श्याम सुंदर और राधा रानी की होरी


मैं नहीं खेलूँगी होरी 

देखो श्याम मैं नहीं खेलूँगी होरी 

मै नहीं खेलूँगी होरी ...

तन मोरा भीजे,मन मोरा खीझे 

मत करो तुम बरजोरी 

देखो श्याम ...

गोरा बदन मोहें रंग नहीं भावे

भीजत चुनरी कोरी

देखो श्याम...

मोहे बिरज की होरी न बिसरे

नाचत गावत गोरी

देखो श्याम...

गलियन गलियन धूम मचावत

आवत छोरा छोरी

देखो श्याम...

ढोल मजीरा नौबत बाजत 

बजत मुरलिया तोरी 

देखो श्याम ...

श्याम सुंदर मारी भर पिचकारी

बिहँस परी राधा गोरी

देखो श्याम...


**जिज्ञासा सिंह**

पुस्तकें

ज्ञान का भंडार होतीं पुस्तकें
मन का हैं श्रृंगार होतीं  पुस्तकें

रूढ़ियों और बंदिशों की गांठ को
खोलने का द्वार होतीं पुस्तकें

जब कभी भी मेघ बरसे चमककर
रेशमी फुहार होतीं पुस्तकें

इस धरा की सरसता को जो छले
कहने का हथियार होतीं पुस्तकें

संस्कृति और मूल्यों का ह्वास हो जब
डालती संस्कार होतीं पुस्तकें

अलख जब हम हैं जगाते जगत में
दे रही अधिकार होतीं पुस्तकें

कुछ कहीं मन में खटकता हो अगर
मौन का उद्गार होतीं पुस्तकें

तेल डाले कान में बैठा दिखे जब तंत्र ये
बन रही गुहार होतीं पुस्तकें

ब्रम्ह और ब्रह्माण्ड है इनमें भरा 
ज्ञान का भंडार होतीं पुस्तकें 

इस जहाँ की हर नियति ये जानतीं 
यूँ कहें संसार होतीं पुस्तकें 

वक्त ने इनमें भरी जब कलुषता
कर रही प्रतिकार होतीं पुस्तकें

देवों की पूजा, सदा ही वंदनी
भावों का इजहार होतीं पुस्तकें 

**जिज्ञासा सिंह**

नमन मेरा स्वीकार करो



जो देश पे थे कुर्बान हुए 
उनके जैसा अब कौन यहां ?
इन वीरों को है कोटि नमन 
आज़ाद हमें दे गए जहाँ ।।

थे क्रांतिवीर और वीर पुरुष 
फाँसी पर जाकर झूल गए ।
हैं कौन ? कहाँ से आए हैं,
सब देश की ख़ातिर भूल गए ।।

जब बिगुल बजा आज़ादी का 
वो सबसे आगे खड़े रहे ।
दिन रैन कभी देखा ही नहीं 
वो सीना ताने अड़े रहे ।।

हूँ शीश झुकाए नतमस्तक 
अब नमन मेरा स्वीकार करो ।
ऐ मातृभूमि के मस्तानों
जीवन अब तो उद्धार करो ।।

**जिज्ञासा सिंह**

ज़माना बदल रहा है(नारी स्वावलंबन -गंवई संवाद)

जुग बदल गया है 
हमरा जमाना निकल गया है
पहले की बात और थी अबकी और है
अब अनपढ़न को नाहीं कहूं ठौर है 

बड़की को पढ़ाएंगे
छोटकी तो, नौकरी वाली ही लायेंगे
बड़ी अम्मा ने अपनी बहुओं के बारे में जब मुझे बताया 
तो मैंने उन्हें ये भी कहता हुआ पाया 

कि कम उम्र में हो गया था बड़े बेटे का ब्याह
मैं नहीं ले पाई थी बहू बेटे के मन की चाह 
आज जब सबकी बहुरिया कमाती हैं
तो हमरी बड़ी बहू पछताती है

कि काश हम भी कुछ बढ़िया पढ़े होते
तो नौकरी जरूर करे होते
यही सोचकर हम, अब से उसे पढ़ाएंगे 
और नौकरी भी करवाएंगे

