मैं जीवन में नित नए अनुभवों से रूबरू होती हूँ,जो मेरे अंतस से सीधे साक्षात्कार करते हैं,उसी साक्षात्कार को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है मेरा ब्लॉग, जिज्ञासा की जिज्ञासा
बालिश्त भर दुआ
गणतंत्र से प्रतिघात
छायाचित्र ( मेरे देश का गणतंत्र )
असमानता ( बालिका दिवस पर विशेष )
चाँद पर चलेंगे
नज़रिया
कुछ तो अच्छा होगा ही
नज़र बदल कर देखा
क़दम क़दम पर खड़ी मुसीबत
सुबह शाम होती है हुज्जत
मिलती नहीं किए की क़ीमत
डगर बदल कर देखा
कुछ....
लगा रहा लोगों का मेला
खेल सभी ने मुझसे खेला
बहुत तमाशा हमने झेला
नगर बदल कर देखा
कुछ....
आई आशा भेष बदलकर
अभिलाषा की चुनर ओढ़कर
खड़ी हो गई राह रोक कर
बाँह पकड़ कर देखा
कुछ....
वह बोली जीवन है कहता
दुख सुख आता जाता रहता
सब कुछ बुरा नहीं हो सकता
सोच बदल कर देखा
कुछ....
खुली आँख से जो कुछ देखा
वही बना ली जीवनरेखा
बाक़ी सब कर के अनदेखा
आगे बढ़ कर देखा
कुछ....
**जिज्ञासा**
सत्य का नेतृत्व
नेतृत्व सत्य का कठिन कर्म
कह जाता मानव हृदय मर्म
खुल जाता मन का कठिन द्वार
सच कर देता उर का श्रिंगार
फिर पैदा होता वीर पुरूष
कर लेता जो ख़ुद पर अंकुश
कोई कैसा फिर हो समक्ष?
सच कहने में जो महा दक्ष
कमज़ोर नहीं वो हो सकता
जिसमें सच कहने की क्षमता
है सत्य सदा स्पष्ट अटल
है सूक्ष्म मगर फिर भी अविरल
सच में है छुपा एक आकर्षण
कहने में होता अति घर्षण
पर होती सच की सदा विजय
खिल जाता है भय मुक्त हृदय
**जिज्ञासा**
सरहद पर तैनात सैनिकों के सम्मान में
मौन का मर्म
कोशिश और मैं
किसे पुकारूँ, किससे कहूँ मन कि बात ?
सुनते नहीं,समझते भी नहीं वो,
मिलते भी नहीं मेरे उनके ख़यालात ।।
कोशिशों ने मुझसे कहा
हाथ जोड़कर कई बार
रहने दो, अब सम्भव नहीं, तुम्हारा उनका साथ ।।
मैंने कहा ! ये कह के तुम,
मत निकालो यूँ मेरी कमी
बार बार मत करो मुझ पे यूँ आघात ।।
वैसे ही टूटी हुई हूँ चूड़ियों की तरह
फिर भी पहनी है जोड़कर
भर कलाई रंग बिरंगे कंगनों के साथ
जोड़ती रही हूँ टूटी हुई
कड़ियां उन्हीं से जिन्होंने
पग पग पर तोड़े हैं मेरे जज़्बात।।
अकेली तुम्हारा ही तो
हाथ पकड़ती रही मै
आज तुम भी छुड़ा रही हो अपने हाथ ।।
सोचो तो मेरा क्या होगा ?
तुम बिन इस जहां में
सुनो तो सही मेरी इतनी सी बात
बस तुम बनी रहना
मेरी सखी यूँ ही
मैं सम्भाल लूँगी अपनी हर मुश्किलात ।।
**जिज्ञासा सिंह**
गुंजाईशें
कृतघ्नता की हद
गली मोहल्ले के कुत्ते रोटी डालते ही
गेट पर दौड़े चले आते हैं
रात भर भौंकते हैं साथ में
पिल्ले भी कूँ कूँऽऽ चिल्लाते हैं
पीढ़ी दर पीढ़ी विराजमान हैं यहाँ
अक्सर गाड़ी से दबकर चोटिल हो जाते हैं
कई बार तो बिना इलाज
पड़े पड़े मर भी जाते है
पर जो बचते हैं वो अहसानों के तले
दबे नज़र आते हैं
वो एक रोटी का मोल
जीवन पर्यंत चुकाते चले जाते हैं
और हम इंसान किसकी कितनी रोटी खाई
ये बहुत जल्दी भूल जाते हैं
तुमने हमारे लिए क्या किया ?
कहते हुए बिलकुल नहीं शर्माते है
**जिज्ञासा**
बचपन के आँगन में
भुखमरी के आँसू
क़रीब गए तो देखा
पर, कर के अनदेखा
चले तो आए
मुँह छुपाए
पर बेचैन हैं हम
देख उनके आंसुओं का ग़म
आँसू मौत के नहीं, मर्ज़ के नहीं
जमाने के दुःख दर्द के नहीं
घर के नहीं, द्वार के नहीं
ठाठ के नहीं, दरबार के नहीं
ज़मीन जायदाद के नहीं
अपनी औलाद के नहीं
रिश्ते नातों के नहीं
अपने जज़्बातों के नहीं
संगी साथी के नहीं
माँ बाप की थाती के नहीं
प्रीतम के बिछोह के नहीं
किसी के मोह के नहीं
आपदा विपदा के नहीं
यदा-कदा के नहीं
ये आँसू हैं हर सुबह हर शाम के,
अन्तहीन भुखमरी के नाम के ,
जिसे वे हमसे छुपाते हैं ||
और बहुमंजिली जगमगाती इमारतों के
नीचे सड़क के किनारे, गुदड़ी में चिपके,
ठिठुर कर मरे हुए पाए जाते हैं ||||
**जिज्ञासा सिंह**