कुछ तो नवीन करना है

करें कुछ नव सृजन, नव वर्ष में प्रण आज लेकर हम ।
वो धरती से जुड़ा, नभ से हो या हो प्रकृति का संगम ।।

राष्ट्र का हर मनुज गर, एक दो प्रण ले ले जीवन में ।
जगत कल्याण होगा, ठान ले सद्कर्म कुछ मन में ।।

कड़ी से ही कड़ी जुड़कर, बड़ी जंजीर बनती है ।
मनुज की एकता से राष्ट्र, की तकदीर खुलती है ।।

सदा ही मार्ग रोकेंगे, प्रथम पग पर ही कुछ अपने ।
मसलकर रौंद डालेंगे, वो कुसुमित हो रहे सपने ।।

डालकर बीज कटुता का, वो कांटे ही उगाएँगे ।
सुगम राहें कठिन करके, सदा रोड़ा लगाएँगे ।।

मगर बंजर में हरियाली, जो लाए वो मनुज विजयी ।
काटकर प्रस्तरों को राह, दिखलाए सदा सुजयी ।।

विकट स्थिति से वो, स्थिति बनाना ही हमें होगा ।
धरा को आज दोहन, से बचाना ही हमें होगा ।।

धरा की प्राणवायु, प्रकृति की सेवा हमें करनी ।
सुशोभित, पल्लवित, कुसुमित सदा दिखती रहे धरनी ।।

सहेजें पोखरों को और, नदियों को करें निर्मल ।
लगाएँ पौध की क्यारी, खिलें कलियाँ सरस कोमल ।।

जलाएँ एक दीपक और, उजियारा गगन तक हो ।
चाँद पर देश अपना हो, सदा ऊँचा ये मस्तक हो ।।

**जिज्ञासा सिंह**

अहम का भाव और मैं


कुछ तो वादा होगा मेरा खुद से ।
खुदगर्जी आच्छादित दर्पी बेखुद से ।।

ऐसे कहाँ बदलती है तल्खी औ तेवर ।
पहने अक्स निहारूँ आभाओं के जेवर ।।
डर ही जाती दिखते दर्पण के ही बुत से ।

ये कैसा है रूप मेरा मुझसे ही निर्मित ।
किन किन मणियों से है दिखता अहम सुशोभित ।
सीधी सरल कुछेक कई हैं अद्भुत से ।।

निरत सदा बहती जो धारा खुद के रस की ।
गर्म सर्द या तीखी, बहे नहीं मधुरस सी । 
यही सोच खटपट करती सुधबुध से ।।

जो पनपा वो बीज जटिल बोझिल कर्कश सा ।
करता वही विनाश, वही विपरीत है आशा ।
छोड़े न जो द्वार हृदय का, लड़े बुद्ध से ।।

मैं से आगे करेगा तू क्या मानव कुछ नव युग में ?
वर दे खुद को करे उजाला दिव्यज्योति का मग में ।
इस नव वर्ष "रहा ये वादा मेरा".. मुझसे ।।

**जिज्ञासा सिंह**

कंपकंपाती ठंड ( वर्ण पिरामिड )

ये
ठंड
कहर
ठिठुरन
तन बदन
जलाएँ अलाव
हो सर्दी से बचाव ।।

वो  
सर्दी
पीड़ित
धनहीन
छत विहीन
वृद्धावस्था धारे
हैं काँपते बेचारे ।।

दें
दर्द
सर्दियाँ 
जाड़ा जूड़ी
मुई निगोड़ी
कंबख्त जालिम
ओढ़वा दे जाज़िम ।।

वो
सर्द
हवाएँ 
कंपवाएँ 
दाँत औ धुजा
खत्म करें मजा
ठंड दे रही सजा ।।

रे
नर 
ओढ़ना
औ बिछौना
रजाई कम्मर
बैठ ओढ़कर
मरेगा ठिठुरकर ।।

पी
चाय
तुलसी
गर्मागर्म
शक्ति आयाम
भेदे ठंड हाड 
पेय है रामबाण ।।

**जिज्ञासा सिंह**

तू भ्रमर है

तू भ्रमर है, गुनगुनाता हर सुमन पर ।
सुमन भी खुश होके मुस्काता नयन भर ।।

पंखुड़ी जब देखती तेरी उड़ाने,
फड़फड़ाकर लगती वो भी पर फुलाने,
शनै-शनै: खिल वो जाती फूल बनकर ।।

