अब मेरी चादर ।
ओढ़ लूँ ऊपर से नीचे
आबरू का तंतु भींचे
चल पड़ूँ सब ढाँपकर ।।
कुछ है लेना छूटना कुछ
जो मिला वो है बहुत कुछ,
भार सा सिर पर लदा है
कर निछावर दूँ सभी कुछ,
हूँ तनिक न अनमनी मैं
दूँ तुझे प्रासाद भरकर ।।
मैं सकल संसार खुद में
बीज बोती रोपती थी,
ग्रहण कर लूँ स्वयं में सब
लोभ माया पोहती थी,
अधिक पाया पर न जानूँ,
क्या मिला है अधिक पाकर ?
भाग्य से है तू मिला
यह सोच, लाई द्वार पे
तू ही कारीगर अनोखा
जो भी चाहे काढ़ दे
जब चलूँ दुनियाँ निहारे
आज ऐसे रंग भर ।।
**जिज्ञासा सिंह**