रंगबिरंगे पक्षी (बाल कविता)

ये इतने तोते कहाँ से आए आसमान में
दिखता सारा गगन आज है हरा हरा

छोटे छोटे होंठ रसीले छोटे छोटे टोंट 
देख देख के हुआ मगन मैं होकर लोटपोट 
कुतर कुतर ये आम गिराए मेरे ही बाग़ान में 
उनकी कुतरन से गुलशन है भरा भरा

ये इतनी गौरैया कहाँ से आईं हैं, मेरे दालान में 
चिड़ियाघर है दिखता आँगन आज मेरा 

नन्हें नन्हें पंखों वाली प्यारी सी ये चिड़िया 
दाना चुगती ऐसे, जैसे खिले फूल की कलियाँ 
चूँ चूँ चाँ चाँ फुर फुर उड़ती पूरे घर मकान में 
सरगम जैसी बजती घर संगीत भरा 

ये श्वेत,सलेटी चार कबूतर बैठे,रोशनदान में 
करते गुटुर गुटुर गूँ गूँजे चौबारा 

श्वेत कबूतर शांति दूत कहलाते 
पहले तो ये चिट्ठी लेकर आते जाते 
लगभग पूरी दुनिया में ये पाए जाते 
द्वीपों, ठंडी जगहों से डरते हैं ज़रा 

ये सात रंग के मोर कहाँ से आए हैं मैदान में
इंद्रधनुष सी दिखती सुंदर आज धरा 

शीश पे शोभित मुकुट चंद्रिकन वाला 
झूम झूम कर नाच दिखावे नर्तकप्रिय मतवाला 
करे मयूरी अठखेली जब सारंग के सम्मान में 
लगता कुंजनवन धरती पर है, पसरा 

**जिज्ञासा सिंह**

पृष्ठों के पृष्ठ


पृष्ठों के भी पृष्ठ कई देखे हैं मैंने 

बन ही गई किताब जुड़े जब सौ सौ पन्ने 


पहली सीढ़ी चढ़ी औ पहला पायदान लकड़ी का 

जीवन की कड़ियों में जुड़ती हर एक एक कड़ी का 

कर स्मरण सजाए मैंने अपने सपने 

पृष्ठों के भी पृष्ठ कई देखे हैं मैंने 


जो भी थाती मिली वही बहुमूल्य लगी मुझको 

क्या मुझको ? क्या तुझको,क्या ले जाना सबको 

कर आँकलन बढ़ाए हर एक कदम धरा पर मैंने 

पृष्ठों के भी पृष्ठ कई देखे हैं मैंने 


वह मेरे हैं, मैं उनकी हूँ तनिक कभी न ठिठकी  

मिली किरन की एक कनी मैं उसी दिशा में भटकी  

अधरों पर मुस्कान चढ़ाए युद्ध लड़े हैं मैंने 

पृष्ठों के भी पृष्ठ कई देखे हैं मैंने 


कोई कभी गाह्य तो लेगा हाथ मेरा इस जग में 

मूलमंत्र था यही, यही आशा थी मेरे रग में 

पृष्ठों में हर बार ख़ुशी के पृष्ठ सजाए मैंने 

पृष्ठों के भी पृष्ठ कई देखें हैं मैंने 


**जिज्ञासा सिंह**

चित्र -साभार गूगल    

गंगा सदा पूज्यनीय (गंगा दशहरा विशेष)



तू मोक्ष है तरंगिणी

तू शिव जटा की धार भी
तू धरणी का श्रृंगार भी
तू मोतियों का हार भी 
धरा के मानचित्र पे तू
कण्ठ में सजी लड़ी
तू मोक्ष....

तू जुगनुओं सी चमकती
तू हीरे जैसी दमकती
तू कुसुम जैसी महकती
प्रकृति की हरीतिमा तू
श्वांस संग घड़ी घड़ी
तू मोक्ष....

