बालिश्त भर दुआ

मैं उनकी दुआ फिर ले आई 

जिनके घर औ आँगन ही नहीं 
संवरने को स्वस्थ तन ही नहीं 
पेट के लिए भोजन ही नहीं 
भोजन के लिए बरतन ही नहीं 

जो बैठी है सड़क के किनारे 
फटा आँचल पसारे 
इधर उधर घूम घूम कर निहारे 
कपड़ा रोटी बिछावन कुछ तो देता जा रे 

आज मैं फिर उनसे मिल आई 
कुछ थोड़ा सा छिड़क आई 
उसके बदले बालिश्त भर दुआ ले आई 

निश्चिंत हूँ सो गई हूँ ओढ़कर
दुआओं की खूबसूरत रज़ाई 

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल 

गणतंत्र से प्रतिघात


निःशब्द कर गया दृश्य मुझे गणतंत्र तुम्हारा
ऐसी क्या मजबूरी जो तू इनसे हारा  ?

दृश्यों में वो दृश्य, मुझे विचलित कर जाते 
जिनमें तू लगता निरीह मुझको बेचारा 

हाय करूँ क्या ? हाथ बंधे मेरे भी तुझसे 
वर्ना मर मिट जाती, चेहरा नहीं दिखाती मैं दोबारा

लेती बाँध कफ़न अपने मस्तक पर प्यारे 
कर देती छलनी मैं छाती जो कर देता समुख मेरे तुझको यूँ कारा 

मन की पीड़ा किसको अब बतलाऊँ कैसे ?
जब अपनों ने बीच राह में पटक के मारा 

वो दिन और आज का दिन तो देखो 
जब हमने सर्वस्व था अपना तुझपे वारा 

कैसे तृष्णा हावी है तुमपे भी इनकी 
कैसे नोच रहे औ तुमको कैसे है ललकारा ?

कौन कहेगा आज अन्न के दाता इनको 
लगते तो आतंकी दहशतगर्द और हत्यारा 

ये तो चाह रहे हैं आग लगे भारत में 
इनकी गंगा बहें और इनकी हो धारा 

बहुत झेलते रहे कुटिल चालों को इनकी 
भस्म किया अनुराग प्रीति का भाईचारा 

करते ये प्रतिघात राष्ट्र की छवि हो धूमिल 
संविधान और लोकतंत्र को है संहारा    

अब तो अपनी सुलभ सरस आदत को बदलो 
वर्ना जग में लगेगा अपयश, बदनामी का नारा 

करना है इनको समाज के आगे नंगा 
जिनकी करतूतों से रोया अपना संविधान, जो जान से प्यारा 

आज तुम्हारा संबल गर मिल जाए मुझको 
सच कहती हूँ होगा पूरा विश्व हमारा 

ऐसी ताकत नहीं जो कोई रोक सकेगी 
ये होंगे कदमों में, ऊँचा मैं रखूंगी भाल तुम्हारा

अब हमको एक सूत्र में बंध कर निश्चय करना होगा 
नहीं बची है राह न कोई अब है चारा 

**जिज्ञासा सिंह**

छायाचित्र ( मेरे देश का गणतंत्र )



कूँची उठा कर चित्र मैंने ज्यों बनाया 
एक नुमाइश लग गई ।
चित्र भी कुछ इस तरह के बन गए 
देखती आश्चर्य से मैं रह गई ।।

राजतंत्र, प्रजातंत्र, महल, मीनारें बनायीं 
श्वेतअश्वों से सजा एक रथ बनाया ।
राजमहिषी, नृपति, बैठे, संग बैठीं सेविकाएँ 
रेशमी पर्दों में छुपकर चंवर मैंने ही डुलाया ।।

सिन्धु, सागर, सर औ सरिता, व्योम, धरनी भी बनायी 
अरण्य वन में भागते बाघों औ हिरनों को बनाया ।
झूमकर गाते परिन्दों का मधुर जोड़ा दिखा जब 
बैठ उनके समुख मैंने उनके सुर में सुर मिलाया ।।

गाँव गलियाँ घर घरौंदा देहरी दरवाज़ा बनाया
चौतरे पे हुक्का पीते बैठे ताऊ को बनाया ।
गाय दुहती ग्वालिनों के बाल गोपालों की टोली 
मेरे संग में गागर थामे जा रहीं संखियाँ बनाया ।।