नौकरी न मिली तो करा देंगे व्यापार
धीरे धीरे बढ़ जाता है रोजगार
और जब घर में हर कोई कमाता है
चार पैसा आता है

तब नहीं होती फालतू खुराफात
देखो बिटिया ! जब खाली होती है औरत जात
तो इधर उधर बैठती है बतियाती है
अपना समय गप्प मारने में बिताती है

और घर में मारती है ताने
हम बड़ों को देती है उलाहने
इसलिए बिटिया 
हम तो अपनी दोनो बहुरिया 

से घर और बाहर दोनों काम करवाएंगे
घर में खाली नहीं बैठाएंगे
कमाएंगी शौक पूरा करेंगी
हमें भी थोड़ा बहुत छिड़क देंगी

हम भी मस्त, बहुरिया भी मस्त
हमें चाहे कोई कुछ कहे, हम नहीं होंगे पस्त
अपना परिवार सुखी तो सब सुखी
अपना घर दुखी तो दुनिया दुखी

बड़ी अम्मा का सिद्धांत सुन, मैं मन ही मन मुसकाई
अपना बैग उठाया और घर चली आई
मन कह रहा है कि कहीं कुछ ठहराव है 
स्त्री जीवन में आ रहा बड़ा बदलाव है

अगर बड़ी अम्मा कह रही है, ये बातें
तो बीतेंगी हमारी भी सुहानी रातें
दिन फिरेंगे जरूर,और दिन फिर, भी रहा है
सच जमाना धीरे ही सही,पर बदल रहा है

 *जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल

संबंधों में बंधी स्त्री



अकेली हूँ शांत हूँ 
एकान्त हूँ 
अपनी हूँ बस, अपनी 
नितांत अपनी 

न कोई स्वप्न है मेरी आँखों में 
न बस है,  अपनी साँसों पे 
सोचती हूँ थोड़ा सुस्ता लूँ 
खुद को अपना बना लूँ 

अपने में डूब जाऊँ 
और इतराऊँ 
वरना यहाँ से हिलते ही 
उनसे मिलते ही
 
माँ बन जाऊँगी 
पत्नी कहलाऊँगी 
बेटी,  बहन 
तो बन बन
 
के थक गई थी बहुत पहले 
बहू, भाभी,चाची, मासी कोई कुछ भी कह ले 
पर मैं हूँ, कहीं क्या ?
ढूँढती रही सदा 

करती रही अपनी तलाश 
खो दिया होशोहवास
बहुत कुछ बन के 
बन ठन के 

कई बार सोचा कि मैं यही हूँ 
पर शायद इन नामों के अलावा मैं कहीं नहीं हूँ 
बार बार खोजती हूँ खुद को 
भूल जाती हूँ सुध बुध को
 
दिखती हूँ कहीं किसी गहरे कूप में 
या किसी पुराने संदूक में 
जिसके ताले में भी वर्षों पुराना जंक है 
ये मेरे नाम पर कैसा कलंक है 

जो लगा भी नहीं
जिसकी सजा भी नहीं 
सजा का प्रावधान भी नहीं 
कोई संविधान भी नहीं
 
मजमून भी नहीं 
कानून भी नहीं 
जो मेरी सुने और मुझे, मुझसे मिलवा दे 
सारे झंझावातों,नातों से दूर कर 
नितांत, एकांत में अपने लिए जीना सिखा दे...

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल 

बिछोह..गौरैया और गुड़िया

गौरैया 
और मेरी गुड़िया 
दोनों बचपन से 
हैं एक जैसे

मैं कहती हूं कुछ, वे सुनते हैं कुछ 
और करते हैं कुछ 
दोनों को पिंजरा पसंद नहीं 
दोनों समय की पाबंद नहीं
 
दोनों आसमान छूने को आतुर 
अपने को समझती
दोनों चतुर 
एसी की जाली में जन्मी गौरैया 
उड़ान भरते ही गिर गई मेरी अंगनैया 

गुड़िया ने उठाया दुलराया 
माँ की तरह सीने से लगाया 
जूते के डिब्बे में घर बनाया
जो खाती वो, वही खिलाया

बस क्या था
दोनों का हौसला था 
चिड़िया रानी फुर्र फुर्र उड़ने लगी 
गुड़िया भी संग संग दौड़ने लगी 