तू प्यास भी बुझा गई
तू भूख भी मिटा गई
तू पार भी लगा गई
जो तेरी नाव में चढ़ा
बनी सदा तू तारिणी
तू मोक्ष....

तू आरती तू वंदना 
तू प्रार्थना तू अर्चना
तू मंत्र भी तू कामना
पुकारा तुझको मेघ ने
तो बदरी बन बरस पड़ी
तू मोक्ष....

तू पाप पुण्य धो गई
तू पीढ़ियों को ढो गई
तू सब के दुख में रो गई
तू पूर्वजों को तारती
रही सदा तू बंदिनी
तू मोक्ष....

**जिज्ञासा सिंह**

सारथी मैं हूँ (बेटे से संवाद )


तुम चलो, सारथी मैं हूँ 

थोड़ा सा तो चलो, डगर पर कदम बढ़ाओ
उन कदमों से कदम मिलाते चलते जाओ
अपने कदमों का दो सच्चाई से साथ,सारथी मैं हूँ 
तुम चलो...

करके घोर परिश्रम जो चलते हैं सबसे आगे
उनका पकड़ो हाथ बिना कुछ उनके मांगे,
भर जाएगी खाली मुट्ठी,कर लो ये विश्वास, सारथी मैं हूँ 
तुम चलो...

वो रुक सकते हैं,पर तुम रुक मत जाना
मार्ग दिखे अवरुद्ध,मगर तुम मत घबराना
 अंतर्मन में झाँक, दिखे जो मार्ग, वही सन्मार्ग, सारथी मैं हूँ 
तुम चलो...

आगे जो कुछ भी है, है गंतव्य तुम्हारा
दिख जाएगा, एक दिशा हो,एक लक्ष्य हो प्यारा 
सौग़ातों की होगी, फिर बरसात, सारथी मैं हूँ 
तुम चलो...

क्यों घबराते हो? हूँ मैं जब साथ तुम्हारे
वही मनुज है,जो विपत्ति में कभी न हिम्मत हारे
दिव्य जलाए ज्योति, और फिर जग में करे प्रकाश, सारथी मैं हूँ 
तुम चलो, सारथी मैं हूँ ।।

**जिज्ञासा सिंह**

मैं बुढ़ापे के आनंद में हूँ (संवाद-पिताजी से )


वह दृश्य
अदृश्य 
हो ही नहीं रहा
जब उन्होंने मुझसे कहा

अब क्या है
जीवन बीत चुका है
और मैं बुढ़ापे के आनंद में हूँ 
आजकल परमानंद में हूँ 

जो चाहे सो लो,जो चाहे सो दो 
मुझे थोड़ा सा जी लेने दो 
इन्हीं दिनों के लिए
तुम्हारे और अपने लिए

ही तो बोया था वो अमर बीज
उससे पैदा हुई जो चीज
वो बहुतों को नहीं मिली
वही संपदा फूली और फली 

और मेरी झोली में विराजमान है
देखो न मेरा कितना सम्मान है
सब कुछ मेरा ही तो है
ये शाम नहीं, मेरे बुढ़ापे का सवेरा ही तो है

जब मेरी खुली आँखें
शांत मद्धिम साँसें 
अविचल शांति
मेरी आभा मेरी कांति

जो जवाँ दिनों में कोसों दूर थी
मेरी दुनिया ही मजबूर थी
वो आज गुंजायमान है
यही तो मेरा अभिमान है

कि जो जीवन जिया
वर्षों संघर्ष किया
बीत गई वो बेला
जब भी नियति ने खेल खेला

उसे परास्त कर दिया मैंने
और मेरे वही मासूम नन्हें मुन्ने
देखो न मेरे आगे पीछे खड़े हैं
और मुझसे कद में बड़े हैं

लोग कहते हैं, आजकल मैं कम बोलता हूँ 
बोलता नहीं, पर सब कुछ तोलता हूँ  
गुनता धुनता हूँ 
सब कुछ देखता हूं, फिर सोचता हूँ 

कि ऐसे ही खुली आँखों से नाप तोल देखता रहूँ 
आदि अंत, राग अनुराग, अपने पराए सबको सुनता रहूँ 
अपनों का यही सर्द गर्म संवाद
आबाद

करती रहे मेरे बुढ़ापे की सिमटती हुई दुनियाँ 
और भरी रहें मेरे इर्द गिर्द मासूम सी खुशियाँ..

