सूखती नदी (नदी दिवस )

उस नदी की चाह में मैं रेत पर चलती रही ।
जो कभी माँ के जमाने में यहाँ बहती रही ।।

जाने कितनी ही कहानी माँ ने मुझको है सुनाई ।
हर कहानी में नदी ही प्रेरणा बनती रही ।।

है नदी की धार पर माँ ने चलाई नाव जो ।
बैठ कर उस नाव में मैं यात्रा करती रही ।।

जितनी भी नावें मिली मुझको सफर के मार्ग में ।
हर पथिक से बात सरिता झूम कर करती रही ।।

कौन खुशियाँ साथ लाया, और दुःख में कौन आया ।
अपनी लहरों से सभी की आत्मा छूती रही ।।  

जुड़ गई मैं माँ से ज्यादा उस नदी के मर्म से ।
जिसके तट पे बैठ के माँ केश तक गुंथती रही ।।  

रेत पर अब भी निशाँ दिखते हैं तेरे ऐ नदी ।
क्यों भला सब छोड़कर तू यूँ बनी चलती रही ।।


**जिज्ञासा सिंह**

वर्ण पिरामिड: बेटियाँ

तू
परी
लाडली
नैन बसी
मन मोहिनी
आँचल में लेटी
राजदुलारी बेटी ।।

वो
पुत्री
हृदया 
विश्वजया
कुल तारिनी
सदैव बंदिनी
सुश्री दिव्यदर्शिनी ।।

क्यूँ  
बेटी
सजीले  
कजरारे 
नैन रत्नारे
नींद से बोझिल
झील से झिलमिल ?

रे
सुता
पहन
आभूषण
मोती रतन
रम्य परिधान
बिखेर दे मुस्कान ।।

है
सोना
गहना
मोतीमणि
अलंकरण
जीवन श्रृंगार
बेटी खुशी हजार ।।

जिज्ञासा सिंह
सभी को बेटी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐

क्षणिकाएँ..अनुभूति

खामोशियाँ 
लिहाज का वसन
अंगवस्त्र बदन
कहने को गुस्ताखियाँ

सहनशक्ति
घातक निरंकुश
मन पर अंकुश
अपरमित असीम भक्ति

चोट
मन पर
मन के जखम पर
नहीं था कोई खोट

दर्द
कैसे सहूँ
किससे कहूँ 
सब्र, बड़ा बेदर्द

इंतहा
इंतजार की
हार की
सब कुछ सहा

रुलाई
की कथा
सुनाई व्यथा
हुई जग हँसाई

रोम रोम
गिरवीं 
न आसमां न जमीं
तुम पर होम

व्याप्त
क्लेश, भोजन
तन मन धन
विषाक्त

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र: साभार गूगल

वर्ण पिरामिड

चिंतन मनन
***********
ये
हवा
पुरवा
पुरवाई
बासंती लाई
रम्य आवरण
प्रकृति संरक्षण ।।

