मेरे भी पंख होते
और हम खुद उड़ रहे होते
मैं उड़ती दूर अंबर पे
कोई न राह में आता,
कोई बन के मेरी बाधा
परों को न कतर पाता ।
ये बातें स्वप्न में आती
मुझे जब देखतीं सोते ।।
वरन मैं तो हूँ कठपुतली
सी बुनियादी ज़माने की,
मुझे देते नहीं वो कुछ न
आदत भी है पाने की ।
मगर जीवन के घर्षण के
हमेशा दोषी हम होते ।।
भला अब क्या कहें किससे कहें
कहने को, कुछ है क्या ?
सभी कुछ जानते हैं जो
उन्हें समझा नहीं सकते।
ये मन के तार हैं जो स्वतः
ही जुड़कर सुदृढ़ होते ।।
मैं उड़ती तो गगन में हूँ
मगर दिल में वही बगिया,
जहाँ है घोसला अपना
है तिनकों से सजी दुनिया ।
घड़ी भर भूल भी जाऊँ
है दूजे पल वहीं होते ।।
मैं धारा हूँ करूँ सिंचन
हवाओं से मैं ले सरगम,
मैं अंबर का मैं धरती का
कराती हूँ सदा संगम ।
भला फिर क्यूँ मुझे अदना
समझ हैं आँसू में डुबोते ।।
**जिज्ञासा सिंह**