**जिज्ञासा सिंह**

समय के साथ - स्वरूप बदलती बरसात

चलो सुनाऊँ मेंघों की, कहानियाँ कमाल की
भूत की, भविष्य की, वर्तमान काल की

दादा मेरे रहते थे, घना घना सा गाँव था
घर के पीछे बाग था, घर के आगे छाँव था
हर गली गली में पेड़, फूलों की थीं वादियाँ 
जिसके बीच बैठ, गीत गाती मेरी दादियाँ 

चिड़ियों, तितलियों के बीच, खेलती मैं गोटियाँ 
बर्फ से ढकी हुई थीं, पर्वतों की चोटियाँ 
देख आसमान सारा, रश्मियों से भर गया
बन के मेघ धीरे धीरे, धरती पे उतर गया

काले काले मेघ आए, और घटाएँ घिर गईं
दामिनी के संग, झमाझम्म वो बरस गईं
भर गए तलाव, औ तरंगिनी भी बह चली
हरीतिमा से भर गई, गाँव की गली गली 

हर तरफ बहार थी, बहार में उमंग थी
लहलहाते खेत, और चुनर सप्तरंग थी
इंद्रधनुषी आवरण में, छुप गया था आसमाँ 
गांव मेरा छूट गया, उम्र का भी कारवाँ 

माँ के संग डोलियों में, बैठ हम शहर चले
धीरे धीरे हम जमीं से, आसमान उड़ चले
काट डाले वृक्ष, अट्टालिकाऐं बन गईं
आसमानी बिजलियाँ, धरा पे जगमगा गईं

और बादलों का रंग, कालिमा से भर गया
बारिशों का दौर सिमट, करके यूँ ठहर गया
चार माह होती बरखा, दिनों में बदल गई
तटिनी बन तलाव,रेत कंकणो से भर गई

होती बारिशें हैं, आज भी मेरे जहान में
बदलियाँ भी घिरती हैं, मेरे आसमान में
पर धरा के तापमान, में कोई कमी नहीं
शुष्क होके जल गई, मृदा में है नमी नहीं

थक हैं जातें नैन, बाट जोहते फुहार की
बदलियों के आगमन की,उड़ रही बयार की
गर यही रहा तो वृष्टि, होगी एक कहानी में
बूढ़े होंगे नौजवाँ ,भरी हुई जवानी में

और न होंगे पेड़ न ही, नदियों की निशानियाँ
होगा न मनुज यहाँ, न कविता न कहानियाँ 
इस धरा पे अग्नि और, शोले होंगे जल रहे
जो बचेंगे एक एक, बूंद को मचल रहे

कौन होगा जो भविष्य, इस तरह का चाहेगा
अपने हाथों से ही इस, जहान को मिटाएगा
इसलिए चलो भविष्य, विश्व का संवार दें
करके संकल्प, धारिणी को उपहार दें

नदियों को बचाएँ, पोखरों को भी सहेज लें
पेड़,पौधे, पानी, जीवजंतु का दहेज लें
झूमते वनों की एक, श्रृंखला बनाएँ हम 
पर्वतों और सागरों की, तलहटी बचाएँ हम

नदियों और बारिशों की, फिर बहार आएगी
देखना धरा हमारी, खुश हो लहलहाएगी
बदलियाँ घिरेंगी, बारिशों में भीग जाएंगे
दादी और दादा, आसमाँ से मुस्कराएंगे

**जिज्ञासा सिंह**

अतिक्रमण

सुनो जरा मंत्री औ नेता, अफसर और सरकार सुनो ।
अन्यायों की लगी हुई है, लंबी बहुत कतार सुनो ।।