एक पिंजड़ा मंगाया गया
गौरैया का घर सजाया गया 
ऐसे  
घर की नई दुल्हन हो जैसे

अब जीना एक दूसरे के साथ था
एक के बिन दूजा उदास था 
दोस्ती परवान चढ़ी
एक दिन बदली उमड़ी घुमड़ी

चिड़िया ने रखी एक ख्वाहिश
गुड़िया से करी नन्हीं सी फरमाइश
थोड़ा बाहर निकालो न
बादल दिखाओ न

प्यारी सखी
मेरी अंखियाँ बहार देखने को हैं तरसी
अविश्वास 
की नहीं थी कोई बात 

गुड़िया ने पिंजड़ा खोला
खुला आसमान देख चिड़िया का दिल डोला 
वो उड़ गई पंख फड़फड़ा के
गुड़िया रोई चिल्ला चिल्ला के

मैं रह गई हतप्रभ
नादान गुड़िया आज भी है स्तब्ध
चुपचाप ऊपर देखती है 
और कहती है

मेरी चिड़िया उड़ी नहीं , उसे हवा उड़ा ले गई अपने साथ
वह रोती होगी माँ, जब उसे आती होगी मेरी याद ..

**जिज्ञासा सिंह**

चाँद की आँखमिचौली


वह ताक,
 झांक 
रहा था मुझे बादलों में छुपकर
रह रहकर 

दिखता मुझे
और फिर छुप जाता बादलों के पीछे
ये आँखमिचौली
अठखेली

उसको देखती रही
फुदकती रही
मैं भी अपनी छत के ऊपर
अरे ! ये इधर से उधर 

कहाँ जा रहा है ?
चाँद को जाता देख मेरा जी घबरा रहा है
किसी और की छत पर
 अब ठहर

गया है वो निगोड़ा चँदा
अजब बंदा
है ये तो
जरा देखो

अभी मेरा था अब उसका है
न जाने किसका किसका है
हरदम भटकता 
रहता

है ये नामुराद 
मुझे तो बरबाद
ही करके छोड़ेगा ।
ऐसा कर कर के जाने कितनी बार,
ये मुआ चाँद मेरा दिल तोड़ेगा ।।

  **जिज्ञासा सिंह**

ताऊ जी का संन्यास ( सत्य घटना पर आधारित )



