आप लोग सुनते कहाँ हैं

सन्नाटे में घर है
पूरा शहर है
यूँ कहें पूरा देश है
बदला हुआ परिवेश है
रात में सन्नाटा चीरतीं हैं कुछ आवाजें
एंबुलेंसें
आती जाती गाड़ी 
सायरन बजाती घड़ी घड़ी
पाँच मिनट बाद 
पीछे से औरत के रोने की आवाज
आती है सुनाई 
साथ में दो मासूम बच्चों की परछाई
दिखी
और ये कहती हुई चीखी
पापा लौट आओ
इस तरह हमे छोड़कर मत जाओ
कितनी बार कहा था,घर से मत निकलो
मास्क पहन लो
पर आपने हमारी न मानी
आपको हमसे दूर ले गई, आपकी नादानी
क्या मिला आपको ? यूँ रुला के
हमें ऐसी दशा में पहुँचा के
जहाँ न आप हो न आपकी परछाई है
एक अजीब सी खामोशी छाई है
उसी खामोशी के साए में हम बस जिंदा हैं
पापा हम आप से बहुत शर्मिंदा हैं
आपको बचा नही पाए
और आप से जो, कह भी नहीं पाए
वो भुगतना सब कुछ अब हमें यहाँ है
क्योंकि हम बच्चों की बात
आप बड़े लोग सुनते कहाँ हैं ?

**जिज्ञासा सिंह**

जुस्तजू में उनकी


 जुस्तजू में उनकी, हम आज फिर टूटे 

लूट कर मुझको गए,बाद उसके रूठे


काश ग़ैरों की तरह मुझसे यूँ आके न मिलते 

पास सब कुछ है, मगर लगता हैं गए लूटे 


ये कायनात मुझे, सूनी नज़र आती है 

ये बहारें औ बहारों के नज़ारे झूठे 


अपनी लौ में बह रहा ग़मों का दरिया 

बह गए अश्क, चश्म रह गए मेरे सूखे 


दूर से मुझको बुलाती है वो खुशी रोकर 

इस भरी दुनिया में हम रह गए जिसके भूखे   


यूँ ही ढा ढा के सितम तोड़ दिया है मुझको 

अब कहाँ जाएँ कोई रस्ता न मुझको सूझे 


**जिज्ञासा सिंह**

खोमचे वाला


लइया है,चूड़ा है,चना है, 
अभी अभी भूना है
गरमा गरम है
ऊपर से करारा अंदर से नरम है
जौ चने का सत्तू है ।
आवाज़ लगाता,गली में बेचता हुआ जा रहा पुत्तू है ।।
उसकी मधुर आवाज
आज
कई दिनों बाद सुनी
रागिनी 
सी बज गई
अपने मन ही मन मैं खुश हुई
दौड़कर उसे देखा
भुने चने का स्वाद चखा
अनजाने अंदेशे से डरी हुई मैं 
अंदर तक सिहरी हुई मैं 
 कुछ देर ठहर गई
आंखें भी भर गई
आज के दौर को सोचकर
कि कल अगर
बूढ़ा जर्जर पुत्तू
सुबह शाम बेंचता हुआ सत्तू
इधर से नही गुजरा
भगवान को हो गया प्यारा
तो फिर ये आवाज़ कभी नहीं आएगी
ये गलियां कितनी वीरान हो जाएंगी
सिसक उठेंगी हवाएं
ये फिजाएं
जिनमें वर्षो से गूंजती है,एक सुरीली सरगम
लइया है,चूड़ा है,चना है गरम गरम ।।

**जिज्ञासा सिंह**

बदला बदला सा शहर



ये धुआँ धुआँ सा आसमाँ क्यूँ है
छुप रहे लोग सब यहाँ वहाँ क्यूँ है


जिसके दीए की लौ दूर तलक जाती थी
यूँ अंधेरे में डूबा हुआ वो जहाँ क्यूँ है

सुना था यहाँ कभी रात नहीं होती है
उजाला ढूंढ़ता अपने निशाँ क्यूँ है

खौफ के साए में जी रहे जैसे सब
डरा डरा सा लग रहा हर नौजवाँ क्यूँ है

बैठकर अपनों से जो बतियाते नहीं थे थकते
आज अपनों से दूर भागता कारवाँ क्यूँ है

जिनके गुलशन की महक दूर तलक थी फैली
वो तिनके तिनके में बिखरा सा गुलिस्ताँ क्यूँ है

