बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ (एक माँ का दर्द )



क्या पढ़ायें ? कैसे  बचायें ? बेटी,

एक माँ कह रही है ।

 जब सरेआम कॉलेज में पढ़ रही ,

 बेटी पे गोली चल रही है ।।


कोई कहता है बेटी सिर पर भार है ,

पर मैंने तो उसे बेटे से भी बढ़कर पाला ।

हर रास्ते सुगम बनाए ,बहादुरी से जीना सिखाया ,

हर डगर पर , हर मोड़ पर  सम्भाला ।।

फिर किस खता की सजा,  

मेरी हर मासूम बेटियों को मिल रही है ?

क्या पढ़ाएं ...?


वह जब दुनिया में आई ,

तो कईयों ने मुँह बनाया ।

पर मैंने कहा मेरे घर लक्ष्मी आई है ,

उसे देख मेरा मन हर पल ,हर बार खुशी से मुस्कुराया ।।

लगता है नन्ही परी पायल पहने अभी भी ,

मेरे आँगन में छन्न छन्न चल रही है ।

क्या पढ़ाएं...?


वह नन्हें कदम कब अपने रास्ते ,

तय करने लगे पता ही नहीं चला ?

वह बढ़ती रही आगे बना के ,

हर विषमताओं से जरूरी फासला ।।

जाना ही नहीं मेरी लाड़ली किन मुश्किलों से गुज़र ?

जालिम दुनिया से लड़ रही है ।

क्या पढ़ाएं...?


लड़ते लड़ते आततायियों से, 

शहीद हो गई वो आखिर में ।

सरेराह भीड़ के बीच ,

मारी गई गोली सिर में ।।

मेरी तो चली गई इस जहान से ,औरों की तो बचाओ, 

जाने कितनी ललनायें इसी दहशत में पल रही हैं ।

क्या पढ़ाएं...?


ये जानती कि वो अब लौटेगी नहीं घर  ,

तो छुपा लेती उसे आंचल में अपने ।

बच जाती वो और ममता मेरी ,

टूट भले जाते उसके सपने ।।

उसके सपनों की दुनिया सजाने के बदले ,

आज हमारी दुनिया धू-धू कर जल रही है ।

क्या पढ़ाएं...?


जिज्ञासा सिंह  

बुढ़ापे का साया



 मैं बुढ़ापे का साया हूँ         


तुम्हारे लहू में बहता हुआ 

हड्डियों में दौड़ता हुआ 

हर साँस में समाया हूँ

मैं बुढ़ापे का...


राज़ की अनगिनत बात है मुझमें

कई पीढ़ियों के ख़यालात हैं मुझमें

सब कुछ अपने  काँधे पर ढोता आया हूँ

मैं बुढ़ापे का...


कुछ पूरे हुए कुछ अधूरे रहे सपने

कुछ हुए पराए कुछ मिले अपने

हर बात उँगलियों के पोर पे गिनता आया हूँ

मैं बुढ़ापे का...


बस कुछ तारीख़ का फ़ासला है ये 

पहली से अंतिम सीढ़ी का सिलसिला है ये

जिसे दबे क़दमों से निभाता आया हूँ

मैं बुढ़ापे का...


याद है मुझे जीवन की हर उमंग

चला जाऊँगा मित्र तुम्हारे संग

बचपन से आज तक तुझमें समाता आया हूँ

मैं बुढ़ापे का...


 **जिज्ञासा**


अपना अपना संतोष (सीख)

चित्र-साभार गूगल 

कुछ मिट्टी कुछ जल

थोड़ी सी हरियाली

चले बसाने अंतरिक्ष में 

एक दुनिया निराली


सोचा कामवाली को ले लूँ 

करेगी सारा काम

अंतरिक्ष में रहेगा आराम


बर्तन वाली से पूँछा 

वो बोली  बाबा 

मुझे नहीं जाना


पोंछे वाली को समझाया

उसने कुछ ऐसा पाठ पढ़ाया


बोली मकान नम्बर ३६वाले साहब बीमार हैं

मेमसाहिब चलने में लाचार हैं


१६नंबर वाली गईं है विदेश

छोड़कर पूरे घर का लफड़ा

साहब आफिस जाएँगे

कौन करेगा खाना बर्तन कपड़ा


आप तो जानती हैं

साक्षी मेमसाब टीचर हैं

और तो और अपना तो

ससुरा खसम भी बड़ा शनीचर है


मारता पीटता ज़रूर है

पर उसे जीने का नहीं सऊर है

पिएगा पिलाएगा

मछरियाँ लेके आएगा


कौन बनाएगा मेमसाब

आपके साहब..आपके साहब

तो आपके साथ ही जाएँगे

उहीं नई दुनिया बसाएँगे


लड़का बच्चा उहीं पढ़ेंगे

उहीं बियाह होगा

अपना तो सब कुछ इहीं है

मेमसाहब अपना तो इहीं निबाह होगा


**जिज्ञासा**

प्रेम का दिया

                                  

