बाज़ी गई मैं हार..गीत



बाज़ी गई मैं हार बलम जी..


कोई कहे अबला कोई कहे सबला

कोई कहें सुंदर नार बलम जी,

अगले जनम की काव कहूँ मैं,

यहि रे जनम गई हार बलम जी 


तुम जीते थे तुम फिर जीते

आज तलक जीते ही जीते 

खेल खेलती रही साथ मैं

पल-पल करते सौ युग बीते 

अब क्या दूँ इनाम मैं तुमको

दे डारा सब झार बलम जी 


एकहि अपने हाथ डेलरिया

वो भी आधी भरी फुलरिया 

घुमची जैसा फूल सजाया

लाल रंग पे दाग है करिया 

किसी रे जनम मैं मोलतोल की

रत्ती रही सुनार बलम जी 


बरसत भीगी भीज लुकानी

कंबहुँ करी  आनाकानी 

चलनी भीतर रोक  पाई

अपना जोगा निथरा पानी 

ना घइला मैं ना थी रसरिया

ना कुइयाँ की धार बलम जी 


चढ़ सूली झूला मैं झूली

लीला समझी,समझ के फूली

नेह उगा हर पातपात में

देख सकल संसार ही भूली

वही ओढ़ना वही बिछौना

वहि जीवन सिंगार बलम जी 


बाज़ी गई मैं हार बलम जी 


**जिज्ञासा सिंह**

दो मुस्कुराते नैन

 


दो मुस्कुराते नैन देखे

नैन में जलधार देखा 

लाल-नीला,श्वेतश्यामल

सज रहा संसार देखा 


नैन में बहता समंदर

तैरती नौका वृहद 

उछलती कुछ मचलती

थी डूबती तिरती जलद 

बरसता पावसपनपता

सीप मुक्ताहार देखा 


केवड़े सा जल कहाँ

सागर से पूँछें मीन लाखों 

यौवनों को है संजोना

पार उड़ना तीव्र पाँखों 

इस प्रवाही-जीव को

जाना जलधि के पार देखा 


नैन अविरल जब हुए

तो भाव निर्मल कर गए 

ले अँजूरी सिंधु विस्तृत

नैन में ही भर गए 

नैन से होकर गुजरता

सिंधु का हर सार देखा 


**जिज्ञासा सिंह**

हिंदी माँगे अधिकार सुनो !

 


हिंदी माँगे अधिकार सुनो !

अपनी बन के रह जाने से

होता  कभी उद्धार सुनो 


सब कहते कि मैं हूँ महान

पर करते  इतना निदान 

समृद्ध-सरस पहचान मेरी

भाषाओं की निज आसमान 

सबसे मिल कर सबकी बनकर

करना विस्तृत संसार सुनो 


गर माँगे छाया आँचल की

मैं धरणी जैसी बिछ जाऊँ 

ममता-वात्सल्य स्वरूपा बन

अपनी संतति पर इतराऊँ ॥

वे बोएँ बीज भले गिनकर

मैं उगूँ सघन विस्तार सुनो 


हूँ हिंदी सिद्धा स्वयं सकल

हर भाषा भाषी में व्यापूँ 

अंतर्मन घट-घट में उतरूँ

मग-मग,डग-डग धरती नापूँ ॥

कम्प्यूटर होविज्ञान जगत 

नतमस्तक बारम्बार सुनो 


भाषाउपभाषाजग भाषा

वर लें कर लें निज हस्त ग्रहण 

मन वाणी कर्म समाहित हो

लंकार विभूषित वचन वरण 

नभ-जल-थल सबकी अभिलाषा

सबमें होना स्वीकार सुनो 

हिंदी माँगे अधिकार सुनो 


“🌹🌹हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई🌹🌹”


**जिज्ञासा सिंह**

हार में जीत


मेरी हर हार में जीत उनकी हुई, 
सिलसिला जीत का कारवां बन गया।
दायरे में सजी थी जो दुनिया मेरी 
दायरा ख़ूबसूरत मकां बन गया ।।

थी जो बचपन में माँ से कहानी सुनी
एक कछुए की मद्धिम रवानी सुनी
जब भी खरगोश दौड़ा उसे छोड़कर
थक गया रुक गया राह के मोड़ पर 

उस कहानी की चूलों में उलझे कई
प्रश्न का हल मेरा आसमां बन गया।।

वो कथा मेरे मन में गई है अटक
बूंद पानी की कागा तलाशे भटक
कर्म के पंख साजे वो उड़ता रहा
आस विश्वास का रंग जड़ता रहा

डूब कंकड़ पिपासा बुझाता रहा
था जो मिट्टी का घट वो कुआं बन गया ।।

शीश ऊपर सजा एक चिकना घड़ा 
खुर उधारी में देकर गया चौगड़ा
दौड़ लगती रही जीतने के लिए
धार धरकर घड़ा शीश माथे चुए

मैं फंसी धार की जब भी मझधार में
एक कछुआ मेरा हौसला बन गया ।।

**जिज्ञासा सिंह**