रोशनी से झिलमिलाती शहर की बिल्डिंग बनायी 
एक तल औ दूसरा, तीसरा, चौथा बनाया ।
पाँचवें तल पे बनाये मुस्कारते माँ पिता जी 
गोद बैठे बालबच्चे चरण में कुनबा बनाया ।।

तिरंगे के तीन रंग से, देश का नक्शा उकेरा 
अतलस्पर्शी पयोनिधि हिमगिरी पर्वत बनाया ।
छोर एक कन्याकुमारी दूसरा कश्मीर घाटी 
सामने करबद्ध मस्तक गणों का झुकता बनाया ।।

देश की सुन्दर छवि को मैं बनाती जा रही 
पर कहीं कुछ है अधूरा जो नहीं मैंने बनाया ।
तूलिका ने मान रक्खा फ़ौज की वर्दी बनायी 
राजपथ पर वर्दीधारी बेटी को चलता दिखाया ।।

अंत में माँ भारती की मुस्कुराती छवि बनाई 
जाति रंग वर्ण भेद संग सभी रहते बनाया ।
विश्व के ऊँचे शिखर पर है तिरंगा उड़ रहा 
द्वार अपने मैं खड़ी आरती करते बनाया ।।

**जिज्ञासा सिंह**

असमानता ( बालिका दिवस पर विशेष )

                             
मुझे डांटे जा रही हो बराबर
माँ ! जरा भाई को भी कुछ कहो
घूमता रहता है इधर 

तुम्हें हर वक़्त शिकायत रहती है मुझसे 
परेशान हो गई हूँ तुम्हारी रोज़ की हिदायत से 

मेरा कद बढ़ रहा है जैसे जैसे
मुझ पर नजर रख रही हो वैसे वैसे

मैं क्या कोई वस्तु हूँ जो लुट जाऊँगी 
सच कहती हूँ माँ, तुम्हें नीचा नहीं दिखाऊंगी

भरोसा तो रखो अपनी बेटी पर 
टांग दो पुरानी रवायतों को उन्हीं की खूँटी पर 

आखिर मेरा भी अस्तित्व है अपना कोई
तुम्हारे सामने मैं इन बातों पे कितनी बार रोई 

फिर भी पड़ी रहती हो पीछे मेरे
क्यूँ बनाती हो हमारे लिए चक्रव्यूह जैसे घेरे 

कभी सोचा है आपने और आपके समाज ने 
आपकी दादी ने,नानी ने,आपकी माँ ने और आप ने 

पुरुष तो पुरुष हैं पर आप लोग भी नहीं कम हैं 
आप जैसी स्त्रियाँ अपनी ही बेटी की दुश्मन हैं 

अब मुझे मेरे हाल पर छोड़ो , सम्भाल लूँगी स्वयं को 
मेरा वादा है, नहीं तोड़ूँगी मैं तुम्हारी किसी कसम को 

   **जिज्ञासा सिंह**
                                                                चित्र साभार गूगल 

चाँद पर चलेंगे


कभी जब चाँद पर चलना तो धीरे से  बुला लेना 

चले आयेंगे हम छुपकर जहाँ की उन निगाहों से 
जिन्होंने कल कहा था राह में काँटे बिछा देना 

बहुत दिन हो गए पकड़ी नहीं रेशम सी वो उँगली 
मेरी जुल्फों में धीरे से वही उँगली फिरा देना 

तुम्हारी राह में राहें, तुम्हारी बाँह में बाहें 
तुम अपने बाजुओं में भर मुझे झूला झुला देना 

तुम्हारे साँस की गर्मी मुझे अब भी बचाती है 
उसी गर्मी की लौ से प्रेम दीपक फिर जला देना 

धुआँ हो या अगन हो, हो रही हैं शबनमी आँखें 
उन्हीं अश्कों से तुम एक प्रेम की दरिया बहा देना 

बड़ी मुश्किल से फिर तुम्हारा साथ पाया है 
हूँ एक टुकड़ा मैं दिल का,ये समझ, दिल में छुपा लेना 

धड़कते सीने में अब तक बड़े अरमान बाकी हैं 
तमन्नाओं की दुनिया में मेरी महफ़िल सजा देना 

यही वो चीज़ तुमको, है बनाती अलहदा सबसे 
कि मैं बोलूँ नहीं फिर भी तुम्हें आता समझ लेना 

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र गूगल से साभार 

नज़रिया



कुछ तो अच्छा होगा ही

नज़र बदल कर देखा


क़दम क़दम पर खड़ी मुसीबत 

सुबह शाम होती है हुज्जत

मिलती नहीं किए की क़ीमत

डगर बदल कर देखा

कुछ....


