बन्द आँखों का संसार


बंद आँखों की दुनिया बड़ी रूहानी है 
जाने कितनी कवितायें जाने कितनी कहानी है 

यहाँ देखा है मैंने अपना अद्भुत अवतार 
खिलखिलाती वादियों का रूपहला संसार 
 
अकेली मैं घूमती हुई 
कभी इस डाल पे कभी उस डाल पे झूला झूलती हुई 

पींगें मारती हूँ पहुँच जाती हूँ सितारों के आसमान में 
चन्दामामा संग खेलती हूँ लुका-छिपी खुले मैदान में 

ढूँढ लाती हूँ सीपियों के मोती भी सिंधु से नज़रें छुपाकर 
पहन लेती हूँ गले में नगीनों संग सजाकर 

कब पक्षियों के घोंसलों में झांक लूँ 
बिना रोके टोके उनकी हर बात टाँक लूँ 

कब तितली बन फूलों पर मंडराऊँ 
कब भौंरों संग मधुर गीत गुनगुनाऊँ 

कभी भी पेड़ों पर चढ़ अमिया तोड़ लूँ 
कब अपनी धानी चुनर ओढ़ लूँ 

कब पहुँच जाऊँ इंद्रधनुषी बचपन में 
जाने कितनी बार पहुँची हूँ उस यौवन में 

जिसकी यादों का कोई सानी नहीं 
कुछ भी उतना ख़ूबसूरत रूमानी नहीं 

कभी-कभी तो लगता है आँखें ही न खोलूँ 
बस इन्हीं खूबसूरत सपनों का मज़ा लूँ

थक गई हूँ मैं अब खुली हुई आँखों से 
रोज रोज के झंझावातों से 

आख़िर मिलता ही क्या है आंखें खोलकर 
हर कदम रखना पड़ता है तौल तौलकर 

**जिज्ञासा सिंह**

शून्य का चक्र

शून्य हूँ ! कल शून्य में मिलना मुझे है 
पर सफर ये शून्य का कैसे करूँ मैं ।
शून्य के अंजान पथ पर अग्रणी हो 
चल रे मनवा हाथ तेरा पकड़ लूँ मैं ।।

शून्य अम्बर, शून्य धरती,शून्य जग ये 
फिर भी मानव खेलता है शून्य से ।
है अटल से भी अटल ये शून्य का भ्रम 
युद्ध सा है चल रहा मूर्धन्य से ।।

घोर हाहाकर सा है दिख रहा 
शून्य के प्रतिरोध में हर मनुज जीता ।
शून्य को चाहो बना लो अजर अविकल  
या बना लो अमरता की तुम सुभीता ।।
 
शून्य का ये चक्र सा जो चल रहा 
डोलते हैं हम सभी उस चाक में ।
कौन है जो अडिग अविचल जी सके  
कौन है जिसको न मिलना ख़ाक में ।।

**जिज्ञासा सिंह**

दिवास्वप्न

मेरे नैनों ने विवश हो, कल ये मुझसे  कह दिया 
थक गया हूँ साथ रहकर, स्वप्न मत देखो प्रिये 

नींद से बोझिल इधर मैं, तुम उधर सपनों में खोयीं 
इस तरह की कशमकश में, मत मुझे छोड़ो प्रिये 

मेरी पुतली भी सिकुड़ कर तनहा, तिनका रह गई 
ऐसा पागल इश्क भी देता नहीं शोभा प्रिये 

इश्क़ की परछाइयाँ भी छोड़ देंगी एक दिन 
शाम होते छोड़कर जाता चला साया प्रिये 

ग़र समझ लो वक्त रहते इश्क़ की गुस्ताखियाँ 
फिर मुझे हर वक्त पड़ता यूँ नहीं रोना प्रिये 

मेरे नैनों ने विवश हो, कल ये मुझसे कह दिया 
थक गया हूँ साथ रहकर, स्वप्न मत देखो प्रिये 

