रे जुलाहे बीन दे अब मेरी चादर


रे जुलाहे बीन दे 
अब मेरी चादर ।
ओढ़ लूँ ऊपर से नीचे
आबरू का तंतु भींचे
चल पड़ूँ सब ढाँपकर ।।

कुछ है लेना छूटना कुछ
जो मिला वो है बहुत कुछ,
भार सा सिर पर लदा है
कर निछावर दूँ सभी कुछ,
हूँ तनिक न अनमनी मैं
दूँ तुझे प्रासाद भरकर ।।

मैं सकल संसार खुद में
बीज बोती रोपती थी,
ग्रहण कर लूँ स्वयं में सब
लोभ माया पोहती थी,
अधिक पाया पर न जानूँ,
क्या मिला है अधिक पाकर ?

भाग्य से है तू मिला
यह सोच, लाई द्वार पे
तू ही कारीगर अनोखा
जो भी चाहे काढ़ दे 
जब चलूँ दुनियाँ निहारे
आज ऐसे रंग भर ।।

**जिज्ञासा सिंह**

जागृत देवता हैं पुस्तकें

तलाश जारी है,
जारी थी उनकी, जो अनिवार्यत है
जो निर्विकारी है ।

कूल मझाते भटकते
कदमों की दिशा भ्रमित हुई कई बार
एक अदना सा दृश्य नहीं दिखा
बोझ की गठरी बड़ी भारी है ॥

क्यों कर अंधा सा है मन 
जो दिखे वही खोजता, वही ढूँढता
बार बार करूँ प्रतिकार
धुजा से उतारने की तैयारी है ॥

एक डिबिया में बंद कर लूँ
या फैला दूँ यहाँ से वहाँ अंबर तक
सब कुछ परिलक्षित है
भाव से भरी उदारी है ॥

अपरिमित ध्रुवों को समेटे
विस्तार धारे अपने अंक में
क्या कुछ नहीं गर्भ में भरा
जगत आधारी है ॥

न जानों तो अंजान सी लगी
खाका छान लिया जग का
पलट कर उधेड़ा, बार बार देखा
वो नर है न नारी है ॥

विभूषित सुशोभित ब्रह्मऋषि की जटा जैसी घनी
सदियों से आभा बिखेरती
स्व में विश्व समेटे निमग्न अलंकृत, 
सर्व ज्ञान दायिनी पुस्तक हमारी है ॥

**जिज्ञासा सिंह**

पृथ्वी दिवस (पिरामिड)


हाँ
पृथ्वी
जननी
संरक्षिणी
सर्व दायिनी
है आधार श्वास
वायु जल प्रकाश ॥
**
हो
वृक्ष 
रोपण
कण कण
भू संरक्षण
प्रतिज्ञा समाज
पृथ्वी दिवस आज ।।

**जिज्ञासा सिंह**

आओ मिलकर प्रीत जगाएँ

आओ मिलकर प्रीत जगाएँ

भला कहीं नारों से जीवन कटता है
भेदभाव का दृश्य स्वयं को छलता है
उनकी रस्सी अपनी गर्दन फाँस लगाकर
चौराहे पर खुद को यूँ न लटक दिखाएँ ॥

पछुआ पुरवइया ने मिलकर उमस बढ़ाई है 
हर दिल और दिमाग पे गर्मी छाई है
शीतल बौछारों से कर लें चलों निवेदन
थोड़ी ठंडे छींटों की फुहार बरसाएँ ॥

टोपी चंदन भेदभाव वो नहीं जानता
तुम इतने गुस्ताख वो नहीं मानता
हे मानव की जाति, जाति अब मत जानो
सब उसकी संतान सभी को ये समझाएँ ॥

छोड़ नहीं जाने वाला कोई ये दुनिया
खा लें मिलकर बाँट निवाला शन्नो, मुनिया
होली की गुझिया, बैसाखी की थाली में
एक कटोरी सिवईं रखकर उन्हें खिलाएँ ॥