लगा रहा लोगों का मेला

खेल सभी ने मुझसे खेला

बहुत तमाशा हमने झेला

नगर बदल कर देखा

कुछ....


आई आशा भेष बदलकर

अभिलाषा की चुनर ओढ़कर

खड़ी हो गई राह रोक कर

बाँह पकड़ कर देखा

कुछ....


वह बोली जीवन है कहता

दुख सुख आता जाता रहता

सब कुछ बुरा नहीं हो सकता

सोच बदल कर देखा

कुछ....


खुली आँख से जो कुछ देखा

वही बना ली जीवनरेखा

बाक़ी सब कर के अनदेखा

आगे बढ़ कर देखा

कुछ....

 

**जिज्ञासा**

सत्य का नेतृत्व


नेतृत्व सत्य का कठिन कर्म

कह जाता मानव हृदय मर्म


खुल जाता मन का कठिन द्वार

सच कर देता उर का श्रिंगार


फिर पैदा होता वीर पुरूष

कर लेता जो ख़ुद पर अंकुश


कोई कैसा फिर हो समक्ष?

सच कहने में जो महा दक्ष


कमज़ोर नहीं वो हो सकता

जिसमें सच कहने की क्षमता


है सत्य सदा स्पष्ट अटल

है सूक्ष्म मगर फिर भी अविरल


सच में है छुपा एक आकर्षण

कहने में होता अति घर्षण


पर होती सच की सदा विजय

खिल जाता है भय मुक्त हृदय


 **जिज्ञासा**

सरहद पर तैनात सैनिकों के सम्मान में


प्रहरी तुम थक तो नहीं गए 

सरहद पर कब से खड़े हुए ।
सीना ताने तुम अड़े हुए ।।
आंखों में नींद के डोरे हैं,
पैरों में छाले पड़े हुए ।
प्रहरी तुम थक तो नहीं गए ।।

गर्मी की झुलसन जला गई ।
सर्दी की ठिठुरन जमा गई ।।
वर्षा की दलदल के भीतर, 
तुम पूरे भीगे खड़े हुए । 
प्रहरी तुम थक तो नहीं गए । 

जो मिला वही तुमने खाया । 
आराम नहीं तुमको भाया ।।
कंधे पे डाला युद्ध शस्त्र,
सीमा पर जाकर खड़े हुए ।
प्रहरी तुम थक तो नहीं गए ।

विश्वास हमें तुम पे है सदा ।
कोई भी आयेगी विपदा ।।
ये भूल ही जाना तुम क्या हो ?
और किस घर में थे जनम लिए ?
प्रहरी तुम थक तो नहीं गए ।

हम राह तुम्हारी देखेंगे ।
हम किसी हाल में रह लेंगे ।।
अपने मन को समझा लेंगे,
तुम देश के खातिर चले गए ।
प्रहरी तुम थक तो नहीं गए ।

जब फोन की घंटी बजी यहां ।
पूरा घर सन्नाटे में रहा ।।
एक सैनिक फिर कुछ यूं बोला,
तुम मातृभूमि पर गुजर गए ।।
तुम मातृभूमि पर गुजर गए ।।

**जिज्ञासा सिंह**

मौन का मर्म



अश्रुओं से भर गए थे चक्षु मेरे
कंठ भी रूंधने लगे थे वेदना में
श्वास भी अधरों से मिल के लौट ली
होंठ भी हिलने लगे संवेदना में

छोड़ कर मुझको गए इस हाल में जो
वो अमानुष भद्र आखिर कौन थे
चूड़ियों के घाव सब कुछ कह रहे
पर जिह्वा के शब्द अब भी मौन थे

उड़ रहे केशों का दारुण रुदन अब तो
नख से शिख तक है रहा दहला मुझे
वक्ष से उड़ते दुपट्टे का किनारा
पोंछ आंसू है रहा सहला मुझे

हवस के भूखे दरिंदे भेड़िए खुश थे
अपनी वासना की फतह पर
मै बड़ी लाचार बेसुध हूं पड़ी
मां धरा की गोद रूपी सतह पर

क्या कहूं ? सब कह रहे है अश्रु मेरे
पर उन्हें सुनता यहां पर कौन है
इस लिए मैं चुप हूं मेरी चेतना भी
प्रश्न के उत्तर में रहती मौन है

गर यही होता रहा इस भूमि पर
फिर न कोई मानवी बच पाएगी
इस जगत के सामने दुष्कर्म की
नित नई दस्तान लिक्खी जाएगी

   **जिज्ञासा सिंह**

कोशिश और मैं


किसे पुकारूँ, किससे कहूँ मन कि बात ?