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल 

पारदर्शी तितलियाँ




ये तितली कौन सी हैं और कहाँ से आ गई हैं ?
नहीं देखी कभी भी इस तरह की तितलियाँ मैंने

हज़ारों पँख में खुद को लपेटे हैं हुए जो  
कि जैसे चम चमाती आसमानी बिजलियाँ मैंने 

कसम से देखकर मैं डर गया हूँ इनकी फितरत 
न देखीं थीं कभी भी इस तरह की शोखियाँ मैंने 

कभी फ़ूलों पे मंडराते नहीं देखा इन्हें मैंने 
सदा पेड़ों के बुर्जों पे बनातीं आशियाँ अपने 

जहाँ देखें परिंदे आसमानी उड़ रहे हैं  
ये पंखों को बना देती हैं रंगीं आसमाँ अपने 

अगर तुमको कहीं राहों में उड़ती ये दिखें तो
समझ लेना बहारें खुद बनाने आ गई हैं गुलिस्ताँ अपने 

कभी सोचा नहीं था इतने काबिल पंख हैं इनके 
ये लाकर चाँद तारों को बिठातीं दरमियाँ अपने 

पढ़ूँ इनके कशीदे कितने भी, पर कम ही लगते हैं
ये खुलकर हैं दिखातीं हर तरफ़ हैं माज़दा अपने 

ये तितली हर क़दीमी आवरण भी तोड़ देती हैं 
मिला लेती हैं संग में आजकल की लड़कियाँ अपने 
  
**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल 
क़दीमी - दकियानूसी 

माँ के बाद



मैं और मेरा मन आज 

माँ के कमरे में खड़े हैं

माँ तो रहीं नहीं जाने क्या 

हम,अब खोजे पड़े हैं


अलमारी से झाँकता माँ का तौलिया

मेरा पसीना पोंछने को आतुर है

सामने रखे चश्मे की 

मेरे माथे की हर सलवटों पर नज़र है


उनका झालरों वाला बाँस का पंखा

लगता है अभी मेरी गर्मी कम कर देगा

उनकी बरनी का अचार मेरे 

खाने के स्वाद को दोगुना कर देगा


मुझे खिलाते हुए

वह कौर कौर गिनेगी

मना करने के बावजूद

घी से नहाई रोटी डाल देगी


यादों में डूबा मैं और मेरा मन ये बातें

कर रहे हैं हौले हौले

काश हर कोई माँ के प्यार को

समय रहते समझ ले


पर वक़्त रहते  हम समझते हैं

 समझने देती है तृष्णा हमारी

सत्ता पने के बाद औलाद ही 

बन जाती है स्वार्थी


ऐसा सोच ही रहा था मैं कि

माँ की तस्वीर धीरे से मुस्कराई

मुझसे कान में कहा,कल  सही,बेटे

तुझे ये बात आज तो समझ में आयी


  **जिज्ञासा**

चित्र साभार गूगल 

छत विहीन( मजदूर )



हाँ ! छत विहीन हूँ मै

अपना कुछ भी नहीं, पराधीन हूँ मैं

सो जाता हूँ फुटपाथ को अपनी जगह समझ के
धरा के अधीन हूँ मै

बुरा नहीं हूँ मन का मैं
मिट्टी से जुड़े हुए काम करता हूँ मलीन हूँ मै

रोटी से पेट भर सकता हूँ मैं अपना 
प्याज और चटनी का शौकीन हूँ मैं 

मेरे कपड़ों को देखकर मुझे गंदा मत समझना
स्वभाव से बड़ा ही शालीन हूँ मैं

समझ लेता हूँ सबकी चाल औ बातें सारी
बड़ा बारीक और महीन हूँ मैं

बड़े ही सभ्य हैं घरवाले मेरे अपने 
ग़रीब हूँ ,पर कुलीन हूँ मैं

छेड़ दोगे गर अनायास ही मुझको तुम 
इल्जाम लगाता बड़े संगीन हूँ मैं

मिले मौका तो मैं हर एक मजे लेता हूँ 
झूमता गाता बोतल संग,बड़ा रंगीन हूँ मैं

मेरे अधिकार क्या हैं ? जानता हर बात हूँ युग की
दिखता नहीं हूँ, बड़ा ही नवीन हूँ मैं

वक्त के साथ चलता हूँ मगर वो भागता मुझसे
करूँ क्या ? बड़ा भाग्यविहीन हूँ मैं

हाँ छत विहीन हूँ मैं.......

