प्रीत की धुन


पिया तोहे नैनन आज बसाऊँ


ऐसी रुत ने अगन लगाई

प्रीत की धुन में है बौराई 

जल स्वाहा हो जाऊँ 

पिया तोहे नैनन आज बसाऊँ


आज अधर मोरे कुसुम खिले हैं,

मधुमय होकर भ्रमर मिले हैं 

मैं प्यासी रह जाऊँ...

पिया तोहे नैनन आज बसाऊँ


अँखियन मोरे घटा घिरी है 

नीर भरी जैसे बदरी है 

छलक छलक रह जाऊँ

पिया तोहे नैनन आज बसाऊँ


आकुल तन मोरा व्याकुल मन है 

तुम बिन सूना ये जीवन है 

कैसे धीर धराऊँ 

पिया तोहे नैनन आज बसाऊँ


आओ सजन मोरी प्रीत बुझाओ 

एक झलक मोहे आज दिखाओ 

डूब डूब इतराऊँ 

पिया तोहे नैनन आज बसाऊँ


क्षण बीते जैसे बीत रहा युग

साथ तुम्हारा चाहूँ पग पग

आओ हृदय बसाऊँ

पिया तोहे नैनन आज बसाऊँ 


**जिज्ञासा सिंह**

किराए पे लड़की


पड़ोसन के घर में किराए पे लड़की ।
वो रहती है ऊपर सदा खोल खिड़की ।।

वो आई तो झोले में कपड़ा थी लाई,
थे माँ बाप संग में, बहन और भाई ।
किया सब जतन ख़ूब घर को सजाया,
बहुत आगे करनी है उसको पढ़ाई ।।

इसी से शहर के बड़े ढूंढे कॉलेज,
करा दाखिला और ये कमरा दिलाया ।
लगी झाँकने जब मैं उनकी वो खिड़की,
तो लड़की की माँ ने मुझे ये बताया ।।

पढ़ेगी, लिखेगी ये अफसर बनेगी,
हमारे भी दिन यूँ बहुर जाएँगे जी ।
हटेगी गरीबी, छोड़ गाँव अपना,
शहर में ही आकर के बस जाएँगे ही ।।

जरा देखिएगा ये लाडो है मेरी,
आठ भाई बहनों में सबसे बड़ी ये ।
खुशी हमको होगी उसी दिन बहन जी,
ये होगी जो अपने ही पैरों खड़ी ये ।।

यही सोचकर मैंने कर्जा उठाया,
कि बड़की पढ़ेगी तो सातों पढ़ेंगे ।
जो सातों पढ़ेंगे तो निश्चित है एकदिन,
कि माँ बाप के दिन भी निश्चित फिरेंगे ।।

सुनी बात माँ की और मैने भी हाँ में,
हिलाया जो सिर तो वो अब तक है दुखता ।।
गए ज्यों ही माँ बाप बेटी के घर से,
तो पढ़ने में जी उसका कुछ दिन ही लगता ।।

कि दिन बीस बीते महीना ही बीता,
औ बेटी ने मित्रों की फौज बनाई ।
लगी घूमने वो शहर कोना कोना,
है डीपी में फोटो की बौछार आई ।।

बगल में मेरे ख़ूब हलचल मची है, 
औ बेटी के पाँव जमी पे नहीं हैं ।
पड़ोसन तो रहतीं हैं दूजे शहर में,  
यहाँ शाम को पार्टी चल रही है ।।

मेरे मन में छाया है माँ का वो चेहरा, 
औ उम्मीद धुँधली हुई दिख रही है ।
थी बंदिश में बेटी की जो सारी ख्वाहिश, 
खुले पंख से आसमाँ उड़ रही है ।।

पढ़ेगी वो क्या ? ये शहर के उजाले, 
चकाचौंध उसको किए जा रहे हैं ।
करज में हैं डूबे जो माँ बाप इसके, 
मुझे भी परेशाँ किए जा रहे हैं ।।