खत्म हो गए कितने जंगल, कितनी नदियाँ सूख गईं
पर्वत और पठारों को,कितनी मशीनें लील गईं
पशु पक्षी के हाड़, माँस का कैसा ये व्यापार सुनो ।
अन्यायों की लगी हुई है,लंबी बहुत कतार सुनो ।।

गिद्ध बन गई मानव जाति, गिद्धों को ही गीध गई
खग औ विहग लुप्त हुए जाते, ताल तलैया सूख गई
भाग रहे वन के प्राणी सब,ऐसा हुआ व्यवहार सुनो ।
अन्यायों की लगी हुई है,लंबी बहुत कतार सुनो ।।

भौतिक लोलुप्सा में फँसकर, खत्म संस्कृति होती है
नित नव संयंत्रों से धरती, छलनी होकर रोती है
ऐसी कैसी नई सभ्यता,कैसा ये अधिकार सुनो ।
अन्यायों की लगी हुई है,लंबी बहुत कतार सुनो ।।

तुमको बैठाया सिंहासन, तुम राजा हम प्रजा तुम्हारी
जीव जगत के हर एक प्राणी, देख रहे हैं राह तुम्हारी
तुमको मिली मलाई,मक्खन, हमको बस धिक्कार सुनो ।
अन्यायों की लगी हुई है,लंबी बहुत कतार सुनो ।।

यही याचना,यही प्रार्थना,वक्त पुराना लौटा दो
हो विकास पर पर्यावरण का, बिलकुल बाल न बांका हो
जीवन यापन का हमको भी,दो थोड़ा अधिकार सुनो ।
अन्यायों की लगी हुई है,लंबी बहुत कतार सुनो ।।

**जिज्ञासा सिंह**

उमड़ घुमड़ बरसे मेघा

जब उमड़ घुमड़ बरसे मेघा
फिर आज अँगन उतरे मेघा

पहले बदली बनकर छाए
फिर गरज गरज मोहे धमकाए
बिजली बन टूट पड़े मेघा

पत्ती पत्ती रसधार चुए
हर्षें जैसे कचनार छुए
अब बिहँसि बिहँसि बरसे मेघा

मैं भर भर नैन निहार रही
आरती सजाए उतार रही
लड़ियों जैसे लटके मेघा

सब ताप बुझाय किए शीतल
कल कल,छल,छल, बस जल ही जल
सरिता जैसे बहते मेघा

नैनन की राह उतर हिय में
बसते जाते मेरे जिय में
मन कोटि न अब समझे मेघा।

प्रिय के बिन सूना नैन मेरा
और लूट लिया है चैन मेरा
बिरहा में हम तड़पे मेघा

कोई राह निकालो जतन करो
मोरे पिय से मोरा मिलन करो
दिन रैन नहीं कटते मेघा

**जिज्ञासा सिंह**

मन का दिया

दिया जैसे जलाया,रोशनी ब्रम्हांड में फैली
हुआ ऐसा उजाला छुप गई दुनिया मेरी मैली

दिए का मोल करने लग गईं अनमोल आँखें
गगन में उड़ चलें लाखों पतंगे खोल पाँखें

ये मिट्टी से बना दीपक है या है धातु निर्मित
अलौकिक ज्योति इसकी कर रही है विश्व जागृत

मुझे भी चाहिए आलोक देता दीप ऐसा 
जलाकर खुद की काया दीप्ति देता जो हमेशा

दिए ने दे दिया उपहार उज्ज्वल हर दिशा को
खोलना चक्षु खुद ही पड़ गया गहरी निशा को 

मैं हाथों में दिया थामे चली किस ओर न जानूँ  
भरी जाती हृदय में कांति कैसी ये भी पहचानूँ 

खुला जो मार्ग दिखता उस तरफ मैं चल पड़ी आगे
बढ़े जब कदम दृढ़ता से,अँधेरा पीछे है भागे