**जिज्ञासा सिंह**

कोरोना का दौर और मैं ( बाल कविता )




मैं और मेरी नहीं सी जान 
हो गई बड़ी परेशान 

कोरोना जैसी महामारी से 
हर घर में घुसी इस बीमारी से 

यह जब हमारे देश में आई 
इसने ऐसी दहशत फैलाई 

कि हम छुप गए घरों में
अपने अपने छोटे से कमरों में

बंद हो गई पढ़ाई और स्कूल
धीरे धीरे हम सब कुछ जा रहे हैं भूल

मेरे दोस्त और मेरे टीचर बहुत याद आते हैं मुझे
लगते हैं जीवन के हर दिए बुझे बुझे

न खेल पा रहे हैं न किसी से मिल पा रहे हैं
घर में बैठे बोर होते जा रहे हैं

कभी कभी तो सोच के घबरा जाते हैं हम
 ये बीमारी कब होगी ख़तम

वैसे हम हर नियम का पालन कर रहे हैं
साफ सफाई और दो गज़ की दूरी का ध्यान रख रहे हैं

बस अब ये हमारे देश से चली जाए
जाकर किसी और दुनिया में बस जाए

यही प्रार्थना करते हैं हम हर दिन 
अब नहीं रह पा रहे हैं हम अपने दोस्तों और स्कूल के बिन..!

**जिज्ञासा सिंह**

अब मत समझाओ न !

                       
अब मत समझाओ न !
कई बार कह चुकी हूँ माँ 
मुझे मत समझाओ न !

थक गई हूँ मैं समझ समझ के
समझाया जा रहा है हमें ही सदियों से
जिन्होंने अब तक हमें समझाया है
उनको भी थोड़ा समझाओ न

ये समझना क्या मेरे लिए ही है केवल
या डर जाती हो देखकर उनका भुजबल 
सुना सुना के जो समझाते रहे हमें अक्सर
अब उन्हें भी दो चार बातें सुनाओ न

देर हो चुकी है उनको समझाने में पहले ही 
भुगतते रहे हम उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी 
वो समझते तो औकात में रहते हरदम 
अब तो उनकी औकात उन्हें बताओ न

दर्द ऐंड़ी से चोटी तक दिया है फिर भी
सोचकर जाता है रोम रोम सिहर भी
फिर भी क्यों सिखा रही हो, कि वो ही सब कुछ है
उसके आगे पीछे दुम हिलाओ न

वो महान नहीं हैं मेरे लिए समझ लो
अब तो उन्हें एक इंसान की तरह ले लो
चढ़ाती रही हो सिर से आसमाँ तक तुम्हीं उनको 
उतारने के लिए अब से हाथ बढ़ाओ न 

समझ, पे पूरी तरह था उनका ही हक
वो समझाते रहे हमको मरते दम तक
बूढ़ी हो गई हो अक्ल नही है, ये जुमले हैं उनके 
अब तो इन जुमलों से ऊपर उठ जाओ न 