यही मैं नियत देखती आ रही हूँ, 
कि गाँवों की प्रतिभा शहर ज्यों ही आती ।
ये झिलमिल सी दुनिया औ रंगी दीवारें, 
उसे नित भरम में डुबोती है जाती ।।

अतः ऐसे परिवार से है निवेदन, 
कि बच्चों को अपने शहर यूँ न भेजें ।
है जो कुछ भी सुविधा उसी के ही द्वारा, 
भविष्य संवारें औ आज सहेजें ।।

वरन एक दिन न तो ये बच्चे बनेंगे, 
न जीवन प्रगति का ही आधार होगा ।
बिगड़ जाएगी इस जमाने में संतति, 
जो बच्चे के संग में न परिवार होगा।।

**जिज्ञासा सिंह**

चाँद और तुम...कहमुकरियाँ


आधा गोरा आधा काला 
रूप बदलता गड़बड़झाला
मुझे देख मुस्काता मंद
क्या सखि साजन ? ना सखि चंद ।।

सुन्दर मुंदर गोल मटोल
आया चार दिशाएँ डोल
उसे देख जाती मैं हँसि
क्या सखि साजन ? ना सखि शशि ।।

जग सोता वो तब है आता 
देख भोर एकदम छुप जाता
रातों का शैतान परिंदा
क्या सखि साजन ? ना सखि चंदा ।।

बड़ी अनोखी उसकी सज्जा
देख मुझे पर आए लज्जा
रात्रि समय करता आदाब
क्या सखि साजन ? ना महताब ।।

दिखे सदा छत पर नादान
घूमे खेत और खलिहान
भर लूँ उसको अपने अंक
क्या सखि साजन ? ना मयंक ।।

मन के भीतर है रहता वो
अक्सर सबको है दिखता जो  
 जब दिल चाहे बदले भेष
क्या सखि साजन ? ना राकेश ।।

दिखा शकल फिर गायब वो
ऐसे रोज चिढ़ाता है जो
भौहों बीच सजा वो बिंदु
क्या सखि साजन ? ना सखि इंदु ।।

**जिज्ञासा सिंह**

नभ का भूषण


देख शशि धवल मनोहर है
किरन पे बैठ रहीं परियाँ 
बाँह फैलाए अंबर है

बैठ दरिया के तट पर मैं
किरन एक ढूँढ रही तल में
अनोखी छवि सुंदर चंचल
मचाए हलचल है जल में
वो बैठा दूर गगन में भी
बुलाता मुझको सस्वर है।।

अरे कोई बाँह पकड़ मेरी
चलाचल किरणों के जग में
बिछे हैं सुमन सितारों के
सुगंधित धूप भरे रग में
पवन संग उड़ते जाते पग
दिख रहा सपनों का घर है

झरे कुमकुम रोली अच्छत
अलक श्रृंगार करे है यूँ 
बुलावा भेजा जब शशि ने
भला फिर जाऊँ न मैं क्यूँ 
क्षितिज के पास मिलन होगा
साक्षी संध्या, दिनकर है ।।

एक शशि भूषण है नभ का
एक मेरे दृग में रहता
मलय बन शीश मेरे शोभित
है हर क्षण अंग अंग बहता
कलित, रमणीक, रम्य, सुंदर 
सुशोभित जो मेरे उर है ।।

आज शशि धवल मनोहर है ।।

**जिज्ञासा सिंह**

चाँदनी रात की बरसात

आज वर्षों बाद देखी रात में बरसात मैने

थी गगन में चमकती सी चाँदनी, 
और धरा पे दीपकों की रोशनी
कड़क कर ज्यों जगमगाई दामिनी
देख ली तीनों की सुंदर सरस मुलाकात मैने
आज वर्षों बाद देखी रात में बरसात मैंने

