दाँत से पकड़ा जो आँचल
दाँत से पकड़ा जो आँचल
कह रहा है ढील दे दो,
आज छूना चाहता है
समय के विस्तार को।
पंख पहले से उगे हैं
है परों में जान अब भी,
माँगता है वह अकिंचन
स्वयं के अधिकार को॥
देखना उसकी किनारी,
खिल रहे हैं फूल अब भी।
खूब कलियाँ आ रही हैं
ला रही हैं नवल सुरभी।
बस उन्हें नित सींचना है
और सहलाना विनय से,
हो सुगन्धित कर सकेंगे,
भूमि के उद्धार को॥
याद कर लो धूप में वे
छा गए थे छाँव बनकर।
घेरकर चारों तरफ़ से
एक सुंदर गाँव का घर।
गाँव में वो घर औ घर में
माँ से लिपटे थे हुए,
बस उन्हीं कोमल मनोभावों
को सुंदर प्यार को॥
माँगता है आज जो वह
माँगना पहले उसे था।
पर समय का मूल्य देकर
आसमाँ न चाहिए था।
देके अपनी आरज़ुएँ
समय को उसने जिया जो
अब चुकाने आ गया वह
समय हर उपकार को॥
जिज्ञासा सिंह
लखनऊ