गिरधर कब अइहैं.. गीत


 राधिके ! मधु बोलो कछु बोल

तुम्हरे बचन कान्हा बेल्मैहैं,

घूमत अइहैं डोल 

राधिके ! मधु बोलो कछु बोल 


जब से गए सुधि बिसरि गए हैं

हम उनके बिनु बाँझि भए हैं

ढरक-ढरक दोहज बहे हिय से

अधर खुश्कअनबोल 

राधिके ! मधु बोलो कछु बोल 


चरत धेनुजमुना बिच कूदीं

ग्वालिन नयन परी हैं मूँदीं

गिरि आतुरगिरधर कब अइहैं

अंगुलि घुमइहैं गोल  

राधिके ! मधु बोलो कछु बोल 


अइसे जगत नाहिं कोई छोड़े

 प्रिय-प्रेमी संग नाता तोड़े

चलत घरी बूझा नहिं मनवा

पियत अरंडी घोल 

राधिके ! मधु बोलो कछु बोल 


**जिज्ञासा सिंह**

फुलझड़ी पटाखे बैन.. नवगीत

 

फुलझड़ी पटाखे बैन,

भला वे अब क्या ढूँढेंगे ?

दीवाली की भोर में ले,

जो ठेलिया घूमेंगे 


बीते बरस  गए ले

मुन्ना-मुन्नी का रेला 

जलती फुलझड़ियों में

आधी रात चढ़ाए ठेला 

प्लास्टिक के खोखे से

खुशपिचकारी खेलेंगे 


सुतली बम की सुतली पर

कपड़ों में धूप लगेगी 

टूटेगीफिर-फिर टूटेगी

दस-दस गाँठ जुड़ेगी 

गिरते धूल-धूसरित कपड़े

बारम्बार धुलेंगे 


खोखों का ढक्कन पीतल 

काबाँछें खिली हुईं 

मुन्नी की अम्मा ले लेगी

छोटी-बड़ी सुई 

बखिया कर घर-नात, कोठारी,

गुदड़ी फटी सिलेंगे 


**जिज्ञासा सिंह**

बालगीत.. बाबा-दादी की यादें

 

