मैं जीवन में नित नए अनुभवों से रूबरू होती हूँ,जो मेरे अंतस से सीधे साक्षात्कार करते हैं,उसी साक्षात्कार को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है मेरा ब्लॉग, जिज्ञासा की जिज्ञासा
मिट्टी की गागरी
हुआ ज़ोर का दमा
सत्र पर बस ध्यान दो
जिंदगी बन जाऊँगी
अगर पायल मेरी बोले (गीत)
देखना मुझको,
स्वयं की छवि है पानी में ।
ढूँढना है
अभी अंतर
बहावों की रवानी में ॥
जो ठहरी सी हुई काई में,
एक मछली फँसी मचले ।
फड़कते पंख हैं उसके
करे घर्षण आह निकले ॥
वही घर्षण चले दिन रात
मेरी जिंदगानी में ॥
है पानी प्राण उसका
और मेरी ये हवाएँ हैं,
मगर घटता सरोवर
देख कर हँसती फजाएँ हैं,
मछलियाँ डूबकर मरती,
रहीं मेरी कहानी में॥
खुले आकाश का पंक्षी,
उड़े स्वच्छंद पर खोले
ठिठक जाते कदम रह-रह
अगर पायल मेरी बोले
रहे बंधक मेरे घूँघरू
भरी चढ़ती जवानी में॥
न नींदों में सजा सपना,
न सपने में कोई रहबर ।
जगा दे जो ऊनींदेपन से,
देखूँ नैन मैं भरकर ॥
है क्या अंतर समझ आ,
जाए दासी और रानी में ॥
**जिज्ञासा सिंह**
नयी नवेली जात
नयी नवेली जात
सड़क पर घूम रही है ।
माथे जड़े बिसात
हवा संग झूम रही है ॥
चुप चुप छुपकर उसे देखना
मुँह पर उँगली रखकर ।
नज़र कहीं न पड़ जाए
रहना उससे बचकर ॥
गज के जैसी चाल,
राह में दूम रही है ॥
कसा शिकंजा अगर
पड़ेगा सब पर भारी ।
करते बड़े शिकार
स्वयं वे बड़े शिकारी ॥
फँसने और फँसाने की
अब चक्की घूम रही है ॥
मकड़े के जिस जाल
फँसी युग युग से चींटी ।
खड़ा सिपाही देख रहा
था, बजी न सींटी ॥
वही लिए संताप जात
अब बूम रही है ॥
**जिज्ञासा सिंह**