लोगों ने मिल जुल कर के कितनी जुगत लगााई। 

ताऊ ने सेहरा बाँधा बजने दी न शहनाई ।।

मूँछे ताने जीवन भर वो घर के मुखिया बने रहे ।

लिया मोर्चा सबसे डटकर सारंग जैसे तने रहे।। 


एक बाँग पर सारी बहने और भाई बिछ जाते। 

ताऊ चलते आगे आगे वे पीछे लग जाते ।।

अम्माँ बाबू दउआ को सारे तीर्थ करा लााए ।

साड़ी चूड़ी बिंदी को बहुओं को तरसाए ।।


दूध दही फल सब्ज़ी से आँगन हरदम भरा रहा।

भैंस गाय संग ट्रैक्टर ट्रॉली दरवाज़े पर सज़ा रहा ।।

एक हुकुम पर जान छिड़कते दिन भर नौकर चाकर।

चहल पहल की रौनक़ रहती घर के अंदर बाहर ।।


अनुशासन की पराकाष्ठा आसमान से ऊँचीी।

सबको लगन लगी जीवन में कुछ अच्छा करने की ।।

यही सिलसिला क़ायम रक्ख़ा ताऊ ने मेहनत कर।

कोई बाबू बना शहर का कोई ऊँचा अफ़सर ।।


धीरे से सब शहर जा बसे ताऊ पड़े अकेले

ताऊ शहर को जाते रहते राशन सब्ज़ी ले ले ।

उम्र बढ़ी तन मन भी हारा हारी मन की तृष्णा

अपने में हैं व्यस्त बंधु सब नहीं किसी में करुणा ।।


टूटे और थके मन की है व्यथा अकेलेपन की ।

बूढ़ी जर्जर काया चाहे आश्रय अपनेपन की ।।

अंत समय आया ताऊ का सबने हाथ सिकोड़ा ।

हुई हृदय को घोर निराशा अति विश्वास भी तोड़ा ।।


चले गए वो नदी किनारे छोड़ जगत का संग ।

त्याग दिया कर्मों की दुनिया जीवन का हर रंग ।।

घास फूस छप्पर की फिर कुटिया एक बनाई ।

लीन हो गए प्रभु सेवा में सच्ची मुक्ती पाई ।।


**जिज्ञासा सिंह**

त्रिकालदर्शी आए हैं



जानकर कुछ लोग आए द्वार मेरे
दौड़कर वे कौन हैं ? देखन चली ।
एक कदम और दो कदम, इतना चली
यूं लगा कि, जैसे मैं मीलों चली ।।

पहुंचने में द्वार पर अपने मुझे
करनी पड़ी त्रैलोक्य जैसी यात्रा ।
देखकर आगंतुकों ने यूं कहा
तू नही मेरे दरश की पात्रा ।।

मैं खड़ी हतप्रभ औ विस्मय से भरी
कौन है जो यूं मुझे दुतकारता ।
देखती हूं हर तरफ मैं द्वार के
एक भी मानव नहीं है सूझता ।।

आज ये कैसी महामाया मुझे
मेरे द्वारे पर मुझे ही छल रही ।
कौन है किसने पुकारा था मुझे
कौन सी अद्भुत पहेली पल रही ।।

हैं दिशाएं शांत, चुप सारा जहां हैं
हर तरह का शोर जैसे थम गया ।
फेंक दो तिनका अगर एक भूमि पे
छन्न सी आवाज़ वो भी कर गया ।।

मुड़ रही मैं द्वार से, जैसे सदन को
फिर वही आवाज़ आई ज़ोर से ।
हड़बड़ाकर देखने मैं फिर चली
सोचकर किसने किया है रोर ये ।।

फिर नहीं दिखता मुझे कोई वहाँ पर
हो गई व्याकुल अनिश्चितता बढ़ी ।
कौन मुझसे कर रहा अठखेलियाँ
द्वार मेरे किसकी नजरें हैं गड़ी ।।

है कोई परिचित कोई अपना सगा
कर नहीं पाऊं अभी ये बोध मै ।
शीश मैंने धर दिया थक हारकर
मूंद लीं आंखें धरा की गोद में ।।

स्वप्न में देखा बड़ा सा भाल मैंने
हर तरफ लटकी जटाएं घेरकर
बीच में कुछ लग रहा त्रिनेत्र जैसा
मुझको देखे जा रहा है घूरकर

साथ में एक चन्द्र रेखा सी दिखी
और जटा के बीच से बहती नदी ।
हाथ एक त्रिशूल और दूजे में डमरू
कण्ठ में सर्पों की माला दीखती ।।

वक्ष पे ओढ़े हुए है वो दुशाला
अंग में भस्मी लपेटे सा दिखे ।
पांव में पहने खड़ाऊ काष्ठ का
है नहीं दिखता मगर पूरा मुझे ।।

अलख सी जलने लगी, चारों दिशा में
शंखध्वनि करताल भी बजने लगे ।
डम डमा डम डमरुओं के मधुर धुन पे
झूम झूम नृत्य सब करने लगे ।।

फिर से एक आवाज़ गूंजी श्रुति पटल पे
आ गए तिरकाल दर्शी द्वार मेरे ।
देखते वो नयन भर सर्वस्व मेरा
बंद आँखें हम उन्हें कैसे निहारें ।।

उठ रही हूं गिर रही हूं लड़खड़ा के
भागकर जाती मगर उनके दरस को ।
आज कैसा दिव्य दर्शन दे रहे प्रभु 
भर नहीं पाऊं मैं झोली में सुयश को ।।

**जिज्ञासा सिंह**

इक्कीसवीं सदी और चौखट से बँधी नारी (महिला दिवस)


आज कुछ कहने को हैं, रुसवाईयां हमारी ।।

वे जब कहते हैं 
हम सुनते हैं 
सुन सुन के 
उनके बन के 
रहते भी हैं 
उनकी सहते भी हैं 
पर जाने क्यूँ 
हमें यूँ  
जीने नहीं देती हैं 
धोखा देती हैं,  
निश्चल परछाइयाँ हमारी ।।