कई बार कह चुकी हूँ माँ ! 
अब मुझे कुछ भी समझाओ न 
            
    **जिज्ञासा सिंह**

   चित्र साभार गूगल 

संवाद

ऐसा क्यूँ है ? बस यूँ ही 
वैसा क्यूँ है ? बस यूँ ही 

क्या देख रहे थे उधर ? बस यूँ ही  
क्यूँ देखा घूरकर ? बस यूँ ही 

क्यूँ  परेशान हो ? बस यूँ ही 
किस बात पे हैरान हो ? बस यूँ ही 

देर क्यूँ हो गई आज ? बस यूँ ही 
ये बदले हुए सुर,ये आवाज़ ! बस यूँ ही 

इस तरह चुप क्यूँ हो ? बस यूँ ही 
नज़रों से रहे छुप क्यूँ हो ? बस यूँ ही 

ये उतरा हुआ चेहरा ? बस यूँ ही 
ये चेहरे पे उदासी का पहरा ? बस यूँ ही 

मेरा तुम्हारा साथ ! बस यूँ ही 
अटके भटके, हलक में लटके से ज़ज्बात ! बस यूँ ही 
 
न मेरी सुनी न अपनी कही ?? 
गुजर गया जीवन बस यूँ ही ??

**जिज्ञासा सिंह**

भ्रूणहत्या (कन्या )

 


अरे ! आज फिर मारी गई मैं

कहूं किससे ये जज़्बात अपने
गर्भ में ही जब मौत के घाट उतारी गई मैं

अभी तो बीज से अंकुरित ही हुई थी मैं
जड़ सहित दोनो हाथों से उखारी गई मैं

प्रस्फुटित जैसे हुई कोपल औे शाखा मेरी
झेल कैंची और कटारी गई मैं

कभी कन्या, कभी देवी, कभी संसार की जननी 
बड़े भावों के साथ पूजी कुमारी गई मैं

कभी इस जहाँ में मेरा बड़ा सम्मान होता था
जाने किस बात पे यूँ दिल से निकारी गई मैं 

सभी कहते हैं,लड़की एक बोझ होती है 
इस दौर में बन,कर्ज उधारी गई मैं 

भला ये कौन मानेगा, कि मै भी तुल्य हूँ उनके 
मुद्दतों से छली बारी बारी गई मैं 

वक्त बदला है पर कुछ लोग अब भी हैं मेरे दुश्मन 
ऐसे लोगों की वजह से, बन विपदा भारी गई मैं 

**जिज्ञासा सिंह**
 चित्र-साभार गूगल 

प्रार्थना

         

प्रार्थना तू कितनी महान है 


चिंता भय शोक में डूबा हुआ मानव 

तेरे सानिध्य में बनता इंसान है

प्रार्थना...


दुःखों का अंबार बौना नज़र आता है

करती अकाट्य कष्टों का निदान है

प्रार्थना...


मन का मैल धो देती है सदा के लिए

मन भरता तितली सी उड़ान है

प्रार्थना...


द्वेष घृणा ईर्ष्या कोसों दूर चले जाते हैं

मनन ही हर उलझन का निदान है

 र्प्राथना...


नकार देती है मन में भरा अशुभ चिंतन

स्वस्थ विचारों को देती उचित स्थान है

प्रार्थना...


**जिज्ञासा**                               

तोहफा मेरा


एक अदद सा तोहफा मुझे भी देते काश 
मैं भी भर लेती अपना आकाश 

वो जो मेरा था तुम किसे दे आए 
मैंने रक्खा था बिल्कुल करीब, दिल के पास 

आज ढूंढा है कई कई बार मैंने 
वो कूची वो फ्रेम वो कैनवास 

जिसपे रंगे थे मेरी आँखों के काजल 
और जुल्फों के मुस्कराते अल्फाज़ 

हँसी भी उकेरी थी तुमने एक दिन 
वो गुलाबी गालों के रेशमी अह्सास 

जाने क्यूँ ? और किसे दे आए 
ऐसा कौन था ? तुम्हारा, मुझसे खास 

हाथ पर हाथ धरे बैठी रही मैं 
ज़रा भी नहीं हुआ मुझको आभास 

खूबसूरत अहसासों का सरमाया मेरा  
तोहफा बिखर गया बन के ताश 

**जिज्ञासा सिंह**

तमाशबीन ( हिंसा )

