क्या मिला परदेस जाके ?


थे गए विश्वास लेके,
लौट आए सब लुटा के ।
क्या मिला परदेस जाके ?

डिग्रियां आधी अधूरी
फीस देनी पड़ी पूरी,
कौन कहता उस जहाँ में
है हमें पढ़ना जरूरी,
सोच थी सपने सजाना
लौट आए जी बचा के ॥

इस चमन में क्या कमी
जो भागते चमनों चमन,
है यही धरती, यही अंबर
यही बहती पवन,
फिर भला क्यों बिहँस पड़ते
डिग्रियाँ उनकी सजा के ॥

जान पे भी बन गई
आन की भी ठन गई,
धागा धागा खुल गया
ऐसी चादर तन गई,
है नहीं दर्जी, न धागा
जो लगाए उसमें टाँके ॥

क्या मिला परदेस जाके ।।

**जिज्ञासा सिंह**

निर्मल पानी खारा क्यूँ है ?(विश्व जल दिवस)


निर्मल पानी खारा क्यूँ है ?

अपनी दरिया अपने सागर
अपनी ताल तलैया गागर
कुआँ इनारा सब अपने हैं,
जल दूषित फिर कारा क्यूँ है ?

विज्ञापन की बाढ़ बह रही
चलो बचाएँ जल की बूँद
देख लिया और समझ लिया
आह ! भरी, ली आँखें मूँद
क्या कारण है ? पता सभी को
ठिठक बहे जलधारा क्यूँ है ?
निर्मल पानी खारा क्यूँ है ?

उद्योगों की पौध लगाई
खड़े सभा में बनके शिष्ट
हरित क्रांति का नाम दिया
उगा दिया जंगल अपशिष्ट
बूँद बूँद है हमें बचाना
हम पे लागू नारा क्यूँ है ?
निर्मल पानी खारा क्यूँ है ?

जल मेरा, जंगल भी मेरा
इसे बचाना मेरी मर्ज़ी
ऊपर से नीचे तक चलती
संसाधन पर है खुदगर्जी
ऐसी मूक व्यवस्था से हर
नन्हा पंछी हारा क्यूँ है ?
निर्मल पानी खारा क्यूँ है ?

**जिज्ञासा सिंह**

गौरैया का पलायन

 

गौरैया दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ🌻🐥
गौरैया को समर्पित गीत🐥🌴
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अब उससे हो कैसे परिचय ?
दो पंखों से उड़ने वाली,
दो दानों पे जीने वाली,
जीवन पर फिर क्यूँ संशय ॥

तीर निशाने पर साधे
बड़े शिकारी देखें एकटक,
घात लगाए बैठे हैं
घर अम्बर बाग़ानों तक,
संरक्षण देने वालों ने
डाल दिया आँखों में भय ॥

कंकरीट के जाल 
परों को नोच रहे हैं,
जंगल सीमित हुए
सरोवर सूख रहे हैं,
हुआ तंत्र जब मौन
सुनेगा कौन विनय ॥

ये नन्ही गौरैया चिड़ियां
मिट्टी मानव छोड़,
दूर कहीं हैं चली जा रहीं
जग से नाता तोड़,
वहाँ जहाँ पर पंख खुलें
फुर्र फुर्र उड़ना निर्भय ॥

**जिज्ञासा सिंह**

जोगीरा सरारारा..मुहल्ले की होली



जोगीरा सरारारा जोगीरा सरारारा..

कोई घोरे रंग हरेरा,कोई लिए गुलाल
भंगिया वाली पी ठंढाई, हो गईं आंखें लाल
जोगीरा सरारारा...........

बालकनी में खड़े पड़ोसी देखि देखि मुस्काय
छत से मारी भर पिचकारी सराबोर होय जायं
जोगीरा सरारारा.......

मेरी पड़ोसन फुलवा तोरैं,माली से बतियायँ
देख पड़ोसी, नैनमटक्का, ज़ोर ज़ोर चिल्लायं
जोगीरा सरारारा.........

साजन जी की मित्रमंडली, लेले गुझिया खाय
देखि के सासू आँख तरेरें, बहुत ज़ोर खिसियायं
जोगीरा सरारारा..........

साजन सज के खड़े हो गए, जैसे अफलातून
पान का बीरा उन्हें खिलाया भर भर डारा चून
जोगीरा सरारारा.........

**जिज्ञासा सिंह**

फागुनी आई मेरे द्वारे


दुल्हन जैसी सजी
फागुनी आई मेरे द्वारे
पहन बसंती चुनर, 
माँग में टेसू रंग सजा रे ।।

क्षण क्षण मे वह रूप बदलती
कजरारी रतनारी
बदली जैसे केश उड़ाती
आज समीरा हारी
झाँझर की धुन सुन
धरती ने अपने अंक पसारे ।।

बौराया है बाग देख कर
मनुहारी ये छवियाँ 
चटक चिहुक कर खिल खिल जाएँ 
ले अंगड़ाई कलियाँ 
भौंरा गाए गीत मधुर धुन
कुंजन वन विहँसा रे ।।

उड़े गुलाल अबीर अंगन 
चौबारा रंग नहाए
बालवृंद पिचकारी ले
हैं गलियन धूम मचाए
साजन हैं परदेस 
सजनियाँ ड्योढी बैठ निहारे ।।