हर खिले पुष्पों को तू है चूमता,
पा सुगन्धित आवरण तू झूमता,
बैठता आगोश में फूलों के छुप कर ।।

ऐ भ्रमर तू भाग्यशाली नाज़ कर ले,
इस चमन की हर कली पर राज कर ले,
डूब जा खुशबू में तू मदहोश होकर।।

हर कली एक फूल बनकर ही झड़ेगी,
उम्र की सीमा को जब वो तय करेंगी,
सिकुड़ कर लटकेगी अपनी डाल पर ।।

तू भ्रमर है, कोई उपवन ढूँढ लेगा,
आज इसका कल किसी दूजे का होगा,
फूल मुरझाएँगे देखेंगे तरसकर ।।

है यही जीवन, यही है सार जीवन,
हैं जभी तक देख ले भर के नयन,
कौन जाने कब हो जीना यूँ बिछुड़कर ।।

**जिज्ञासा सिंह**

उड़ने का आज मन है


उड़ती पतंग सी मैं ।
फूलों के रंग सी मैं ।।
उड़ जाऊँ आसमाँ तक ।
खिल जाऊँ बागबाँ तक ।।

सातों ही रंग मुझमें ।
जो इंद्रधनुष तुझमें ।।
तू बादलों पे छाए ।
पर मुझको ले न जाए ।

मैं हूँ बड़ी सुकोमल ।
नाजुक बड़ी मैं चंचल ।।
ले डोर का सहारा ।
देखूँ मैं जग ये सारा ।।

बस डोर थामना तू ।
है मेरी कामना तू ।।
तू है तो मैं हूँ ऊँची ।
तुझसे गगन पे पहुँची ।।

तूने दिया सहारा ।
तब स्वयं को सँवारा ।।
ये बंधनों का खेला ।
तुझसे ही मेरा मेला ।।

मेले में खेल सौ हैं ।
हम खेलते ही वो हैं ।।
कुछ खेल हैं निराले ।
वो खेलने हैं वाले ।।

रंगों भरी पतंगें 
देती हैं उड़ उमंगें 
उड़ने का आज मन है।
बहती सुखद पवन है ।।

पकड़ो न डोर मेरी ।
औ मैं लगाऊँ फेरी ।।
धरती से आसमाँ की ।
ब्रम्हाण्ड की, जहाँ की ।।

मेरा सभी से नाता ।
अब बंध न सुहाता ।।
सब बंध्य तोड़ती मैं ।
उड़ती पतंग सी मैं ।।

**जिज्ञासा सिंह**

विभूति एक आत्मा ( गीता जयंती विशेष )

व्योम के गर्भ से प्रकाश एक प्रकट हुआ ,
हर तरफ अरुणिमा की कांति बिखर गई ।
रोम रोम छिद्र छिद्र सुधा रस भर गया ,
अक्षि समुख निर्मल तरंगिनी सी बह गई ।।

धार एक फूटकर वायु में ज्यों मिली ,
सुप्त सी धमनियों में श्वांस दौड़ने लगी ।
दान में मिली हुई विभूतियों में आत्मा , 
बुद्धि और शक्ति को तुला में तौलने लगी ।।

बुद्धि का विकास और शक्तियों का संतुलन, 
मानव की श्रेष्ठता को शिखर तलक ले गया ।
शीर्ष पर विराजमान देखता वो स्वयं को ,
चिन्तना का अमृत तो दूर ही छिटक गया ।।

अंतक्षण में व्याकुल निकलने को प्राण है,
पकड़ धमनियों को श्वांस खुद को रोकने लगी ।
घर्षणा की पीड़ा से व्याकुल है आज मन ,
प्राणवायु थककर के हाथ जोड़ने लगी ।।

एक बार, एक बार कहने लगा एक बार ,
अब तो मिल लेने दो, उनसे बस एक बार ।
जान नहीं पाया हूँ, मिल भी नहीं पाया हूँ  ,
देख नहीं पाया हूँ जिनको मै एक बार ।।

मिलने को उत्सुक है, चंचल अधीर जीव, 
त्रस्त, संत्रस्त, अपत्रस्त हुआ जाता है ।
अब किस की देहरी पे शीश मैं झुकाऊँ जाके ,
पूरा ब्रम्हाण्ड आज शून्य नज़र आता है ।।