चित्रर-साभार गूगल 

पास की झुग्गी में बहुत ज़ोर शोरशराबा हुआ 
वो दिखा दांत पीसता हुआ
जबड़े कसे ऐसे,  जैसे चबा जाएगा
खा जाएगा
उसे कच्चा ही 
इतना समझा ही 
था कि वह भौंकने लगा 
कुत्ते की तरह नोचने लगा 
उसके गाल 
खींचने लगा उसके बाल 
और खींचते खींचते ले गया मेरी आँखों से दूर 
वह खें खें चिल्लाती रही हो के मजबूर 
अरे मार डाला,मार डाला
देती रही हवाला 
हाथ उठा उठा 
दहाड़ लगा लगा 
पुकारती रही 
चिंघाड़ती रही 
भीड़ बढ़ती गई 
तमाशबीन बनती गई 
मैं भी बालकनी में लटकी रही 
जहाँ तक वो दिखी देखती रही 
आँखें फाड़ फाड़ के 
फिर हाथ मुँह झाड़ के 
धीरे से अन्दर आ गई 
टीवी का रिमोट हाथ में थाम 
धम्म से सोफ़े में समा गई 
      
    **जिज्ञासा**

किसान हूँ न



तू इतना महान भी नहीं जितना बन रहा है 
शिकारियों के बुने जाल में फंस रहा है 

करीब से देखा है मैंने भी काफी करीब से 
मुखातिब हुआ हूँ मैं भी गरीबी और गरीब से 

हल चलाया है मैंने भी पसीने में तर बतर होकर 
सोया हूँ निथरी खटिया पे थककर 

किसान हूँ न नंगी आँखों से दुनिया देखी है 
मेरे माथे पे लिखी मेरी लेखी है 

मैंने भी लड़े हैं  कई बार अधिकारों के युद्द 
अपने ही लोगों के विरुद्ध 

मशालें जलाई हैं अपने हाथों से 
शिकंजे में रहा हूँ जेल की सलाखों के 

कोड़े खाए हैं नंगी पीठ पर 
मैं रोता रहा वो हँसते रहे अपनी जीत पर 

तुम्हें क्या लग रहा है धरने से सब बदल जाएगा 
या तुम्हारी किस्मत का दिया जल जाएगा 

या भर देंगे व्यंजनों से तुम्हारी थाली ये 
या हर दुःख दर्द से करेंगे तुम्हारी रखवाली ये 

सुन मेरे भाई ! ऐसा कुछ नहीं होगा रे 
तुम्हारे सपने जहाँ हैं वहीं रहेंगे धरे 

और तू खिलौना बन कर रह जाएगा इनके हाथों का 
बहकावे में मत आ, पिटारा है इनके पास खोखली बातों का 

इनके बनाये कानूनों से मत डर 
आगे बढ़ अपने फैसले खुद कर 

तू तो अन्नदाता है तेरा दाता कोई नहीं 
देता बस विधाता है दिलाता हमें अपना कर्म ही 

तू अपनी नियति लेकर आया था वही लेकर जाएगा 
किसान ! लफड़े में मत पड़, बेमौत मारा जाएगा 

**जिज्ञासा सिंह**

वृद्ध हूँ मैं

                                                                 

   

चित्र-साभार गूगल 

                                  ब्रम्हाण्ड में, मैं कहाँ हूँ

भटकता हुआ अक्सर सोचता रहा हूँ

शायद बवंडर में घूमता एक तिनका हूँ


या उंजाले की तलाश करता

एक जलता बुझता दिया हूँ


या पगडंडी पर कटे हुए पेड़ का 

पड़ा हुआ सूखा तना हूँ 


या लू के थपेड़ों में जूझती 

साँय साँय करती ग़र्म हवा हूँ


या बहने को तरसता,

सूखा पड़ा एक दरिया हूँ


या फिर अपनों की भीड़ में कोना ढूँढता 

जीवन जी चुका एक वृद्ध इंसां हूँ


  **जिज्ञासा सिंह**