मैं जीवन में नित नए अनुभवों से रूबरू होती हूँ,जो मेरे अंतस से सीधे साक्षात्कार करते हैं,उसी साक्षात्कार को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है मेरा ब्लॉग, जिज्ञासा की जिज्ञासा
सूखती नदी (नदी दिवस )
वर्ण पिरामिड: बेटियाँ
क्षणिकाएँ..अनुभूति
वर्ण पिरामिड
मौन की साधना
एक पत्र बेटे के नाम
क्षणिकाएँ.. गौरवमयी भाषा ( हिंदी दिवस )
अरी ! तू अबला कैसे ?
अरी ! तू अबला कैसे ?
चीर मेघ और भेद गगन को अंतरिक्ष तक पहुँची,
अतल सिंधु की गहराई से चुन लाई तू मोती ।
मरुभूमि में जलधारा ला,हरियाली फैलायी,
बिन पैरों के चढ़ी विश्व की सबसे ऊँची छोटी ।।
तू सृष्टि को धारण करती, सृष्टि धारित तुझसे
अरी ! तू अबला कैसे ?
याद करो आज़ादी की तुम चलीं मशालें लेकर,
घर बारा सब भूल गयीं लाखों वधुएँ बालाएँ ।
देश की ख़ातिर डटी रही नभ में जल में औ थल में,
आजादी के बाद भी प्रहरी बन थामीं सीमाएं ।।
अस्त्र शस्त्र तू धारण करती दुर्गा देवी जैसे ।
अरी तू अबला कैसे ?
घर डेहरी में क़ैद रही सर्वस्व न्यौछावर करके,
पीड़ा झेली औ झेली सदियों तुमने गुमनामी ।।
छोड़ो बीती बातों को, अब देखो आगे बढ़के,
बीत गईं वो बेला, जब तुमने सही ग़ुलामी ।
कोई निकल नहीं पाता अब, आँख दिखाकर तुझसे ।
अरी तू अबला कैसे ?
हर रिश्ते की डोर संभाले, सब की कर्म विधाता,
पहली शिक्षक तू कहलाई, और इस जग की जननी ।
घर बाहर का रखे संतुलन, बन के सुघड़ प्रशासक,
अब तो तेरे पंख उड़ रहे, रही न केवल गृहनी ।।
झुकती दुनिया तेरे आगे, तुझको डर फिर किससे ?
अरी तू अबला कैसे ?
सखी तू अबला कैसे ?
**जिज्ञासा सिंह**