चाँदनी ने हाल पूछा ज्यूँ बिखरकर
दीपकों ने ज्योति फैलाई जलाकर  
जगमगाती रोशनी में झर रही झिलमिल सी बूंदें
है संजोयी मन में जगती एक सुंदर आस मैंने
आज वर्षों बाद देखी रात में बरसात मैंने

कौन कहता बारिशों में चाँद गुम है
वो मेरी आँखों में ठहरा थोड़ा नम है
देखती हूँ आते जाते रूप उसका है बदलता
थाम ली हैं उँगलियाँ और रोक ली हैं साँस मैंने
आज बरसों बाद देखी रात में बरसात मैंने

**जिज्ञासा सिंह**

मत उतरो


मत उतरो ।
सोचो समझो तनिक स्वयं को,
और अभी थोड़ा ठहरो ।।

चढ़े अगर अंबर पे हो,
तो नापो उसकी आज भुजाएँ ।
चाँद, सितारे नभमंडल औ,
सप्तऋषि की गूढ़ कथाएं ।।

विचरण करते गगन भेदते,
टूटे तारों संग झरो ।।

उतर गए शशि के संग तो,
सागर से मिलते आना ।
पृथक पृथक देशों से आई,
सरिता से कुछ लेते आना ।।

वह बतलाएगी कितना कुछ,
कैसे और कब, कहाँ भरो ?

अगर कहे संग चलने को फिर,
जाना कांतार से मिलने ।
धरती हँसती वहीं मिलेगी,
इंद्र धनुष का गहना पहने ।।

मेरे पास नहीं कुछ प्यारे,
आज उन्हीं में तुम विचरो ।।

रे मन आज बड़ा व्याकुल,
अपने को ढूंढे इतर उतर ।
चढ़ी हुई हूं सबसे ऊपर,
अन्तर्मन है तितर बितर ।।

एक अरज बस एक अरज,
अपनों से ही तुम संवरो ।।

**जिज्ञासा सिंह**

नव दुर्गा: कुंडलियाँ


घिरा अंधेरा राह में, दिशा हुई अवरुद्ध ।
मन के अंदर है छिड़ा, पाप पुण्य का युद्ध ।।
पाप पुण्य का युद्ध, ले गया मुझको मंदिर ।
मां शक्ति के रूप देख, अदभुत व सुंदर ।।
गिर जिज्ञासा चरण, हरो माँ संकट मेरा ।
मातु दिखातीं मार्ग, घना जब घिरा अंधेरा ।।१।।

कर माता की अस्तुति, आसन दिया सजाय ।
पान,सुपारी,ध्वजा,नारियल, चुनरी दिया चढ़ाय ।।
चुनरी दिया चढ़ाय, बनी कुछ शोभा ऐसी ।
लगे मूर्ति आज, जगत की जननी जैसी ।।
कह जिज्ञासा आज, मातु कष्टों को लो हर ।
विनती करते भक्त, जोड़कर नित दोनों कर ।।२।।

माता रानी दे गईं, मुझको ये वरदान 
सदा रहेगा तू सुखी, ऐ बालक नादान ।।
ऐ बालक नादान, पड़े जब विपदा भारी ।
श्रद्धा और विश्वास से, सारी मुश्किल हारी ।।
कह जिज्ञासा कर्म करो, कुछ ऐसे भ्राता ।
सदा मिले आशीष, शरण लग जाओ माता ।।३।।