आओ मिलकर प्रीत जगाएँ ॥

**जिज्ञासा सिंह**

भारी जगी जगाई आँखें
नींद लिए बौराई आँखें

काम ढूँढती दर दर भटकी
गुदड़ी की ये जाई आँखें 

रोटी मिली प्याज़ की खातिर
जगह जगह भटकाई आँखें

मोल तोल का भार लिए
झुकती और झुकाई आँखें

मचलीं जब जब नादानी में
बन अंगार दिखाई आँखें

आज तलक बस एक बार ही
खुद से गई उठाई आँखें

माँ की उँगली स्नेह का काजल
भरकर गई लगाई आँखें ।।

**जिज्ञासा सिंह**

पालना झूल रहे रघुराई

 
पालना झूल रहे रघुराई ।
काहेन का ये बना रे पालना, क़ाहेन डोर लगाई ।
कंचन का ये बना ये पालना, रेशम डोर लगाई ॥
राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, झूल रहे इठलाई ।
कोई चले घुटने, कोई बकइयाँ, कोई भागि लुकाई ॥
राजा दशरथ चुमकारि बोलावें, तबहूँ न आवें भाई ।
हारि गए राजन जब पकरत, मातु लियो बुलवाई ॥
देखि मातु को लेत बलैयाँ, राम गए मुस्काई ।
गिरि-गिरि जायँ गोदि कौशल्या, दशरथ नैन समाई ॥
पालना झूल रहे रघुराई ।।

**जिज्ञासा सिंह**

स्कूल चलो अभियान

स्कूल चलो, स्कूल चलो
स्कूल चलो अभियान ।
ध्यान रहे हर घर तक पहुँचे 
शिक्षा प्रावधान ।।

दफ्तर-दफ्तर मेज-मेज
है चलती खतो-किताबत
दबी फाइलें माँग रही हैं 
 रिश्वत डूबी मोहलत 
रोटी, बस्ता मिलें किताबें
जूता यूनिफॉर्म ।। 

नेलकटर साबुन भी होगा
सेनेटाइजर खास
हाथ पोंछना है रुमाल से
मासूमों को आस
बड़े नुकीले नाखूनों से
रहना सावधान ।।

मॉल माल में भटक रहे
बने हुए घनचक्कर
अजब गजब की सेल 
बजारें देतीं टक्कर
गुब्बारा गाड़ी के आगे
बेच रहे नादान ।।

स्कूल चलो, स्कूल चलो,
स्कूल चलो अभियान ।।

**जिज्ञासा सिंह**

प्रार्थना के मेरे उद्गार सुन लो शारदे

प्रार्थना के मेरे उद्गार, सुन लो शारदे ।
खोल दो आज मन के द्वार, सुन लो शारदे ।।

यहाँ से दूर उस जग तक, सदा दौड़ी मैं जड़ता संग,
मिले न शब्द शाश्वत, शिल्प, सुर न ताल सुन लो शारदे ।।

मिले सानिध्य का आशीष, तो ये चमन खिल जाए,
फलों फूलों से सज्जित, तरुवरों की डार सुन लो शारदे ।।

यही विनती है माँ चरणों में, वर दे दो प्रभा का अब,
जले नित ज्योति उर में, औ मिटे अंधियार सुन लो शारदे ।।

दिव्य हो, सजग हो, हर प्राण, इस पावन धरा का अब,
यही बस आस है, गुहार औ मनुहार, सुन लो शारदे ।।

सदा वर्षा सी, सागर सी, औ नदिया सी बहो मन में,
हमें दो ज्ञान की बहती सी, अविरल धार सुन लो शारदे ।।

**जिज्ञासा सिंह**

समय समयांतर


असमय समय मार गया
कोड़े लगा लगा, धिक्कार गया 
अनजानी हवा का झोंका
सर्प की फूँक सा फुफकार गया ।।

स्तब्ध अटल गड़ गया पाँव
नीचे जमी भी नहीं रही
ज्वालामुखी फटने के बाद
लौ धधकती रही
जला लावा उड़ उड़ चेहरे की
रंगत बिगार गया ।।

वो चमक वो आभा कभी 
जो मृगनयनी आँखों ने देखा
सजी संवरी बनी रही 
वो कामिनी सुरेखा
पहिया चला समय का, बिन मंजिल
चौराहे पर उतार गया ।।

समय पर समय ही बतायेगा
कि समय ऐसा भी होता है
तुम समय को या समय तुमको
कोई न कोई तो एक दूजे को ढोता है
समय का पड़ा गहरा घाव
रिस बार बार गया ।।

**जिज्ञासा सिंह**