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल 

भैंसें कब सुनती हैं बीन

चौराहे पे करें जुगाली
बन के सत्तासीन । 
चाहे जितना ज़ोर बजाओ
भैंसें कब सुनती हैं बीन ॥

चरवाहा मदमस्त घूमता
पूँछ पकड़ता माथ चूमता
गहरी नदिया में नहलाता
बैठ पीठ चहुँओर ढूँढता
हरी घास का नर्म मुलायम
विस्तृत एक कालीन ।।

पगुराना वो सीख गईं
दूध की नदियाँ सूख गईं
लिए कमंडल खड़े हुए हम
लेरुआ की मिट भूख गई
थैला बोतल बिके धकाधक
पड़रू दूध विहीन ।।

धरी खोखली हाँडी है
गोरखधंधा चाँदी है
हड्डी सत रोटी चुपड़ी
लक्ष्मण रेखा फाँदी है 
मावा मिश्री घोट मिलाया 
पर्व हुआ रंगीन ।।

भैंसें कब सुनती हैं बीन ।।

**जिज्ञासा सिंह**

कुलबधू

घर, द्वार, कुआँ, निमिया, गइयाँ
बाबा-बापू सब रे निहारि ।
जब गागर थामे चली नारि ।।

है क्या पहने कुलबधू आज
चुड़ियाँ, चप्पल घिस गई हैं क्या
लल्ला की अम्मा कहाँ गईं
मनिहार बुलाएँ या दें ला
ऐसे कुल के ध्वजवाहक को
स्त्री लेती नैनन उतारि ।।

भोजन की थाल देखते ही
मस्तक पहुँची तनकर भृकुटी
वो एक निवाला अटक गया
जब नहीं मिली चुपड़ी रोटी
क्या खाएगी ? पर घर बेटी
हम खा न पाए कौर चारि ।।

खाना कपड़ा हर रहन सहन
इस घर से उस तक ध्यान रहे
बिन देखे बिन बतियाए ही
हर भाव का ही सम्मान रहे
जब घर, स्त्री का मान करे
लेती स्त्री कुल स्वयं धारि ।।

जब गागर थामे चली नारि ।।

**जिज्ञासा सिंह**

दूर है बाज़ार ( महिला दिवस)


है बड़ा सेमिनार ।
सुरक्षा, स्वावलंबन 
सशक्तिकरण वा अधिकार ।।

विमर्शों का बड़ा जमघट
तालियों की गड़गड़ाहट
चल रही है कहीं कोने
दूर मन में एक आहट
चार मुख और आठ आंखें
प्रश्न को तैयार ।।

पीढ़ियों का संविधान
उनकी विधि उनका विधान
कितनी दूरी मापनी है
है लगा पग पग निशान
कहने को तो चल पड़े हैं
दूर है बाजार ।।

है बड़ा सेमिनार ।
सुरक्षा, स्वालंबन 
सशक्तिकरण वा अधिकार ।।

महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ💐💐

**जिज्ञासा सिंह**

अलाव पर राजनीति



है चौपाल गरम ।

चाय की भट्ठी दिगी हुई
चूना खैनी ठुंकी हुई
कंडा लकड़ी थुनिया थम्मर
बेड़रा बापू हम ।

अहा सजी चौपाल
नीति के लंबरदार
ठोंक ठोंक कर ताल
कहें ओ बरखुरदार
पासा रक्खो पास
रहो चुप अभी नरम ।।

गिरगिट वाला रंग
बहो फगुआ की तान
अंधे, बहरे, लूले, लंगड़े
बन लो सिद्ध सुजान
दिखे बड़ा आदर्श
ओढ़ लो दीन धरम ।।

उजली है हर रात
दिनों की बात न पूछो
हैं दरबारी सजे
तिलोरी फेरी मूँछों
साम दाम औ दंड
भेद कर सारे तिकड़म ।।

**जिज्ञासा सिंह**

रिश्तों की बुनियाद


हर मोड़ पे चाहने वालों ने
रिश्तों के तार तराशे हैं
पर कौन निभाएगा इनको
रिश्ते जब बने तमाशे हैं ।।

रिश्तों की नव बुनियादों को
मूल्यों से ही वंचित रक्खा
रिश्तों ने हमको छोड़ जहाँ का 
स्वाद अधिक चाहा चक्खा
हम लगते उनको मरूभूमि
वो हरियाली के प्यासे हैं ।।

जो खुद का वतन हमारा है
हम खुद ही उससे रहे भगे
अपने ही लोगों से हमको
वाक़िफ होना ही गुनाह लगे
ऐसे में उनकी क्या गलती
हमने ही फेंके पासे हैं ।।

रंगीनी औ रंगिनियत का
है खूब तमाशा यहाँ वहाँ
हर ओर मुकम्मिल रिश्तों का
बिखरा दिखता अनमोल जहाँ 
अपना जो बनाना चाहो तो
मिलते ही हमेशा झाँसे हैं ।।

रक्खूँ, या बिखेरुँ तोड़ तोड़
ये हर एक मन की पैदाइश
वो मेरे बने या दूर रहें
करनी ही नहीं जब अजमाइश
इकतरफा चलकर रिश्तों में
मिलते ही सदा कुहासे हैं ।।

**जिज्ञासा सिंह**