**जिज्ञासा सिंह**


वर्ण पिरामिड: नौ दुर्गा


माँ 
दुर्गा
कुमारी
मनोहारी
वरदायिनी
जगत जननी
सर्वदा पूजनीय ।।

नौ 
दिन
का वास
उपवास
मां आगमन
भजन कीर्तन
चरणों में नमन ।।

हे
आदि
भवानी
मातृशक्ति
असीम भक्ति
आपको अर्पण
सर्वस्व समर्पण ।।

माँ  
देवी
हैं क्षमा
नेह प्रेम 
सहृदयता
करुणा ममता 
जग की अधिष्ठाता ।। 

**जिज्ञासा सिंह**

ब्लॉग जगत में मेरा एक साल

  
      आज ये लिखते हुए मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है, कि ५ अक्टूबर को मेरे ब्लॉग का पहला जन्मदिन था, इस एक साल की यात्रा में मैंने काफी रचनाएँ डालीं, जिनमें कुछ नई लिखीं, कुछ मेरी डायरी से लेकर मैने डालीं । जिनमें १४७ कविताएँ, २५ लोकगीत और ११ कहानियाँ अभी तक प्रकाशित हैं। 
       मैंने ब्लॉग २०१७ में बनाया,पर उस पर रचनाएँ तब डालनी शुरू कीं, जब मेरी अगली पीढ़ी के कई बच्चे जो मुझसे नर्सरी से बारहवीं की, उनकी पढ़ाई के दौरान कहानी, कविता या लेख लिखवाते थे और अपने विद्यालय में पुरस्कार पाते थे, उन बच्चों ने कहना शुरू किया और मेरे खुद के बच्चे तो कोविड के दौरान मेरे पीछे ही पड़ गए ,वे दोनों तो मेरी कलम की प्रेरणा के आधार स्तंभ हैं, बेटे ने ही मेरे ब्लॉग को बनाया, बेटा तो मेरी रचनाओं का बहुत बड़ा आलोचक और मार्गदर्शक है, बेटी मेरा मन देखकर आलोचना करती है, खैर मेरे ब्लॉग लेखन की प्रेरणा मेरी अगली पीढ़ी के बच्चे हैं । 
            रही बात उस अनुभव की जो रचना पर पहली टिप्पणी का था, तो वो यशोदा दीदी के मुखारविंद से निकले कुछ शब्द थे जो आज भी मुझे प्रेरित करते हैं, उन्होंने रचना की प्रशंसा की थी, और " सांध्य दैनिक मुखरित मौन" के लिए भी चुना था,  कविता का शीर्षक था " पैसा थोड़ी हूँ मैं"  उस मनमोहनी टिप्पणी के लिए आज तक आभारी हूँ, उसने मुझे इतनी ख़ुशी दी कि उस टिप्पणी को पढ़कर ऐसा महसूस हुआ कि यशोदा दीदी को लंच या डिनर पर बुला लूँ, और कुछ लजीज़ व्यंजन अपने हाथों से परोसूँ । उनको मेरा सादर नमन है । उसी रचना पे आदरणीय जोशी जी, शान्तनु सान्याल जी, सधु चंद्र जी और शिवम् जी की टिप्पणियाँ आईं, जो मेरे लिए आज तक हर्ष का विषय हैं, फिर धीरे धीरे मेरी रचनाएँ  चर्चा मंच में भी प्रकाशित होने लगीं और आदरणीय शास्त्री जी ने मेरी कई रचनाओं को रचनाकारों तक पहुँचाया, जिसके लिए उनका कोटिशः आभार । उत्तरोत्तर सभी स्नेही ब्लॉगर साथियों ने समय समय पर अपनी सशक्त टिप्पणियों से मेरा हमेशा मनोबल बढ़ाया, उन सभी का स्नेह सदैव मिलता रहा, उनके दिए हौसले से ब्लॉग पर मेरी निरंतरता बनी रही। उन सभी की तहेदिल से आभारी हूँ, और करबद्ध धन्यवाद देती हूँ, 🙏🙏💐💐
सभी ब्लॉगर साथियों को समर्पित मेरी ये रचना :~

सबको है नमन मेरा, सबको है वंदन मेरा ।
ले पुष्पगुच्छ हाथों से, सबको है अर्पण मेरा ।।

मैं ब्लॉग जगत में आई, आशा की किरणें लेकर ।
कुछ शब्दों से ही मुझको, जो स्नेह मिला झोली भर ।
मन झूमा बना चितेरा, सबको है वंदन मेरा ।।