 सुनते नहीं,समझते भी नहीं वो,

मिलते भी नहीं मेरे उनके ख़यालात ।।


कोशिशों ने मुझसे  कहा 

हाथ जोड़कर कई बार 

रहने दो, अब सम्भव नहीं, तुम्हारा उनका साथ ।।


मैंने कहा ! ये कह के तुम, 

मत निकालो यूँ मेरी कमी 

बार बार मत करो मुझ पे यूँ आघात ।।


वैसे ही टूटी हुई हूँ चूड़ियों की तरह 

फिर भी पहनी है जोड़कर

 भर कलाई रंग बिरंगे कंगनों के साथ 


जोड़ती रही हूँ  टूटी हुई 

कड़ियां उन्हीं से जिन्होंने 

पग पग पर तोड़े हैं मेरे जज़्बात।।


अकेली तुम्हारा ही तो 

हाथ पकड़ती रही मै 

आज तुम भी छुड़ा रही हो अपने हाथ  ।।


सोचो तो मेरा क्या होगा ?

 तुम बिन इस जहां में 

सुनो तो सही मेरी इतनी सी बात 


बस तुम बनी रहना 

मेरी सखी यूँ ही 

मैं सम्भाल लूँगी अपनी हर मुश्किलात ।।


**जिज्ञासा सिंह**

गुंजाईशें

बनाये घूमते, फिरते,  कैसी सूरतेहाल हो ?
भई ! तुम बड़े ही कमाल हो !!

गुंजाइशें घूमती हैं तुम्हारे इर्द गिर्द 
देखते नहीं उनको आँख उठा के तुम 
हर वक्त रहते बेहाल हो !

क्या पता कौन सी कोशिश रंग ले आए 
आज़माओ तो खुद को 
क्यों बनते फटेहाल हो !

बुरा से बुरा दौर गुजर जाता है 
बस वक्त को थोड़ा वक्त दो 
भागते जा रहे भेड़चाल हो !

देखते रहो रास्ते इधर उधर के तुम 
वरना भटक जाओगे मंज़िल के निकट 
पकाते पुलावों का ख़याल हो !

अजनबी भी हाथ पकड़ लेते हैं 
गिर रहे हो जब किसी डगर पे तुम 
छोड़ते क्यों नहीं भ्रमों का जाल हो ?

बनते बिगड़ते रहेंगे, मत पल पल 
अपनी कल्पना को सजाओ ज़रा 
फ़ालतू रहते बजाते गाल हो !

साथ देती हैं गुंजाईशें भीड़ में भी 
सम्भालते रहो कदम अपने 
चाहे कोई भी युग हो या काल हो !

 **जिज्ञासा सिंह** 
चित्र साभार गूगल 

कृतघ्नता की हद



                    गली मोहल्ले के कुत्ते रोटी डालते ही

गेट पर दौड़े चले आते हैं

रात भर भौंकते हैं साथ में

पिल्ले भी कूँ कूँऽऽ चिल्लाते हैं


पीढ़ी दर पीढ़ी विराजमान हैं यहाँ

अक्सर गाड़ी से दबकर चोटिल हो जाते हैं

कई बार तो बिना इलाज

पड़े पड़े मर भी जाते है


पर जो बचते हैं वो अहसानों के तले 

दबे नज़र आते हैं

वो एक रोटी का मोल 

जीवन पर्यंत चुकाते चले जाते हैं


और हम इंसान किसकी कितनी रोटी खाई

ये बहुत जल्दी भूल जाते हैं

तुमने हमारे लिए क्या किया ?