समझ नहीं पाया मैं महिमा अपार कोटि ,
जिनके ही छाँव तले जन्मा था जीव ये ।
जिनके ही हाथों में जीवन कठपुतली था , 
जिनके ही हाथ पड़ी सृष्टि की नींव ये ।।

एक क्षण एक घड़ी एक पल का जीवन ये , 
और मैं सहस्रों में खुद को जोड़ता रहा । 
आज उसी एक पल को शाश्वत बनाना है ,
जिस पल को आजीवन मैं हूँ छोड़ता रहा ।।

गगन दुंदुभी बजी कोलाहल थम गया ,
अभ्यागत चल पड़े अर्चना के सुर सुन के ।
देख कर विराट छवि,  नैनों की ज्योति जगी, 
जोड़ लिए कर दोनो , बैठ गया चरणनन के ।।

कुछ तो अधूरा है कुछ है सम्पूर्ण आज , 
मन में अपार शक्ति गहन मंत्रणा में लीन ।।
देख लो वो आ गए हैं चल कर के द्वार मेरे ,
आज मुझे होना है उनमें ही खुद विलीन ।।

**जिज्ञासा सिंह** 

मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा


मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा, 
तेरा उपवन खूब संवारा ।
हर दर्द अकेले सहता जाऊँ, 
पीड़ा से कभी नहीं हारा ।।

मैं कानन में खिल जाऊँ ।
आँगन की शोभा बढ़ाऊँ ।।
मैं खिलता रहा हूँ काँटों संग ।
कभी लाल कभी बासंती रंग ।।
 जग जाता मुझ पर वारा..
 मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..

कोई समझ न पाए मेरी पीड़ा ।
मैं कैसे धरूँ मन धीरा ।।
जब कंटक मुझको डसते हैं ।
मेरे रोम रोम में छिदते हैं ।
 दुःख सहके रूप संवारा.. 
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..

कोई माला बनाए कोई लड़ियाँ ।
कोई गुच्छ सजाए कोई कलियाँ ।।
मैं मंदिर में सज जाता जब ।
फिर भी मैं नहीं इतराता तब ।।
जब देवों की बन जाऊँ माला.. 
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..

एक दिन तो जाना सभी को ।
है मुरझाना मुझ भी को ।।
फिर क्यों न किसी का बन जाऊँ ।  
वीर फौजी के शीश चढ़ जाऊँ ।।
जिसने देश पे सब कुछ वारा.. 
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..

**जिज्ञासा सिंह**

विधि की लिखी

छमाछम बाँधकर पैरों में पायल, विपत्ति आ है जाती । 
हमारे शीश चढ़कर गीत, कुछ यूँ गुनगुनाती ।।

कि ढूढूँ मार्ग मैं कि वो आ गई है कब किधर से,
वो दरम्याने खड़ी उस मार्ग की रेखा मिटा जाती ।।

वो आती तो बड़ी चुप, शांत और गंभीर सी दिखती,
मगर मीठी छुरी की नोंक हमको है चुभाती ।।

कभी वो ऐसे आती कि धमाका शहर में होता,
कि ज्वाला की लपट आँगन में मेरे आग बरसाती ।।

धड़ाधड़ उखड़ जाती जिंदगी की वो मिनारें,
है जिनकी नींव भी पाताल के नीचे रखी जाती ।।

अरे हम समझ पाते जिंदगी के खेल मतवाले,
धरा पर पाँव पड़ते ही सजग तंद्रा ये हो जाती ।।

ये सुंदर रेशमी नींदों को रखते बंद डिबिया में,
तौलकर स्वयं को चलते समझ की राह खुल जाती ।।

मगर मानव हूँ कैसे जान लूँ उसकी लिखी क्या है ?
वही होगा जो विधना की कलम की नोंक लिख जाती ।।

विपत्ति या मुसीबत कब किसे बतला के आई है,
अजब मेहमाँ है वो जो बिन बुलाए द्वार मुस्काती ।।

 **जिज्ञासा सिंह**

शहीदों को शत शत नमन !

