कोई कहे अबला कोई कहे सबला
कोई कहें सुंदर नार बलम जी,
अगले जनम की काव कहूँ मैं,
यहि रे जनम गई हार बलम जी ।
तुम जीते थे तुम फिर जीते
आज तलक जीते ही जीते ।
खेल खेलती रही साथ मैं
पल-पल करते सौ युग बीते ॥
अब क्या दूँ इनाम मैं तुमको
दे डारा सब झार बलम जी ॥
एकहि अपने हाथ डेलरिया
वो भी आधी भरी फुलरिया ।
घुमची जैसा फूल सजाया
लाल रंग पे दाग है करिया ॥
किसी रे जनम मैं मोलतोल की
रत्ती रही सुनार बलम जी ॥
बरसत भीगी भीज लुकानी
कंबहुँ करी न आनाकानी ।
चलनी भीतर रोक न पाई
अपना जोगा निथरा पानी ॥
ना घइला मैं ना थी रसरिया
ना कुइयाँ की धार बलम जी ॥
चढ़ सूली झूला मैं झूली
लीला समझी,समझ के फूली
नेह उगा हर पात- पात में
देख सकल संसार ही भूली
वही ओढ़ना वही बिछौना
वहि जीवन सिंगार बलम जी ॥
बाज़ी गई मैं हार बलम जी ॥
**जिज्ञासा सिंह**