दाँत से पकड़ा जो आँचल.. गीत


दाँत से पकड़ा जो आँचल


दाँत से पकड़ा जो आँचल 

कह रहा है ढील दे दो,

आज छूना चाहता है

समय के विस्तार को।


पंख पहले से उगे हैं 

है परों में जान अब भी,

माँगता है वह अकिंचन

स्वयं के अधिकार को॥


देखना उसकी किनारी,

खिल रहे हैं फूल अब भी।

खूब कलियाँ आ रही हैं 

ला रही हैं नवल सुरभी।

बस उन्हें नित सींचना है

और सहलाना विनय से,

हो सुगन्धित कर सकेंगे,

भूमि के उद्धार को॥


याद कर लो धूप में वे 

छा गए थे छाँव बनकर।

घेरकर चारों तरफ़ से

एक सुंदर गाँव का घर।

गाँव में वो घर औ घर में

माँ से लिपटे थे हुए,

बस उन्हीं कोमल मनोभावों

को सुंदर प्यार को॥


माँगता है आज जो वह

माँगना पहले उसे था।

पर समय का मूल्य देकर

आसमाँ न चाहिए था।

देके अपनी आरज़ुएँ 

समय को उसने जिया जो

अब चुकाने आ गया वह

समय हर उपकार को॥


जिज्ञासा सिंह

लखनऊ

मन में अनुराग भरे.. गीत



मन में अनुराग भरे

साजन के द्वार चली,

पलकों की छाँवों में

स्वप्नों का मेला है।


कलश भरे ड्योढ़ी पे जलते हैं दीप नये,

गाती रंगोली है थाल लिए स्वागत को।

तोरण की लड़ियाँ हैं लचक-लचक नाच रहीं,

मैहर की थाप सजग जोह रही आगत को॥

कोहबर में जानें को, 

महवर है पाँव रची, 

रहबर का रेला है॥


झीनी चूनरिया ओढ़निया के ओट छुपी,

नेहों की फुलवारी खिली सजी धागन में।

झाँक-झाँक ताक राह अंतरतम उत्सुक हो,

ठिठक-ठिठक पाँव चलें प्रियतम के आँगन में।

किरणों की सज्जा है

बिखरी है चन्द्रप्रभा,

मिलने की बेला है॥


इंद्रधनुष संग स्वयं लाया है अंबर ये,

रैना जो कारी थी रंग आज जाएगी। 

अद्भुत संयोग सतत जीवन संयोग बने,

मधुमय सुगन्ध लिए धरती इतराएगी। 

जीवन के उत्सव की

आई ये मधुयामिनी,

क्षण ये अलबेला है॥


जिज्ञासा सिंह

बूँद का अभिशाप मत लो.. गीत

 

बूँद का अभिशाप मत लो


सृष्टि का संहार निश्चित,

है नहीं संदेह किंचित्।

मनुजता सोई पड़ी मृत,

अश्रु का संताप मत लो॥


पृथ्वी छल छल जरी है,

उर्वरा मुँह बल परी है।

कोख में शस्या मरी है,

शोक का प्रालाप मत लो॥


आँगने का दीप रोया,

चार दिन से मुँह न धोया।

आँख में कीचड़ सजोया,

चुप्पियों का ताप मत लो॥


सुन सको तो ये सुनो न,

जो लिखा है वो पढ़ो न।

या कहा उसको बुनो न,

बिन कहे का चाप मत लो॥


जिज्ञासा सिंह

धागे का अनुपम सूत ये

 


एक धागा लाल पीला

जब से राखी बन गया।

हाँ मेरे भैया के हाथों में

तभी से बँध गया॥


नेह में मोती पिरोकर

दीप में किरणें प्रभा की।

आरती वंदन करूँ मैं

नेह की थाली सजा ली॥

प्रेम के उपहार से मेरा

हृदय ही भर गया॥


भाई है विश्वास का 

आशा का विस्तृत आसमाँ॥

ज़िन्दगी की विषमता, 

ख़ुशियों का मेरे वो जहाँ॥

दे समय पर साथ वो हर 

दर्द दुख कम कर गया॥


मूल्य को लेकर चले

धागे का अनुपम सूत ये।

वक्त पर संबल बने

बहनों का रक्षा दूत ये॥

सूत का सम्बन्ध रिश्तों में

मिठाई भर गया॥


जिज्ञासा सिंह

चाँद पर तुम भी चलो हम भी चलें

 


