चाय की वो चुस्कियाँ

 

चाय की वो चुस्कियाँ


वो खड़े थे मैं खड़ी थी,

आँख धरती पर गड़ी थी।

भाव अधरों पर थिरककर,

काढ़ते थे मुस्कियाँ।

याद अब भी आ ही जातीं

चाय की वो चुस्कियाँ॥


हैं गुलाबी गाल मेरे,

कनखियों के वे चितेरे।

चुस्कियों में यूँ घिरे ज्यों,

घिर गए बादल घनेरे॥

चाय में रस बदलियों का

गिर रही थीं बिजलियाँ॥


बीतते जाते रहे पल,

चाय छलकी जा रही छल।

उस छलक का इस छलक में,

बह चला था ताप अविरल॥

जलती एल्युमिनियम पतीली,

साथ चिपकीं पत्तियाँ॥


हाथ हाथों में सिमटकर,

कदम कदमों संग चलकर।

चाय के ठेले से हटके,

हम खड़े थे अग्निपथ पर।

चाय की वो चुस्कियाँ,

अब बन चुकी थीं सुर्ख़ियाँ॥


जिज्ञासा सिंह

लाडली दुल्हन बनी है

लाडली दुल्हन बनी है।


माँग में झूमर लटकता,

माथ पे बेंदा दमकता।

नाक नथिया हँस रही है,

कान पे कुंडल बहकता।

कह रहा है फुसफुसाके,

हाय दिल पे आ ठनी है॥

लाडली दुल्हन बनी है॥


झूम के वो जब चलेगी,

मुग्ध ये सृष्टि तकेगी।

तारिकाएँ चाँदनी संग,

नाचती पीछे रहेंगी।

मेह ने बूँदों से अपने,

सरगमी धुन नव बुनी है॥

लाडली दुल्हन बनी है॥


क्या अनोखा दृश्य ये है,

मन मेरा बस में नहीं है।

जो अभी कोपल उगी थी,

अब कली बन सज रही है।

दो कुलों के द्वार नव,

कुसुमों की खिलती नव लड़ी है॥

लाडली दुल्हन बनी है॥


जिज्ञासा सिंह

कामवाली.. श्रमिक दिवस

 

चल सखी उस घर 

तुझे रोज़ी दिला दूँ।

मालकिन अच्छी बड़ी 

तुझको मिला दूँ॥


निकल जाए काम बस

एक ही मिनट में हाथ से

मालकिन से मत बताना

हम हैं किस कुल जात से

बस इन्हीं बातों में उसकी 

सास थोड़ी है ख़खेड़ी

चल सखी ये जाति-मज़हब

पर उसे गच्चा खिला दूँ॥


मालकिन है ठसक वाली

चढ़ के बतलाने लगेगी

दो मिनट में हाव सारा 

भाव भी तेरा पढ़ेगी

देखना चढ़ना नहीं हत्थे पे

उसके है हमें

चल सखी अब मोल करना

तोल पर तुझको सिखा दूँ॥


अब ज़माना लद रहा है

नित एजंसी खुल रही है

नाक के बल पीके पानी

सबको आया मिल रही है

है नहीं विश्वास तो 

बहुखंडियों का हाल देखो

चल सखी क़ीमत लगा

कर आज उनकी जड़ हिला दूँ॥


**जिज्ञासा सिंह**

मन का दीप जलाए रखना

 

चारों तरफ़ घना अँधियारा

मन का दीप जलाए रखना।


अँधियारे में एक परछाईं

साथ तुम्हारा पकड़े होगी।

उँगली में उँगली हाथों में

हाथ गहे कस जकड़े होगी॥

रूप बदलकर तरह तरह

से साथ चलेगी वो पल-पल,

परछाईं के पदचिह्नों पर

अपनी नज़र गड़ाए रखना॥


वो परछाईं नहीं तुम्हारी

जिसकी है वो देख रहा है।

जाना तुम्हें किधर किस रास्ते

अपना दर्पण फेंक रहा है॥

उस दर्पण में मार्ग हज़ारों

देखो पहचानों तुम अपना,

चल पड़ना जो सुगम लगे

बस दिशा एक चमकाए रखना॥


जिल्दसाज़ की भरी पंजिका

हर पन्ने पर नाम तुम्हारा।

जो भी हिस्से में मिलना है

है हिसाब सब वारा न्यारा॥

घबराहट क्या अकुलाहट क्या

क्या-क्या प्रश्न उठें मन भीतर,

स्याही से चित्रित चिन्हों में

अपनी छवि बचाए रखना॥


**जिज्ञासा सिंह**

तुमको लिख पाती साजन

 