ले
शक्ति
आसक्ति
सीमा पर
फौजी सैनिक
होते हैं कुर्बान
हमारे अभिमान ।।

वे
मांगें
दहेज
मिटा मान
खोते सम्मान
लालच खातिर
लोभी बड़े शातिर ।।

वो
बाला
अबला
भ्रूणहत्या 
मानवकृत्य
की हुई शिकार 
मत करो संहार ।।

**जिज्ञासा सिंह**
     लखनऊ

मौन की साधना


प्रायश्चित तो हुआ मौन जब तोड़ा
उड़ा गगन तक वेग जिह्वा का घोड़ा

उड़े ज्वाल विकराल अग्नि अंबर तक पहुँची
जला दिए नक्षत्र चंद्रिका की भी भृकुटी

पड़ी हुई सब गाँठ हुई जब जलकर स्वाहा
कर बोला शष्टांग मनुज का मन फिर आहा

भरा व्यथा का राग हृदय में गहरे तक था
घिरा हुआ संताप विकट लब तक था

कैसे क्या समझाता कोई खुद को कितना
कठिन और दुर्गम था खुद से खुदी निकलना

फिर जो मिलता मार्ग सुगमता के कारण वश
करना पड़े कबूल सुयश हो या हो अपयश

मिली बड़ी धिक्कार विवश होकर घबराया
मन पे घाव हजार मौन को तोड़ के पाया

मौन को साधे चले हुए दिन रैना बीते
घुटते मन मस्तिष्क, से कैसे मानव जीते

करो साधना मौन साध लो एक पल क्षण में
जीतेगा फिर मौन विजय होगी हर रण में
 
        **जिज्ञासा सिंह**
      चित्र: गुगल से साभार

एक पत्र बेटे के नाम

प्रिय बेटे,
            सदैव खुश रहो !
 "आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास" है, कि तुम फिर पिछले साल की तरह इम्तहान के लिए, "दिन दूनी रात चौगुनी" मेहनत कर रहे होगे । तुम्हारा पत्र देखते ही दादी माँ "खुशी से फूली नहीं समाई" । तुम्हारी बहना प्रिया के तो "पाँव ही जमी पर नहीं पड़ रहे", कह रही थी कि देखना माँ भैया एक दिन तुम्हारा "नाम रोशन करेगा", क्योंकि मेरा भाई तो "लाखों में एक" है, अपना लक्ष्य पाने के लिए "जमीन आसमान एक कर" देता है, प्रिया कहती है, कि उसकी मेहनत देख के उसके दोस्तो के तो "हाथ पाँव फूल" जाते हैं, जानते हो बेटा "मैंने भी नहले पे दहला" मारा । मैं बोली मेरे "पूत के पाँव पालने में" ही दिख गए थे, तुम्हारे बाबा तो उसकी चैतन्यता देख कहने लगे थे कि घर चलते ही "घी के दिए जलाएँगे" ।
           अरे हाँ तुम्हारा "हवाई किले बनाने वाला" दोस्त मुकुल आया था "बड़ी बड़ी हाँक" रहा था अपने कॉलेज के बारे में, प्रिया बोली "अपने मुँह मियाँ  मिट्ठू" मत बनो, रिजल्ट आने पर तो नंबरों के तो "लाले पड़ जाते" हैं,"बगले झाँकने" लगते हो । "मुँह पे ताला" लगा लो, नहीं तो माँ के सामने तुम्हारा "कच्चा चिट्ठा खोल दूँगी" ।
         बेटा एक सलाह है, कि "जमीन पर पाँव रख के चलना" शुरू में ही किसी से "आसमान के तारे तोड़ने" जैसी "डींगें मत हाँकना, लोग "खिल्ली उड़ाएँगे" ,एक दिन " मेहनत रंग लाएगी" तुम "असमान की बुलंदियाँ " छुओगे, ऐसा बड़े कहते है कि "गूलर के फूल" दिखते नहीं पर अपने फलों से पक्षियों का पेट भर देते हैं। 
            खूब "फलो फूलो"यही "मंगल कामना" है,
                                    तुम्हारी माँ
                                दिनाँक़ १४/९/२०२१

क्षणिकाएँ.. गौरवमयी भाषा ( हिंदी दिवस )

हिंदी 
हिय में बसी
शीश चढ़ बिहँसी
जैसे बिन्दी

 वर्ण
होंठ से कंठ 
शोभित तालु आकंठ
माला जड़ित स्वर्ण

वर्णमाला
तालमय
सुरमय 
अमृत प्याला

 व्याख्या
शब्द एक
अर्थ अनेक
समुचित आख्या

परिभाषा
असंभव
और संभव
भरी आशा

व्याकरण
दुर्लभ
सुलभ
नहीं कोई आवरण

समृद्धि
संपूर्णता का ताज
भाषा सरताज
थोड़ी सी सिद्धि

अभिनंदन
हिंदी का 
 माथे से बिंदी का
हार्दिक मिलन

आस
जगत की आधार
भाषाओं की खेवनहार
विश्वास

शुभकामना
उत्थान उत्कर्ष
गाह्य सहर्ष
प्रार्थना

**जिज्ञासा सिंह**

अरी ! तू अबला कैसे ?


अरी ! तू अबला कैसे ?


चीर मेघ और भेद गगन को अंतरिक्ष तक पहुँची,

अतल सिंधु की गहराई से चुन लाई तू मोती ।

मरुभूमि में जलधारा ला,हरियाली फैलायी,

बिन पैरों के चढ़ी विश्व की सबसे ऊँची छोटी ।।


तू सृष्टि को धारण करती, सृष्टि धारित तुझसे 

अरी ! तू अबला कैसे ?


याद करो आज़ादी की तुम चलीं मशालें लेकर,

घर बारा सब भूल गयीं लाखों वधुएँ बालाएँ ।

देश की ख़ातिर डटी रही नभ में जल में औ थल में,

आजादी के बाद भी प्रहरी बन थामीं सीमाएं ।।


अस्त्र शस्त्र तू धारण करती दुर्गा देवी जैसे ।

अरी तू अबला कैसे ? 