कोने कोने से आके पंछी वहाँ रहते थे
आज उजड़ा हुआ उनका आशियाँ क्यूँ है

कहीं तो कुछ भी गलत है जरूर हुआ
वरना खामोश सबकी यूँ ज़ुबाँ क्यूँ है

आओ ढूंढे कोई रास्ता सभी मिलके
इस तरह खुद की उलझनों से भागना क्यूँ है
                                                                     
      **जिज्ञासा सिंह**     

यादों के परिदृश्य

    

कैसे हो ?दोस्त तुम इस घड़ी । 

चलो सजाएँ यादों की लड़ी ।।


याद करें हम पास पड़ोसी,

याद करें हम नानी दादी ।  

याद करे वो पहले टीचर,

जिसने जीवन की शिक्षा दी ।।

 

याद करें माँ की कुछ बातें,

राह दिखातीं घड़ी घड़ी ।।


याद करें हम ताल तलैया,

बगिया और बगिया के झूले ।

मिल जाता जो एक रूपैया,

नहीं समाते थे हम फूले ।।


आठ आने और चार आने में,

लाते ख़ुशियाँ बड़ी बड़ी ।।


झाँक के घर में हमें बुलाता,

मित्रों का वो झुंड निराला ।

घंटों संग में धूम मचाते,

मुँह में जाता नहीं निवाला ।।


घर लौटें,जब ताऊ चाचा,

आँख दिखाते बड़ी बड़ी ।।


चूँ चूँ चाँ चाँ चिड़ियाँ करतीं,

हर आँगन उड़तीं गौरैया ।

बाबा दादा ताऊ चाचा,

संग संग रहते दीदी भैया ।।


एक दूजे का साथ निभाते,

विपदा रहती दूर खड़ी ।।


कुछ पाने को छोड़ के सब कुछ,

निकले सपने नए सजाने ।

संतुष्टि का मंत्र भूलकर,

जाने हम क्या क्या पाने ?


ये भौतिकता वादी तृष्णा,

हमको भारी बहुत पड़ी ।।


क़ुदरत से अपने को श्रेष्ठ कर,

अंतरिक्ष तक पहुँच गए हम ।

सृष्टि और प्रकृति को छल कर,

जीव जंतु सब भक्ष गए हम ।।


आज उसी का मूल्य चुकाती,

दिखती दुनिया हमें खड़ी ।।


धन दौलत और नाम कमाया,

भवन बनाया बड़ा अनोखा ।

आज उसी में दुबक गए सब,

जीवन लगता है एक धोखा ।।


सिमटी बैठी जोड़ रही हूँ,

यादों की हर एक कड़ी ।।


कैसे हो?दोस्त तुम इस घड़ी ।।


**जिज्ञासा सिंह** 

  

कृष्ण सुदामय तारि रहे ( पद )

देखो ! कृष्ण सुदामय तारि रहे
झांकत और विलोकत सखियाँ, नयनन निरखि निहारि रहे ।
लाय सुदामा ने तंदुल दीन्हों जो, कान्हा जू अंक पसारि रहे ।
मीत की प्रीति लगाय हिये, मनमोहन नेह निहारि रहे ।
देखत श्याम की मोहनि मूरति, मनहिं सुदामा विचारि रहे ।
कौन सो अइसो पुण्य कियो, घनश्याम जू राह बुहारि रहे ।
आजु सुदामय भागि जगो, जब नाथहि पांव पखारि रहे ।
देखो ! कृष्ण सुदामय तारि रहे ।।

**जिज्ञासा सिंह**

मेरी मां के अद्भुत रूप

वह गीता पढ़तीं  
रामायण पढ़तीं 
मुझे सुनातीं
समझातीं 

सुंदर प्रसंग
कृष्ण और राम के भिन्न भिन्न और अदभुत रंग
वह दुर्गा शप्तशती पढ़तीं 
मां दुर्गा को जीवन में धारण करतीं

दया क्षमा करुणा की छाया लगतीं
कटुता कलुषता में जब वो घिरतीं
दुर्गा का अवतार धरतीं 
और उठातीं 

 तीर धनुष
लगा देतीं अंकुश 
हिल नही पाता कोई सहसा
जब उनका उठता फरसा

तलवार बरछी कृपाण भी चलातीं वो
हर किसी को धाराशायी कर जातीं वो
उस के इस रूप से 
रौद्र रूप से

सहम जाते
अक्सर उन्हें ये कहता हुआ पाते
कि मां दुर्गा के नव अवतार
हमें देते हैं सारे अधिकार