 कहते हुए बिलकुल नहीं शर्माते है


 **
जिज्ञासा**

बचपन के आँगन में

 
एक दिन मुझसे कहा मेरे बूढ़े से मन ने
चलो लौट चलें बचपन के आंगन में

वहाँ अपनी धूप होगी अपनी ही छाँव 
होगा वही अपना पुराना गाँव 
लेटकर झुलेंगे झिलगी खटिया की वरदन में

पेड़ पर चढ़ेंगे खेलेंगे लच्छी डाड़ी
गुल्ली डंडा लंगड़ी और सिकड़ी
चुरा के तोड़ेंगे कच्ची अमियां गाँव भर की बगियन में

चलेंगे नदिया तलाव नहाने हम
गोता लगायेंगे झमाझम
छप्पक छैया खेलेंगे पोखरन में 

सावन आएगा बरखा बरसेगी 
दुआरे पिछवारे तलैया खूब भरेगी 
नाव नवरिया खेलेंगे चाँदनी रतियन में 

किताब बस्ता लेकर स्कूल चलेंगे हम सब 
इमला गिनती पढ़ाएँगे मास्टर साहब 
पहाड़ा उनको हम सुना देंगे सेकंडन में 

                  खाएँगे अम्मा के हाथ की रोटी औ दाल                        ज़बरिया देंगी वो खूब ही मक्खन डाल  
ज़्यादा खिला देंगी वो फँसा के बतियन में 

           **जिज्ञासा सिंह**    
              चित्र साभार गूगल    

भुखमरी के आँसू


क़रीब गए तो देखा 

पर, कर के अनदेखा 


चले तो आए 

मुँह छुपाए


पर बेचैन हैं हम 

देख उनके आंसुओं का ग़म 


आँसू मौत के नहीं, मर्ज़ के नहीं 

जमाने के दुःख दर्द के नहीं  


घर के नहीं, द्वार के नहीं 

ठाठ के नहीं, दरबार के नहीं 


ज़मीन जायदाद के नहीं 

अपनी औलाद के नहीं 


रिश्ते नातों के नहीं 

अपने जज़्बातों के नहीं 


संगी साथी के नहीं 

माँ बाप की थाती के नहीं 


प्रीतम के बिछोह के नहीं 

किसी के मोह के नहीं 


आपदा विपदा के नहीं 

यदा-कदा के नहीं 


ये आँसू हैं हर सुबह हर शाम के,

अन्तहीन भुखमरी के नाम के ,

जिसे वे हमसे छुपाते हैं ||


और बहुमंजिली जगमगाती इमारतों के 

नीचे सड़क के किनारे, गुदड़ी में चिपके, 

ठिठुर कर मरे हुए पाए जाते हैं ||||


**जिज्ञासा सिंह**

मन की गुफा



गुफाओं के समंदर में
डूबकर आज अन्दर मैं 

धरा पर शीश ज्यों रक्खा 
नींद का आ गया झोंका 

बजे घड़ियाल घण्टे यूँ 
मैं उनसे जा तनिक मिल लूँ 

यही सोचूँ औ अलसाऊँ 
मैं कुछ भी न समझ पाऊँ 

तभी आंखें झपकती हैं 
कई परियाँ सी दिखती हैं 

गेरुवे वसन में लिपटी 
गगन की ओर हैं चलतीं 

न उनका ओर दिखता है 
न उनका छोर दिखता है 

वो पकड़े हाथ में वीणा 
लगे जैसे कई मीरा 

धरा से जा रही हैं नभ 
कौन रोके इन्हें बढ़, अब 

वो गाती हैं मधुर धुन में 
मैं डूबी उनकी गुंजन में 

नहीं कुछ दिख रहा मुझको 
मैं संग में चल पड़ी अब तो 

हैं राहें मखमली रेशम 
चले हैं झूमते अब हम 

मेरे हाथों में भी वीणा 
मुझे देती हुई मीरा 

है कहती कृष्ण की हो जा 
न कोई मार्ग है दूजा 

तू अब तक क्यों नहीं समझी 
रही जंजाल में उलझी 

ये माया मोह का जीवन 
बसंतों से भरा यौवन 

तुझे न रास आयेगा 
तुम्हें एक दिन रुलाएगा 

चली चल, मेरे पीछे तू 
देख न, पीछे मुड़ के तू 

और मैं चल पड़ी आगे 
लगा हैं भाग्य अब जागे 

निरंतर बढ़ती जाती मैं 
ये जीवन प्रभु की थाती है 

यही मैं सोचती जाऊँ 
हरी गुन झूम के गाऊँ 

मुदित मन,  आत्मा, अरु,  उर 
नयन मेरे झरें झर झर

**जिज्ञासा सिंह**