घर डेहरी में क़ैद रही सर्वस्व न्यौछावर करके,

पीड़ा झेली औ झेली सदियों तुमने गुमनामी ।।

छोड़ो बीती बातों को, अब देखो आगे बढ़के, 

बीत गईं वो बेला, जब तुमने सही ग़ुलामी । 


कोई निकल नहीं पाता अब, आँख दिखाकर तुझसे ।

अरी तू अबला कैसे ? 


हर रिश्ते की डोर संभाले, सब की कर्म विधाता,  

पहली शिक्षक तू कहलाई, और इस जग की जननी ।

घर बाहर का रखे संतुलन, बन के सुघड़ प्रशासक,  

अब तो तेरे पंख उड़ रहे, रही न केवल गृहनी ।।


झुकती दुनिया तेरे आगे, तुझको डर फिर किससे ?

अरी तू अबला कैसे ?

सखी तू अबला कैसे ? 


**जिज्ञासा सिंह** 

गुरु का वंदन ( कुंडलियाँ )

गुरु का वंदन कीजिए, कर गुरुओं को याद ।
गुरु ने डाली बीज में, ज्ञान बुद्धि की खाद ।।
ज्ञान बुद्धि की खाद, हमें एक वृक्ष बनाती ।
मीठे फल से लदी हुई, दिखती हर पाती ।।
गुरु के कर्ज हजार, लगाऊँ गुरु को चंदन ।
जिज्ञासा की आस, करें सब गुरु का वंदन ।।

शिक्षक ही निर्मित करे, मानव हृदय महान ।
क्षमा, दया, सद्भाव के, होते शिक्षक खान ।।
होते शिक्षक खान, विराजें उर में गणपति ।
देते विद्या-बुद्धि, शक्ति, सन्मति औ सद्गति ।।
सदा विश्व को मार्ग दिखाते, पंथ प्रदर्शक ।
जिज्ञासा भगवान, बराबर होते शिक्षक ।।

 शिक्षक शिक्षा दे भली, अंतर्मन खुल जाय ।
शिक्षित सारा कुटुम हो, जगत समूल समाय।।
जगत समूल समाय, पशू, पक्षी नर ।
गोता खूब लगाय, गंग या बहे सरोवर ।।
भावों का विस्तार, सदा दुविधा से रक्षक ।
जिज्ञासा का नमन, भली दें शिक्षा शिक्षक ।।

**जिज्ञासा सिंह**

आतंकी डाका डाल रहे


फिर विश्व सभ्यता मौन हुई

वे रीछ और वानर युग के
दिखते आदिम मानव जैसे
वनचर भी उनसे डरे हुए
पीते अपनों का लहू ऐसे

वे मानुष हैं या नर पिशाच
मनु की पहचान ही गौण हुई

इनकी अपनी ही माँ बहनें
अबलाएँ बनकर डरी हुईं
घातक हथियारों के डर से 
अपने ही घर में घिरी हुईं

जो कल तक जग का हिस्सा थीं
इस दुनिया में वो कौन हुईं

है काल कलुषता का छाया
इस सृष्टि की हर एक थाती पे
आतंकी डाका डाल रहे
चढ़कर के विश्व की छाती पे

सब मूल्य,संस्कृति और उन्नति की
हर गाथा अब हौन हुई ।

सब घुसे हुए हैं मांदों में
इस देश में और विदेशों में ।
जो अब तक बड़े मुखर थे वो
छुप गए सियार के भेषों में ।।

उनको कुछ न दिखता है अब
हर जुबाँ भस्म हो पौन हुई ।
फिर विश्व सभ्यता मौन हुई ।।

**जिज्ञासा सिंह**

दोहे


मन की गठरी में भरा, पीड़ा घोर विषाद ।
प्रियवर सन्मुख बोलकर, कम कर कुछ तादाद ।।

हे मन मूरख तोलकर, अपना स्वयं वजूद ।
जल सागर में है भरा, तभी अगिन में कूद ।।

खुद को ज्ञानी मानकर, खोल न अपनी खोल ।
भाषा अपनी तोलकर, ज्ञानी सम्मुख बोल ।।

दुनिया माया से भरी, कोटि कोटि बहुरंग ।
गली गली नुक्कड़ नुक्कड़, करती है मति भंग ।।

एक दिशा और लक्ष्य से, बनता मन है वीर ।
मन साधे सब कुछ सधै, जैसे धनुषा तीर ।।

एक दिये की ज्योति से, जगमग जग है होय ।
जिनके मन कालिख भरा, उसे न सुमिरे कोय ।।

**जिज्ञासा सिंह**