सिखाते हैं अपनी सुरक्षा
दीक्षा 
देकर
कहते हैं कि ऐसे जीवन का अधिग्रहण कर

ऐ स्त्री !
तू है अनंता, तू ही धरित्री
तेरे गर्भ में संसार का हर वो सृजन है
जिससे फलता फूलता जीवन है

जग की सारी ऋतुएं तेरे कोख की देन है
तुझसे ही सृष्टि की अमरता है,जगत का कुशलक्षेम है
तू अपने को कमतर मत समझ 
कमर कस 

तुझे हराना बड़ा कठिन होगा
करना उसे बड़ा जतन होगा
जो तेरे समक्ष आएगा
एक बार सोचेगा फिर टकराएगा
क्योंकि तेरी हथेली में ही वो शक्ति है
जिससे मानव सभ्यता की अप्रतिम मुक्ति है ।।

**जिज्ञासा सिंह**

वो बहक गए

वो बहक गए 
महक गए 
किसी और के आँगन में 
मेरे उपवन में 
जरूर चुभे होंगे 
गड़े होंगे 
कैक्टस या गुलाबी काँटे 
हमने छांटे 
भी नहीं थे उन कंटीली 
नुकीली 
झाड़ियों के पर 
जो चढ़ रहीं थीं बार बार छज्जों पर 
शायद 
हद
पार कर गईं वो 
छज्जे से होते हुए आँगन तक उतर गईं वो 
तभी तो गए उलझ 
अब सुलझ 
भी जाएंगे 
तो कैसे मिटायेगें 
उन चुभे हुए कांटों के दाग 
जो कलियों के अनुराग 
की वज़ह से 
जिस्म की सतह से 
चिपक कर हैं रह रहे 
और दर्द आँसू बन कर बह रहे 
बड़ा मुश्किल है इंसानी सब्र 
जरा सा बेसब्र 
होते ही 
मान खोते ही 
रास्ते खोज लेते हैं निमित्त 
बदल जाती है परिस्थिति 
और मार्ग दिखते हैं अवरुद्ध  
विरुद्ध 
दिखते हैं वही अपने 
जिनके टूटते हैं सजे सजाए सपने 
फिर जाने क्यूं ?
 इंसान तू 
ऐसे दुर्गम मार्गों पे चलता है 
और बार बार फिसलता है
गिरकर टूटता है
अपने को ही,अपने हाथों से लूटता है.....
  
**जिज्ञासा सिंह**

अपना घर, अपनी दुनियाँ

काश गगन पर घर होता एक मेरा
मैं रहती और रहता कुनबा मेरा ।।

मेरे कुनबे में कुछ रंग बिरंगे पक्षी होते
बुलबुल गौरैया संग मोर मोरनी नचते
एक बनाती नीड़ चाँद तारों से छुपकर,
तोता मैना पपिहा करते वहीं बसेरा ।।
काश गगन .....

मै और मेरी नन्हीं चिड़ियाँ भोर में उठते
दूर गगन से धरती की आभा को तकते
कोमल मन की चिड़ियाँ भावुक सी हो जातीं,
आता याद उन्हें जब अपना रैन बसेरा ।।
काश गगन.....

मैं उनको समझाती ये जो अपना घर है
फैला हुआ अपार और विस्तृत अंबर है
इससे सुंदर नहीं कहीं कुछ प्यारी सखियों,
चंदा का ये देश और तारों का डेरा ।।
काश गगन.....

मीठे फलों की याद उन्हें भूले न भूले
पेड़ों और टहनियों के ऊपर वो झूले
भीनी भीनी महक धरा के वन उपवन की,
अंखियों में लातीं अँसुअन का रह रह फेरा ।।
काश गगन.....

समझाती मैं बहुत, बहुत दीं उनको खुशियाँ 
भूली नहीं वो घर अपना, न अपनी दुनियां
एक दिन सब ने ठान लिया जाना है उनको,
छोड़ गईं वो मुझे है सूना जीवन मेरा ।।
काश गगन.....

बैठी आसमान के ऊपर, बिल्कुल पड़ी अकेली
अपने घर को चली गईं सखियाँ अलबेली
चाँद सितारों से कितनी मैं बात करूं अब,
मुझमें रंग भरे न कोई अब तो यहां चितेरा ।।
काश गगन.....

