खोलो मेरे मन का दर्पण
मेरे कर कमलों में शोभित
ये पुष्पहार करना अर्पण॥
कुंजन वन बीच सरोवर में
नित हंस विचरता था अनमन
माँ स्नेह आपका मिला अतुल
शरणागत आ बैठा चरनन
हम विहग जगत में भटक रहे
निज पंथ खोजते हैं कण-कण॥
न वेदपुराण पढ़े हमने
जानूँ ना गीता रामायण
नैनों में बसी एक छवि मनहर
शब्दों का कराती पारायण
इस शब्दमोह प्रेमी मन को
देना माँ निरंतरता क्षण-क्षण॥
माँगूँ सानिध्य आपका मैं
माँ ज्ञान मिले अज्ञान हटे
हम नित अनुभव के धनी बनें
कल्पना लोक में रहें डटे
पाठन औ पठन ही जीवन हो
जीतें अबोधता से हर रण॥
जिज्ञासा सिंह
🌼बसंत पंचमी की हार्दिक बधाई🌼