वतन के वास्ते ऐ जाने वाले,
तुझे मैं एक सलामी दे रही हूँ ।

मेरी हिम्मत, मेरी ताकत, सभी कुछ है तुम्हीं से,
झुका मस्तक तेरे चरणों में गर्वित हो रही हूँ ।।

है टूटा मन और खंडित तार, हर दिल का मेरे भी,
तुम्हें मैं भावना के पुष्प अर्पित कर रही हूँ ।।

जो आँसू गर्व और अभिमान, के निकले मेरे भाई,
वो गंगा जल सी निर्मल धार प्रवहित कर रही हूँ ।।

है दीपक की हर इक ज्योति, तुम्हारी कर्म परिचायक,
मैं दीपों से सुशोभित थाल प्रजलित कर रही हूँ ।।

रहोगे तुम सदा बहते, लहू बन धार धमनी में,
मैं अपनी साँस भी तुमको तिरोहित कर रही हूँ।।

करूँ क्या मैं तुम्हें कुछ, दे नहीं सकती मेरे सैनिक,
ये जीवन, आत्मबल, संबल समर्पित कर रही हूँ ।।

**जिज्ञासा सिंह**

मेरा तो अनुराग धरा से

हर कण कण में, हर इक क्षण में,
द्रुम द्रख्तों का दिखे अवतरण ।
घर्षण की चिंगारी से,
निकले नव अंकुरित किरण ।।

वो अनुरागिनि बैठ धरा पर
शत शत दीप जलाय रही ।
बीज कुबीज लिए आँचल में
मरु सी भूमि सजाय रही ।।
बारंबार गिरे धरणी पर 
सह डाले अगणित अंधड़ ।।

सागर की कल कल छल छल
के आगे भीख माँगती है वो ।
दे दो हे रत्नाकर बूँदें
देती तुमको है बरखा जो ।।
आँख मूँद कर, अपने हाथों
करती बस धरती का पोषण ।।

आएगी इक दिन तो हरितिमा
पहने पातों की चुनरी ।
लाखों व्यवधानों से लड़कर
रक्खी झोली सदा भरी ।
बाधाओं से हर पग में वो
जीत रही है निशदिन रण ।।

चीर वक्ष काली रैना का
अरुणोदय प्राची रसरंग ।
धरनी का श्रृंगार किया 
ले इंद्रधनुष के सातों रंग ।।
ये आशा है, जिज्ञासा है
ये उसके जीवन का प्रण।।

**जिज्ञासा सिंह**

मन का पिंजर

मन को मत कर बंद राही पिंजर में ।
डूब जाएगा तू यहाँ समंदर में ।

और गहरे, और गहरे डूबता जाएगा है तू ।
जीवन सागर है यहाँ की चाबियाँ पाएगा न तू ।।
फँस जाएगा जीवन के हर मंजर में ।
मन को मत कर बंद राही पिंजर में ।।

मन के दरवाजे, सीकचे ढीले कर ।
हर अंधेरे बाद होती एक सहर ।।
हैं सभी फंसते यहाँ बवंडर में ।
मन को मत कर बंद राही पिंजर में ।।

धोखा मिलता है सभी को राह में ।
काटने जो बैठे गर्दन चाह में ।।
है लगाए खून घूमें खंजर में ।
मन को मत कर बंद राही पिंजर में ।।

जिंदगी संघर्ष है तू मान ले ये ।
हर बला है भागती गर ठान ले ये ।।
उग है जाती हरियाली भी बंजर में ।
मन को मत कर बंद राही पिंजर में ।।

**जिज्ञासा सिंह**

विश्वासघात

दर्द में डूबी हुई अनमोल रातें

क्या कहूँ उन आँसुओं का
चक्षु के कोरों से निकले 
कान तक जो बह गए
भीगे हुए केशों की बातें 
दर्द में डूबी हुई अनमोल रातें ।।

बेशरम से हो गए मेरे अधर भी
हैं लबों का मोल भी क्या
होंठ भी कुछ बुदबुदाते थरथराते
आस की पीड़ा में नीले पड़ से जाते 
दर्द में डूबी हुई अनमोल रातें ।।

रात हैं दिन, दिन भी रातें
है समय क्या ? क्या घड़ी है
कौन हूँ किसको पड़ी है
रोर सा दिल में मचलता
और कहानी कहती घातें
दर्द में डूबी हुई अनमोल रातें ।।

है विषम सम का विषय ये
द्वार पर मेरे खड़ा जो
रत अनर्गत चुभ रही है 
एक कली कंटक के जैसे
उसपे भौरा गीत गाते
दर्द में डूबी हुई अनमोल रातें ।।

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र गूगल से साभार