तुमको लिख पाती साजन 

तो रचि-रचि लिख जाती।

बिन मसि बिन लेखनी एक 

मैं अद्भुत ग्रन्थ सजाती॥


साँझ ढले बैठती तीर मैं,

निज मन के अँघड़।

श्वाँसों की सौ आँख बचाकर,

तुमको लेती पढ़॥

रंग-बिरंगे डोरों पर लिख,

तिरते भाव सजाती॥


भोर भए तुम दूर क्षितिज पे

चढ़कर आते भूप।

लहरों के दर्पण में सजता

सुंदर-नवल स्वरूप॥

मैं बहती धारा में उतरी,

और उतर जाती॥


जब भी दिखता बिम्ब तुम्हारा,

मनका बन जाता।

धागा बनकर हृदय पिरोती,

जीवन मुस्काता॥

मन का मनका जपता तुमको,

मैं तो तर जाती॥


**जिज्ञासा सिंह**

करें नववर्ष का स्वागत (गीत)


करें नव वर्ष का स्वागत, तहेदिल से सभी मिलके।

ये सृष्टि हंस रही है आज,अभिनंदन में खिलखिल के।


सजी है भोर सिंदूरी अवनि से दूर अंबर तक,

पहन कर किरण पैजनियाँ उतरती आज हो रुनझुन।

झुकी हैं बाग में डाली भरी गदराई कलियों से,

झरें मकरंद, भौरों की सुखद आमद करे गुनगुन॥


फलेंगे और फूलेंगे, कुसुम बन भाव हर दिल के।

करें नव वर्ष का स्वागत, तहेदिल से सभी मिल के॥


हवा में तैरते पंछी खेत में झूमती फसलें,

कि हर घर में नई सौगात ये नव वर्ष लाया है।

किसी के घर गुड़ी पड़वा, कहीं नवरात्रि का गरबा,

मगन हो झूमकर धरती ने मधुमय गीत गाया है॥


सितारों की मधुर रुनझुन, चाँदनी दे गई चल के।

करें नव वर्ष का स्वागत, तहेदिल से सभी मिल के॥


वो गुलमोहर मेरे द्वारे पे खिलकर हँस रहा ऐसे,

कि झरने की मधुर सरगम कहीं नव गीत गाती हैं।

सजी ड्योढ़ी पे रंगोली औ बंदनवार पल्लव के,

प्रकृति दुल्हन के जैसे शर्म से घूँघट उठाती है॥


है नव उल्लास का मौसम, ख़ुशी के भाव हैं छलके।

करें नव वर्ष का स्वागत, तहेदिल से सभी मिल के॥


**जिज्ञासा सिंह**

गौरैया दिवस पर दो बालगीत

 


(१) जंगल बिन मंगल न होगा

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आसमान में उड़ने वाले

मेरे पंख नहीं हैं।

हिलते-डुलते चूजे ने

निज मन की बात कही है॥


कोमल-कोमल देंह हमारी

लुढ़क रहा हूँ इधर उधर।

कितनी भी कोशिश कर लूँ

मैं उठ न पाऊँ गिरकर॥

अम्मा मेरी दाना लाने

जानें कहाँ गयी है॥


रात-रात भाई बहनों की

धक्कामुक्की होती।

मेरी सबसे छोटी बहना

दबकर नीचे रोती॥

छोटा नीड़ भरी गर्मी 

बस दुख की बात यही है॥


पानी पेड़ सभी कुछ ग़ायब

छत पर माँ है रहती।

सर्दी-गर्मी वर्षा में

मौसम की मार है सहती॥

जंगल बिन मंगल न होगा

बिलकुल बात सही है॥


(२)कोयल कूक रही

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सुबह सवेरे बोल रही है

कोयल मधुरिम बोल।

दादी कहतीं भोर हो गई

जल्दी आँखें खोल ॥


अरी बावरी तेरी सखियाँ

सब गानें सुन लेंगीं।

कोयल के मीठी तानों से

सुंदर धुन रच लेंगीं॥

फिर गाएँगी गीत सुहाने

कानों में रस घोल ॥


दूर कहीं पेड़ों से झाँके

बैठी एक गिलहरी।

फ़र जैसी मख़मल सी काया

ओढ़े ओस सुनहरी॥

कोयल के गानों पे नाचे

घूम-घूम कर गोल ॥


मगन हो चली पवन बहे

झूमें डाली-डाली। 

इंद्रधनुष छाया अम्बर

धरती पर ख़ुशहाली॥

मनहर सुंदर छवि प्रभात की

मन जाता है डोल ॥


**जिज्ञासा सिंह**