मैं जीवन में नित नए अनुभवों से रूबरू होती हूँ,जो मेरे अंतस से सीधे साक्षात्कार करते हैं,उसी साक्षात्कार को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है मेरा ब्लॉग, जिज्ञासा की जिज्ञासा
आप लोग सुनते कहाँ हैं
जुस्तजू में उनकी
जुस्तजू में उनकी, हम आज फिर टूटे
लूट कर मुझको गए,बाद उसके रूठे
काश ग़ैरों की तरह मुझसे यूँ आके न मिलते
पास सब कुछ है, मगर लगता हैं गए लूटे
ये कायनात मुझे, सूनी नज़र आती है
ये बहारें औ बहारों के नज़ारे झूठे
अपनी लौ में बह रहा ग़मों का दरिया
बह गए अश्क, चश्म रह गए मेरे सूखे
दूर से मुझको बुलाती है वो खुशी रोकर
इस भरी दुनिया में हम रह गए जिसके भूखे
यूँ ही ढा ढा के सितम तोड़ दिया है मुझको
अब कहाँ जाएँ कोई रस्ता न मुझको सूझे
**जिज्ञासा सिंह**
खोमचे वाला
बदला बदला सा शहर
यादों के परिदृश्य
कैसे हो ?दोस्त तुम इस घड़ी ।
चलो सजाएँ यादों की लड़ी ।।
याद करें हम पास पड़ोसी,
याद करें हम नानी दादी ।
याद करे वो पहले टीचर,
जिसने जीवन की शिक्षा दी ।।
याद करें माँ की कुछ बातें,
राह दिखातीं घड़ी घड़ी ।।
याद करें हम ताल तलैया,
बगिया और बगिया के झूले ।
मिल जाता जो एक रूपैया,
नहीं समाते थे हम फूले ।।
आठ आने और चार आने में,
लाते ख़ुशियाँ बड़ी बड़ी ।।
झाँक के घर में हमें बुलाता,
मित्रों का वो झुंड निराला ।
घंटों संग में धूम मचाते,
मुँह में जाता नहीं निवाला ।।
घर लौटें,जब ताऊ चाचा,
आँख दिखाते बड़ी बड़ी ।।
चूँ चूँ चाँ चाँ चिड़ियाँ करतीं,
हर आँगन उड़तीं गौरैया ।
बाबा दादा ताऊ चाचा,
संग संग रहते दीदी भैया ।।
एक दूजे का साथ निभाते,
विपदा रहती दूर खड़ी ।।
कुछ पाने को छोड़ के सब कुछ,
निकले सपने नए सजाने ।
संतुष्टि का मंत्र भूलकर,
न जाने हम क्या क्या पाने ?
ये भौतिकता वादी तृष्णा,
हमको भारी बहुत पड़ी ।।
क़ुदरत से अपने को श्रेष्ठ कर,
अंतरिक्ष तक पहुँच गए हम ।
सृष्टि और प्रकृति को छल कर,
जीव जंतु सब भक्ष गए हम ।।
आज उसी का मूल्य चुकाती,
दिखती दुनिया हमें खड़ी ।।
धन दौलत और नाम कमाया,
भवन बनाया बड़ा अनोखा ।
आज उसी में दुबक गए सब,
जीवन लगता है एक धोखा ।।
सिमटी बैठी जोड़ रही हूँ,
यादों की हर एक कड़ी ।।
कैसे हो?दोस्त तुम इस घड़ी ।।
**जिज्ञासा सिंह**
कृष्ण सुदामय तारि रहे ( पद )
मेरी मां के अद्भुत रूप
वो बहक गए
अपना घर, अपनी दुनियाँ
पंचायत चुनाव में नाचे मन का मोर है
मेरी बुजुर्ग पड़ोसन
वो तिराहे पर अनभिज्ञ खड़ी हुईं
रास्ता ढूँढने के जद्दोजहद में पड़ी हुईं
कल जो खट खट की
आवाज़ के साथ चलती थीं,
आज वो भ्रम की डोर से जकड़ी हुईं
ज्यों ही हाथ पकड़ा उनका,
उन्हें घर पहुँचने की हड़बड़ी हुई
मैंने देखा है उन्हें कई बार सजी सँवरी,
रंगीन साड़ी और ग़हनों से जड़ी हुईं
गुलाबी आभा चेहरे की भूलती नहीं मुझको,
झील सी आँखें काजल से भरी हुईं
वो क्या दौर था ये क्या दौर है,
ख़ूबसूरत मलिका बुढ़ापे से घिरी हुईं
उम्र ने छोटी कर दी उनकी वो दुनिया,
जो दुनिया उनकी हथेली पर बड़ी हुई
खोजती हैं मेरी आँखें शाम सहर,
दिख जायँ वो मेरे दरवाज़े पर खड़ी हुईं
मेरी प्रिय अलमस्त पड़ोसन आज दिखीं मुझे,
वृद्धाश्रम के बिस्तर पर पड़ी हुईं
**जिज्ञासा सिंह**