मैं इतना जानती हूँ
बाप को इज़्ज़त बड़ी प्यारी ।
उसी इज़्ज़त की ज़िद पर
बेटियाँ जाती रहीं मारी ॥
हमें तो अश्रुओं में डूबकर
आया सदा बचना ॥
मेरे मन के सलोने भाव
तुमसे और माँ से हैं
मेरे विश्वास की पूँजी
जुड़ी ही मायके से हैं
अतः ये ध्यान रखना कि
नज़र को न पड़े गिरना ॥
वहाँ मैं संस्कारों का
तुम्हारे मान रक्खूँगी ।
मूल्य का निज के जीवन में
नित्य अवधरण कर लूँगी ॥
मगर मिथ्या अनर्गल
बात पर मुझको नहीं झुकना ॥
तुम्हें मैं सच बताऊँ झेलना
मुझको नहीं अब कुछ ।
उसूलों मान्यताओं का
खजाना लग रहा है तुच्छ ॥
कि बेटी चाहती है अब
समय के साथ ही चलना ॥
पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
**जिज्ञासा सिंह**
नैया कैसे पार लगेगी
दिन में तारे
दिन में तारे फिर
नज़र आने लगे ।
बन गए मेहमान
सबका द्वार खटकाने लगे ॥
सड़क चिकनी है बनी
कल तक थीं जो पगडंडियाँ ।
हैं हवाओं से भरी दिखतीं
हज़ारों मंडियाँ ।
पेड़ अपने पाँव चलकर
छाँव तक जाने लगे ।
कलम काग़ज़ बिक रहा है
सज गई हैं क्यारियाँ ।
साथ ही रक्खी हुई
दिखतीं हैं पैनी आरियाँ ॥
फूलदानों में लगे कुछ
बाग इतराने लगे
रोकना उनको मुझे था
रोकते मुझको हैं वो
घर में बागों मंडियों में
बेंचते सबको हैं जो
उनके आगे हर मुकुट
हैं शीश झुक जाने लगे ॥
**जिज्ञासा सिंह**