एक बाती थी हाथों में और उसे जलाया सबने ।
उजियारा ऐसा फैला, और लगी उंगलियाँ चलने ।।
फिर मैंने शब्द उकेरा, सबको है वंदन मेरा ।।

इस, शब्दों की नगरी में, है राज कल्पना करती ।
आभासी है ये जीवन, पर रोज प्रेरणा मिलती ।।
जैसे परिवार है मेरा, सबको है वंदन मेरा ।।

हर विषय की होती पूजा,हर पंथ यहां शोभित है ।
सबसे अनुराग अलौकिक, सबकी भाषा पूजित है ।।
हर मन का यहां बसेरा, सबको है वंदन मेरा ।।

अति चले लेखनी सबकी, और शब्द ग्रंथ बन जाए ।
ये ब्लॉग जगत की दुनिया, नित नई ऊंचाई पाए ।।
प्रभु से ये निवेदन मेरा, सबको है वंदन मेरा ।।

**जिज्ञासा सिंह**

एक दीप पूर्वजों के नाम


कुछ दीप लिए बैठी हूँ, और कुछ बाती मैं ।

कहाँ जलाऊँ, किसके आगे, कौन प्रभा को तरसे,
मन विह्वल, नैनों से आँसू, झिमिर झिमिर है बरसे,

क्यों है ऐसी दशा हृदय की, नहीं समझ पाती मैं ।।

हूक उठ रही है कुछ ऐसी,कोई दूर पुकारे,
घिरा तिमिर घनघोर विकट, वो मेरी राह निहारे,

अगन लगन एक आस लिए भागी दौड़ी जाती मैं ।।

चढ़ी हुई कुंडी द्वारे आवाज लगे भीतर से,
चकमक चारों ओर निहारूँ परिचित हूँ उस स्वर से,

खड़ी हुई हूँ देहरी पर, पर पहुँच नहीं पाती मैं ।।

खटखट करके बार बार उच्चार करे प्रिय कोई,
मिल न पाती हूँ उस स्वर से, बिलखि बिलखि मैं रोई,

विवश अधीर गिरी धरनी पर आज हुई जाती मैं

आखिर इतनी विहवलता, किसके खातिर और क्यूँ  है ?
दीपों से एक दीप माँगकर लगी जलाती हूँ मैं ।।

दीपों के उजियारे में, एक दृश्य देख पाती मैं ।।

ईश्वर नश्वर साथ खड़े सब, खड़े पूर्वज मेरे,
कर्मों की हैं गठरी लादे, जग के बड़े चितेरे,

मन को कर आधीन, चरण में गिरती लग जाती मैं ।।

**जिज्ञासा सिंह**,

दो सितारे देश के


दो सितारे जगमगाए गगन में, 
और उजाला इस जमी पर हो गया ।
महात्मा गाँधी, बहादुर लाल जैसा,
अग्रणी इस देश को था मिल गया ।।

स्वप्न में था राष्ट्र उनके बस गया,
स्वतंत्रता का भाव लेकर जागते वो ।
है हमें आजाद होना फिरंगी से,
बस दुआ दिन रात प्रभु से माँगते वो ।।

अलख थी ऐसी जगाई राष्ट्र में, 
स्वतंत्रता की जोति ले सब चल पड़े ।
स्वयं को पीछे ही रक्खा देश से,
रात दिन लड़ते रहे आगे खड़े ।।

देश है आजाद दिखता हम सभी को,
पर न दिखती पीछे की कुर्बानियाँ ।
प्राण देकर देश पर वो जा चुके हैं,
छोड़कर बलिदान की नीशानियाँ ।।

हर तरफ उनकी निशानी दिख रही,
पर विचारों का हनन करते सभी ।
नाम का उनके निरंतर जाप करते
कर्म उन जैसा नहीं करते कभी ।।

बस दिखावे के लिए ही अब सही,
उन महापुरूषों को कर लें हम नमन ।।
कर गए सरबस निछावर जो धरा को,
और सुरक्षित कर गए हैं ये वतन ।।

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र: सुनीता रामन