थे गए विश्वास लेके,
लौट आए सब लुटा के ।
क्या मिला परदेस जाके ?
डिग्रियां आधी अधूरी
फीस देनी पड़ी पूरी,
कौन कहता उस जहाँ में
है हमें पढ़ना जरूरी,
सोच थी सपने सजाना
लौट आए जी बचा के ॥
इस चमन में क्या कमी
जो भागते चमनों चमन,
है यही धरती, यही अंबर
यही बहती पवन,
फिर भला क्यों बिहँस पड़ते
डिग्रियाँ उनकी सजा के ॥
जान पे भी बन गई
आन की भी ठन गई,
धागा धागा खुल गया
ऐसी चादर तन गई,
है नहीं दर्जी, न धागा
जो लगाए उसमें टाँके ॥
क्या मिला परदेस जाके ।।
**जिज्ञासा सिंह**