(१)शीतल ठंडी छाँव नीम की

***********************

पलंग डालकर लेटे बाबा

शीतल ठंडी छाँव नीम की ।


गाल फुलाते , हिलती तोंद

ज़ोर-ज़ोर साँसें लेते वो

डरकर हम सारे भग जाते

सुनकर खर्राटे की खों-खों

रहते हृष्ट पुष्ट वो हरदम

नहीं जरूरत है हकीम की ॥


वे डॉक्टर के गए नहीं

नहीं बुलाए वैद्य कभी

हट्टे कट्टे पहलवान से

बाबा मेरे लगें अभी

हिम्मत  आने की सम्मुख

दुर्योधन  भीम की ॥


कभी कभी लेटूं मैं

उनके पास बगल में जाके

वीरों की वे कथा कहानी

गीत सुनाते गा के

हर मजहब का मान बताते

पूजा राम रहीम की ॥


पलंग डालकर लेटे बाबा

शीतल ठंडी छाँव नीम की ॥


(२) दादी माँ का पंखा 

******************


 दादी माँ का हाथों वाला 

पंखा न बिसराया जाय।


मेरी दादी माँ का पंखा 

बिन बिजली के चलता है

इधर घूमता, उधर घूमता

नींद का झोंका लाता है

कभी कभी तो एक दिशा

में सर-सर-सर-सर चलता जाय ॥


मुझको जैसे निंदिया आई

बिजली रानी चली गई 

गर्मी बढ़ी, पसीना निकला 

भाग के दादी पास गई

दादी ने ज्यों हाथ डुलाया

मस्त हवा का झोंका आय ॥


गर्मी की छुट्टी में दादी

कभी अकेले न सोतीं

मैं सोऊं, भैया सोए

बब्बू, मुनियाँ संग होतीं

हँसी-ठहाके लगते खूब

ऐसी बातें हम बतियायँ ॥


एक दूजे पर चढ़े जा रहे

दादी की है सुनता कौन

शोर-शराबे से थक करके

दादी हो जाती फिर मौन

दादी मेरी दुनिया भर की

सुंदर-सुंदर कथा सुनाय ॥


मेरे बालों में दादी की

उंगली खोजे जाने क्या-क्या

ऐसे सहलातीं वो सिर को

खूब लगाऊँ स्वर्ग में गोता

याद करूँ बचपन के दिन जो

आँख में आँसू भर-भर जाय ॥


मैं दादी, दादी बस मेरी

दिन भर घूमूँ उनके साथ

सबके हाल पूछतीं दादी

सब उनकी पूछे कुशलात

गाँव-मुहल्ले की नेता वो

मैं भी बड़ी नेतानी भाय ॥


दादी जबसे चली गईं है

छूट गया वो गाँव मेरा

न गर्मी है न सर्दी है, 

संसाधन का बड़ा बसेरा

पर वो पंखा, दादी वाला

मुझसे न बिसराया जाय ॥


**जिज्ञासा सिंह**

शशि धवल निहारे अम्बर में


शील सुशील मनोहर छवि
संग आजु चली सुकुमारि कली ।
उर प्रेम बसे, रहि रहि हुलसे,
मन मीत पिया की पियारि गली ।।

सुर ताल सजे संगीत बजे
रग रग हरसे मन गुंजन में
बिजुरी चमके अमरित बरसे
निशिगंध सरोरुह कुंजन में ।।

सजती गलियाँ, सजते द्वारा
फूलन की बंदनवार चली 
डोली पहुँची प्रिय मन आँगन
पग पायल झन झनकार चली।।

है नेह संजोये भर अँजुरी
शशि धवल निहारे अम्बर में
सौभाग्य अटल अनुराग गुँथे
हित प्रेम सजाए निज उर में

रविकिरन सजा निज माँग भरी
कजरा चुड़ियाँ गोदनार चली
भर कलश मयंक के द्वार खड़ी
अविरल बह गंग की धार चली ॥

**जिज्ञासा सिंह**

चाँद.. वर्ण पिरामिड

हाँ 
नीला
अंबर
तारा गृह
शोभायमान
सजा चंद्रयान
ज्योति प्रदीप्यमान ।।
**
ये
नभ
जड़ित
सुसज्जित
मन मोहित
नक्षत्र नायाब
चमके महताब ।।
**
जी 
चौथ
करवा
कृष्ण पक्ष
अंबर मध्य
तारिका सानिध्य
चंद्रदेव आराध्य ।।
**
दे
प्रभा
चंद्रमा
अलंकृत 
नभ शोभित
नित्य निशा काल
उपग्रह विशाल ।।

**जिज्ञासा सिंह**

गाँधी जी का नजराना..गीत

 


चलो दोस्त गाँधी को बाँटें,

बाँट-तराज़ू तुम ले आना ।

एक तरफ़ गाँधी को रखना

एक तरफ़ उनका नजराना 


नजराने में राष्ट्रपिता की महिमा तोलें ?

दीवारों के कान ज़रा कुछ धीरे बोलें 

बड़े हो गए छेद, है दाँव लगाए बैठे,

कच्चा-चिट्ठा,धीरे-धीरे रह-रह खोलें 

तोलेंगे ज़रूर चाहे जितना हल्ला हो,

चाहे जितना पड़े चीखना  चिल्लाना 


सुनो घड़ी नजराने वाली महँगी होगी,

पल-पल का हिसाब लेगी  देगी 

अब वो घड़ी समय थोड़ी  बतलाएगी,

हर चालों पर ठहरी एकटक नज़र रखेगी 

भाग लुकाएँगे हम पहन के उनकी पनही,

लाठी लेके तुम मेरे पीछे  जाना 


कहे तराज़ू लाओ उनका चश्मा तोलें,

लेंस लगा है या शीशे का,पर्तें खोलें 

देख रहा सब वो भी होगा पर चुपके से,

निष्कर्षों के घालमेल में मिर्ची घोलें 

चरखा भी आज़ादी के मतवालों में था

ये बातें दीवारों से भी न कह जाना 


**जिज्ञासा सिंह**