जीवन जीते हैं  
कड़वे घूँट पीते हैं  
घुटती हुई साँसों 
बिखरे हुए अहसासों 
को जोड़ तोड़ के 
अपनी तरफ़ मोड़ के 
अपना बनाते हैं 
मन की अलमारी में सजाते हैं 
सजते ही 
कभी कभी 
बिखर जाती हैं पल भर में, 
वर्षों सहेजी, संजोयी ख़ुशियाँ हमारी ।।

क्या है ये ?
कैसा सिलसिला ये ?
नारी मन 
ये घर्षण 
सहते सहते 
बिछुड़ते रमते 
आस में जीते 
आँसुओं को पीते
बिता देता है सदियाँ 
पर बीतती नहीं वो घड़ियाँ 
छीन लेतीं जो क्षण भर में, दुनियाँ हमारी ।।

ये दुनिया भी क्या है ?
शायद एक धोखा है 
जो देते हम स्वयं को 
अपने परम को 
जिसे अपना बनाते हैं 
उसमें डूब जाते हैं 
दिखता नहीं अस्तित्व 
अपना ही व्यक्तित्व 
कर देते तार तार 
खो देते अधिकार 
ओढ़ते बिछाते गिनाते, 
समर्पण की मजबूरियाँ हमारी ।।

क्यों ? 
आखिर क्यों ?
नारी हैं हम !!
या इसी के अधिकारी हैं हम 
तुम तो कहते हो 
कहते ही रहते हो 
कि तुम्हीं से सबकुछ है 
क्या ये सच है ?
यदि हाँ 
तो हैं कहाँ 
तुम्हारी, केवल मेरे लिए,
तराशी, बनायी स्मृतियाँ हमारी ।। 

इतना मत बनाओ
मत सजाओ 
हमें गुड़ियों के जैसे 
सजे धजे तुम्हारी परछाईं से 
कब तक चिपकी रहूँगी 
अपनी कब सुनूँगी
कुछ कह रहा है आज हिय 
जरा सुनो मेरे प्रिय 
मन की बात 
मेरे ज़ज्बात
बहुत कुछ कहने को तुमसे, 
व्याकुल हैं अनुभूतियाँ हमारी ।।

काश कि तुम 
बनते हम कदम 
देते आत्मबल
बढ़ाते मनोबल 
मैं भी कदम से कदम मिलाती 
चलती जाती 
तुम्हारी परछाईयों से इतर
इधर उधर 
नहीं भटकती 
संभाल लेती
खुद को,  तुम्हारे न होने पर भी, 
संबल बनतीं निशानियाँ तुम्हारी ।।

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल 

कुछ महिलाएं - ( महिला दिवस )

 


कुछ महिलाएं
बहनें और माताएं
देतीं जीवन भर सेवाएं
सुघड़ गृहणी कहलाएं

कुछ पढ़ी लिखी नारी
करतीं दिन भर नौकरी
साथ में घर की चाकरी
कंधे से कंधा मिला कर रहीं बराबरी

गांव की कुछ मेहरारू
कमर पे लादे मुन्ना,मुन्नी,गौरी,झबरू
संभालती खेत खलिहान,घर द्वार,इज्जत आबरू
कहलातीं धीर गंभीर गरू

एक और जात है स्त्री 
बड़ी कलाकार,हुनरमंद मिस्त्री
अदाकार अभिनेत्री
घर में बनी ठनी सावित्री

दिखती है यहाँ वहाँ वो औरत
नानी, दादी, माँ जैसी सूरत
कैसी भी हो लगती बड़ी खूबसूरत
भावों भरी ममता की मूरत

अरे हां तुम भी तो हो वनिता
विदुषी, प्राज्ञी, पुनीता
देवी,दुर्गा,गौरा,सीता
धारण करती रामायण और गीता

सुंदर गंभीर रमणी
त्याग,दया,क्षमा,करुणा की जननी
नहीं चाहिए हीरे मोती और मणी
अपने में खुश जीवन मुल्यो की धनी

महान देश की महान सबलाएं
कही गईं अबलाएं
पर घर से रण तक अपनी प्रतिभा दिखलाएं
उनके आगे नतमस्तक हो, हम शीश नवाएं
 
