चाय की वो चुस्कियाँ
वो खड़े थे मैं खड़ी थी,
आँख धरती पर गड़ी थी।
भाव अधरों पर थिरककर,
काढ़ते थे मुस्कियाँ।
याद अब भी आ ही जातीं
चाय की वो चुस्कियाँ॥
हैं गुलाबी गाल मेरे,
कनखियों के वे चितेरे।
चुस्कियों में यूँ घिरे ज्यों,
घिर गए बादल घनेरे॥
चाय में रस बदलियों का
गिर रही थीं बिजलियाँ॥
बीतते जाते रहे पल,
चाय छलकी जा रही छल।
उस छलक का इस छलक में,
बह चला था ताप अविरल॥
जलती एल्युमिनियम पतीली,
साथ चिपकीं पत्तियाँ॥
हाथ हाथों में सिमटकर,
कदम कदमों संग चलकर।
चाय के ठेले से हटके,
हम खड़े थे अग्निपथ पर।
चाय की वो चुस्कियाँ,
अब बन चुकी थीं सुर्ख़ियाँ॥
जिज्ञासा सिंह