चाँद पर तुम भी चलो हम भी चलें, 

देखते हैं कौन पहले पहुँचता है।

एक पत्थर तुम उछालो एक हम, 

चाँद के उस पार किसका निकलता है॥


था अगर मामा तो चंदा था हमारा,

विश्व की टूटी हैं अब खामोशियाँ।

पहुँचने को थे सभी तैयार बैठे,

हम पहुँच कर बन गए हैं सुर्ख़ियाँ॥

आत्मसंयम साधना बुद्धि व शक्ति,

पहुँचने का का मंत्र धीरज सजगता है।


चाँद पर इतिहास रच वैज्ञानिकों ने,

कर लिया अधिकार अपना सर्वसम्मत।

बढ़ गई है ज्योति दृग सबके खुले,

देख हिंदुस्तान का चैतन्य अभिमत॥

यान तो जाते रहे जाते रहेंगे,

आज सिक्का पर हमारा चमकता है॥


ये कोई सामान्य सा न कारनामा,

है सहजता से मिली न विजयश्री ये।

हम नमन करते हैं उन विज्ञानियों को,

जिनके अनथक परिश्रम से है मिली ये॥

राष्ट्र को ऊपर रखा परिवार से,

त्याग-तप से मिली अनुपम सफलता है॥

जिज्ञासा सिंह

मेह मल्हार.. अनुप्रास अलंकार में पावस गीत का प्रयास

  

मुदित मन मोहित मेह मल्हार 


घनन-घनन घनघोर घटा घन

घनन घनन घन घन घन 

छनन छनन छन छम्मक-छम्मक

छमक छमक छम छन छन 

झूम-झूम झंकार झनक झन

झमक झमक झम झमझम

चमक चमक चमकार चमक चम 

चपला चमचम चमचम


बूँद-बूँद बरसे बुंदियाँ

बड़बोली बहत बयार।

मुदित मन मोहित मेह मल्हार॥


कोकिल कुहुक कूजती कानन

किसलय कोपल कुसुमित कुञ्जन

साँझ सुशोभित सज्जित सुंदर 

स्वर संगीत सुमृदुल सुहावन

अंबुद अमिय अनंदित अतुलित

अभिसिंचित अभिनंदन 


नाचत नीलकंठ नभ निरखत 

नेबुला नैन निहार।

मुदित मन मोहित मेह मल्हार॥


डमरू डमडम डमक डमक डम

डमडम डमडम डमडम

शिवशंकर शम्भू शुभंकर

शतरुद्रिय शिवोहम

मणिमुक्तक मंजरी मुकुट

महिमामंडित मधु मावस

पल्लव पुष्प पयोधि पयस

प्रिय पावन प्रमुदित पावस


आशुतोष आनंद आप्लावित

आदिदेव आधार।

मुदित मन मोहित मेह मल्हार॥


जिज्ञासा सिंह

चौपाई छंद में बाल रचना- अभिलाषा

 


बड़े धूम से बरखा आई। 

देख धरा हरसी मुस्काई॥

महक उठी वो सोंघी-सोंधी।

मन में एक अभिलाषा कौंधी॥


माँ के पास दौड़ कर भागी।

उनसे एक इजाज़त माँगी॥

क्यों न उपवन एक लगाएँ।

फूल खिलें चिड़ियाँ भी आएँ॥


माँ सुन फूली नहीं समाई।

उसने खुरपी एक मंगाई॥

खुरपी से क्यारी एक खोदी॥

क्यारी में बीजों को बोदी॥


बूँद गिरी औ बीज हँस पड़े।

देख रहे थे हम वहीं खड़े॥

हँसी बीज की जब रंग लाई।

क्यारी हरियाई लहराई॥


कुछ बीजों से फूल उगे हैं॥

कुछ बीजों के पेड़ लगे हैं॥

बीता दिन और बीती रातें।

फूल देखकर हम हर्षाते॥


पेड़ों की शाखा लहराईं।

अपने संग फलों को लाईं॥

खट्टे-मीठे फल खाते हैं।

झूम-झूमकर इठलाते हैं॥

जिज्ञासा सिंह