सभी को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
*************************

**जिज्ञासा सिंह**

चिट्ठियाँ (माँ की धरोहर )

माँ के बक्से में रक्खी हुई चिट्ठियाँ
लाल कपड़े में लिपटी हुई चिट्ठियाँ

कौन, क्यूं, किसको, कब, क्या, हुआ है यहाँ 
नीली स्याही से रच रच लिखीं चिट्ठियाँ

पोस्टकार्ड भी है और लिफाफा भी है 
अंतर्देशी में सुख दुख भरी चिट्ठियाँ

आज मुन्नू गया, छुटकी कल जाएगी
सबका कॉलेज खुला कह रहीं चिट्ठियाँ

इसकी शादी हुई उसका गौना हुआ
रज्जो भाभी के बेटी हुई चिट्ठियाँ

कल थी मन्नो की शादी बड़ी धूम थी 
बड़ा सुन्दर है दूल्हा कहें चिट्ठियाँ

फूल मंडप सजा जयमाला हुआ
आए चालिस बराती सजे चिट्ठियाँ

खूब खाए सभी खूब गाए सभी
बैंड फ़ौजी ले आए नचें चिट्ठियाँ

चाचा रंगून हैं ताऊ दफ्तर गए
पापा आऐंगे, धीरज बने चिट्ठियाँ

दादी काशी गईं फिर अयोध्या गईं
तुमको पायल हैं लाईं बजें चिट्ठियाँ

जब से लौटी हैं तब से ही बीमार हैं
रात दिन याद करतीं तुम्हें चिट्ठियाँ

देखो रोना नहीं, तुम समझदार हो
माँ की सीखों से पूरी रचीं चिट्ठियाँ

दुनिया छोड़े हुए माँ को बीते बरस
हाय कैसे संभाली रखीं चिट्ठियाँ

इनमे शोखी भी है और श्रृंगार भी 
त्याग, संयम औ भावों भरी चिट्ठियाँ

मन है भावुक बहुत माँ तेरी याद में
अब तो जाती नहीं हैं कहीं चिट्ठियाँ

वरना लिखती मैं तुमको मनोवेदना
स्वर्ग में भेज देती कई चिट्ठियाँ

**जिज्ञासा सिंह**

सूखे तालाब की व्यथा (प्रदूषण)

गहरा अगाध,अपार हूँ मैं 
असीमित विस्तार हूँ मैं
पुराना, बूढ़ा तालाब 
अपने गाँव का पहरेदार हूँ मैं 

कोई घुस नहीं सकता यहाँ मेरे डर से 
मेरी विशाल भुजाओं व विस्तृत उदर से 
भय खाते हैं सभी मेरी मिसालों से 
अपने गाँव पे मर मिटने को तैयार हूँ मैं 

मेरे गर्भ में भरा अकूत खजाना रहा 
मेरे सीने पे लोगों का आना जाना रहा 
कईयों ने स्पर्धा जीती है मेरी छाती पर
उन खुशियों का हिस्सेदार हूँ मैं

डूबते का सहारा बना हूँ मैं
बूढे दरख्तों का थामता तना हूँ मैं
तिनका भी नहीं डूबा जहाँ
कश्ती कश्ती संभालता मझधार हूँ मैं

कई उद्योग पनपते रहे हैं मुझमे
जीव जंतु भी खेले मेरे आँगन में 
सीप घोंघों के घर गूंजी किलकारी यहाँ 
मछलियों और कछुओं का परिवार हूँ मैं 

ये बात कही जो वो तो मेरे कल की है
 बताते हुए दिल आज विह्वल भी है
लूटकर खत्म कर दिया मुझको जिसने 
लगा उनका कर्जदार हूँ मैं 

सूखता जा रहा हूँ मैं जब से
छूटते जा रहे हैं सब मुझसे
छिछला हो गया हूँ सिकुड़ सिकुड़ के अब
पहले जैसा न रहा रौबदार हूँ मैं 

सोचता हूँ सबको, फिर से बना लूँ अपना
काश कि मेरा पूरा हो जाए ये सपना
अब तो बस याद उनकी बाकी है
जिन्हें लगता था कि उनका संसार हूँ मैं 

**जिज्ञासा सिंह**