प्रेम अनंत अगाध सभी से करना होगा

मन में भरा विषाद ख़त्म तो करना होगा


प्रेम का दिया अलौकिक

तम को सदा मिटाता

बिन आदान प्रदान 

प्रेम घटता है जाता

इसे प्रचंड प्रखर फिर करना होगा ।

मन में भरा विषाद खत्म तो करना होगा ।।


बिन शर्तों का प्रेम

सदा आनन्दित करता

हो उन्मुक्त अपरिचित को भी

परिचित करता

प्रेम से हर प्राणी को वश में करना होगा ।

मन में भरा विषाद खत्म तो करना होगा।।


प्रेम हृदय में जब 

घर कर जाता है

जल थल नभ सब 

सुन्दर दिखने लग जाता है

द्वेष दूर अपनों से हमको करना होगा ।

मन में भरा विषाद खत्म तो करना होगा।।


प्रेम करेअपराध मुक्त

मानव के मन को

प्रेम वृद्ध में लौटा दे 

बचपन यौवन को

हमें सभी को प्रेम के रंग में रंगना होगा ।

मन में भरा विषाद खत्म तो करना होगा 


  **जिज्ञासा**

श्रीराम का अयोध्या आगमन

    


हर्ष है अतिरेक हर्ष ।

  रामलला आयेंगे देने फिर हमें दर्श ।। 

हर्ष है अतिरेक हर्ष  

बेला गुलाब खिलेतुलसी की मंजरी  

उपवन वन झूम रहेकुसमित है अवधपुरी ।। 

फूलों की लड़ियाँ हैं बिछी हुई राहों में

आतुर है सृष्टि भी करने को पदस्पर्श  

हर्ष है अतिरेक हर्ष ।।
 
 कल कल बह सरयू नदीकहती रघुनंदन से  

धोऊँगी आज चरण प्रभु अपने अँसुअन से ।। 

मलिनता का शाप लिए बहती रही युग युग से

कर लो प्रभु स्नान हो जाए उत्कर्ष   

हर्ष है अतिरेक हर्ष ।। 
 

दर्शन को व्याकुल हैं,नयन नहीं धरें धीर  

कण कण में बसे फिर भीदिखें नहीं रघुवीर ।। 

हिय में उतारने की बेला को आने में

बीते कई कालखंड बीते विगत कई वर्ष  

हर्ष है अतिरेक हर्ष ।।
 
ढोलक पे पड़ी थाप बज उठे मंजीरा भी  

तुलसी धुन गूंज रही गाएं भजन मीरा भी ।। 

रामधुन गा गा के नृत्य करें नर नारी

भूल गए दशकों से किए गए संघर्ष  

हर्ष है अतिरेक हर्ष ।।  
 

रामराज फिर होगा आस जगी है मन में  

फैलेगा उजियारा जन जन के आंगन में ।। 

कंचन सिंहासन पे बैठे हैं रामसिया

हाथ जोड़े खड़े भक्त करने को अनुकर्ष   

हर्ष है अतिरेक हर्ष ।।

          

 **जिज्ञासा सिंह**

आज़ाद हुई मैं

चित्र साभार गूगल 

आज़ पहली बार आज़ाद हुई मैं
 
चली हूँ अपनी चाल जैसे ही
वो कहते हैं अब तो बर्बाद हुई मैं 
 उड़ रहे हैं पंख अब हवाओं में 
परिंदों का परवाज़ हुई मैं 

रोके कोई बेशक मुझे अब भी 
रुकेगी न उड़ान मेरी यारों 
साथ देंगे जमीं आसमाँ मेरा 
जोड़ करके सजा लूँगी मैं टूटे तारों 

देख लेना मुझे तुम आज़मा के 
अब न टूटेंगे ख़्वाब मेरे फिर 
कौन कहता है सज नहीं सकता
हीरे मोती का ताज मेरे सिर

बन भी जाए गर रहगुजर कोई
तो आसमां भी थाम लेंगे हम
मिला न साथ तो भी कोई बात नही
राह कांटों में भी अपनी निकाल लेंगे हम

यही वो बात है मुझमें जो
सबसे जुदा करती है मुझको
आसमां में भी एक सुराख
जो दिखा सकती है सबको

कभी अनजान थी मैं अपने और तुम्हारे से
अब परिचय की नहीं मोहताज मैं
रख दिया है कदम मैंने पहली सीढ़ी पे
देखना हो के रहूंगी अब से कामयाब मैं

**जिज्ञासा सिंह**

धागे का वजूद


धागा हूँ मैं या बिलकुल धागे जैसी,

ताउम्र मोतियों को पिरोया मैंने


अस्तित्व को अपने छिपा लिया ख़ुद से ही,

चल पड़ी मोती की माला बनने


गुजरती रही सिर झुकाए,

पिसती रही मोतियों के भीतर


हज़ार बार दबकर के,

तैयार हुई माला बनकर


झूम उठा ख़ुशी से एक एक मोती,

गले पड़ी सुंदरी के माला ज्यों ही


मोती की महिमा है दूर तलक फैली,

मिट गया वजूद धागे का यों ही


   **जिज्ञासा**