**जिज्ञासा सिंह** 

पंचायत चुनाव में नाचे मन का मोर है


हर तरफ शोर है
मचा हुआ रोर है
कोई दुखी, कोई खुशी,
कानाफूसी जोर है

कभी इधर, कभी उधर 
डोल रही नांव भंवर
नौकाएं रंगी हुईं
चप्पू हिलकोर है

कहीं महिला, कहीं पुरुष
तौल रहे सब पौरुष
आरक्षित सीट पर
मनौवल पुरजोर है 

शंकर को गदा मिली
रामा को दो इमली
ओसाता किसान चिन्ह,
आज सिरमौर है

पुराने प्रधान की
आन बान शान की
लगी हुई वाट आज,
पीड़ा घनघोर है

पांच साल हो गया
कुछ भी न हमें मिला
घर में ही फूट मची, 
चर्चा चहुंओर है

रग्घू को घर मिला
सरजू का बल्ब जला
मुनिया को शौचालय
झगड़े का दौर है

लोग बहुत रूठे हैं
कहें, सभी झूठे है
खड़े प्रत्याशी जितने
सभी कामचोर हैं

जिसको जिताते हम
बहुत धोखा खाते हम
काम नहीं ढेला भर,
वादा कड़ोर है

अपने सब हजम करें
खाए पिए,मौज करें
खुद के लिए जीते ये
हमें कहां ठौर है 

यही तो विधान है
यही संविधान है
बड़ी बड़ी बातों का
ओर है न छोर है

काम किए या न किए
जीत की उम्मीद लिए
पंचायत चुनाव में
नाचे मन का मोर है 

**जिज्ञासा सिंह** 

मेरी बुजुर्ग पड़ोसन



 वो तिराहे पर अनभिज्ञ खड़ी हुईं

रास्ता ढूँढने के जद्दोजहद में पड़ी हुईं


कल जो खट खट की

आवाज़ के साथ चलती थीं, 

आज वो भ्रम की डोर से जकड़ी हुईं 


ज्यों ही हाथ पकड़ा उनका,

उन्हें घर पहुँचने की हड़बड़ी हुई 


मैंने देखा है उन्हें कई बार सजी सँवरी,

रंगीन साड़ी और ग़हनों से जड़ी हुईं 


गुलाबी आभा चेहरे की भूलती नहीं मुझको,

झील सी आँखें काजल से भरी हुईं 


वो क्या दौर था ये क्या दौर है,

ख़ूबसूरत मलिका बुढ़ापे से घिरी हुईं 


उम्र ने छोटी कर दी उनकी वो दुनिया, 

जो दुनिया उनकी हथेली पर बड़ी हुई


खोजती हैं मेरी आँखें शाम सहर,

दिख जायँ वो मेरे दरवाज़े पर खड़ी हुईं 


मेरी प्रिय अलमस्त पड़ोसन आज दिखीं मुझे,

वृद्धाश्रम के बिस्तर पर पड़ी हुईं 


 **जिज्ञासा सिंह**

मेरी अभिन्न सखी ( नदी )


दो पल 
अविरल 
बहती हुई कल कल
अविचल, निश्चल
नदी के तट पर मैं अकेली
अलबेली
ढूंढती हूं
सुकूं
कंकड़ फेकती हूं
चक्षुओं को फाड़कर देखती हूं
फटता हुआ नदी का गर्भ
मेरा सन्दर्भ
दिखता है मुझे
इससे पहले मुझे कुछ और सूझे
मैं फटी हुई धारा के साथ
पार समुंदर सात
बह जाती हूं
बहता हुआ पाती हूं
उभयचरों का झुण्ड
गहरे कुण्ड
से निकल निकलमेरे साथ बह चले हैं
कुछ मेरी बाहों में चिपके,कुछ मिल रहे गले हैं
इनके लिए मैं अनोखी हूं
लगता है जैसे इन्हें पहले भी कहीं देखी हूं
सोचती हूं, इन्हीं के साथ रह जाऊं 
यहीं सागर की तलहटी में एक नई दुनिया बनाऊं
घोंघों के अन्दर छुप जाऊं
नीले बैंगनी पौधों से बतियाऊं
खेलूं रंगबिरंगी मछलियों के संग
इनके रंग
अपने लगा लूं
अपना रूप छुपा लूं
छुपाए रहूं तब तक  
जब तक
ये जलसागर
मेरी गागर 
में न समा जाय, जो मैने नदी के किनारे
इसी सहारे 
से रखी 
है, कि मेरी अभिन्न सखी
मुझ जैसे मनुष्यों के अपमानों को सहती
और निरंतर बहती
कंकड़ों पत्थरों, चट्टानों,
कटानों 
को झेलती
कराहती, ढकेलती
दूषित 
प्रदूषित
मार्गो से होती हुई 
अपने को धोती हुई
स्वच्छ जल लेकर आएगी 
और मेरी गागर ऊपर तक भर जाएगी..

**जिज्ञासा सिंह**