दिया आलोक फैलाए, है छाई चाँदनी जगमग
करें मिल के उजाला हम, तो जागृत होगा सारा जग

**जिज्ञासा सिंह**

मैं जलनिधि हूँ, मैं सागर हूँ (विश्व महासागर दिवस)




हम ढूंढ रहे उन श्वाँसों को, जो आज तलक मुझको न दिखी
कल देखा अपने आसपास, कहीं यहाँ रखी, कहीं वहाँ रखी

कोई लिए खड़ा है हाथों में,कोई लटकाए है घूम रहा
कोई करता उनका मोलभाव,कोई चरणों की रज चूम रहा

अब कौन सुनेगा बात मेरी, जो वर्षो पहले बोली थी
एक दृश्य दिखाया था मैने, और आँख तुम्हारी खोली थी

तब सुनकर तुम मुस्काए थे,जैसे कि विश्व तुम्हारा है
सब कुछ है तुम्हारी हाथों में, सबपे अधिकार तुम्हारा है

अपने मासूम से हाथों से, प्रकृति का दोहन कर डाला
मुझको भी नहीं छोड़ा तुमने, मेरा उदर प्रदूषित कर डाला 

अब फिर से मेरी बात सुनों,मैं जलनिधि हूँ, मैं सागर हूँ 
मैं पूरी धरा पे फैला हूँ, मैं जाता समा एक गागर हूँ 

ये नदियाँ और हिमालय भी,मेरे जीवन के साथी हैं
वसुधा के कण कण में कुसुमित, जनजीवन मेरी थाती हैं

मैं जल भी हूँ, मैं अग्नी हूँ, मैं अतुल वनस्पति वाला हूँ 
मेरा गर्भ भरा है सृजनों से, मैं साँसों का रखवाला हूँ 

मैं चन्द्र के जैसा शीतल हूँ, मैं सूर्य की गर्मी पीता हूँ 
मैं तुममें हूँ, तुम मुझमें हो, सृष्टि को प्रतिपल जीता हूँ 

तुम मुझको सहज मत ले लेना, मैं प्रबल धार का मालिक हूँ  
तुमने नौका में छेद किया,फिर सबसे बुरा मैं नाविक हूँ 

ऐसे में कहूँ मैं कुछ अपनी, तुम मुझसे करना छल छोड़ो
इस ब्रह्म जगत के जीवों की, खातिर मुझसे नाता जोड़ो

तुम मेरी सुनो मैं तेरी सुनूँ, मैं सब कुछ अर्पण कर दूँगा
हे मानव ! बनकर अनुगामी, सर्वस्व समर्पण कर दूँगा

**जिज्ञासा सिंह**

नैन से आँसू झरे (विश्व पर्यावरण दिवस)

मेघ बरसे यूँ कि जैसे नैन से आँसू झरे ।
दामिनी भी कड़ककर, आज तरुवर पर गिरे ।।

आँधियों ने ला बवंडर, धुंध फैलाई विकट ।
सूर्य की किरणों ने फेंकी, अग्नि जैसी लौ लपट ।।

जल गई धरिनी की काया, और दरारें दिख रहीं ।
इन दरारों में कहीं से, बूँद जल की गिर रही ।।

मैं उसी एक बूँद के, जलस्रोत को हूँ ढूँढती ।
है कहाँ से गिर रहा, ये अमृत सबसे पूछती ।।

मैं हूँ आगे मेरे पीछे, सहस्रों प्राणी खड़े ।
पेड़ पादप जीव जंतु, सब हैं पाने को अड़े ।।

ये वही एक बूँद है, जो शिव जटा की धार थी ।
सृष्टि का जो प्राण थी,और नाम था भागीरथी ।।

बंद आँखें इंद्र की, और वरुण रूठे हैं हुए ।
कल के जनमानस ने भू पर,कर्म कुछ ऐसे किए।।

देखती हूँ चक्षुओं से, हर दिशा औ राह मैं ।
सूखती पड़ती मृदा का, ले रही हूँ थाह मैं ।।

हर तरफ है त्राहि, विपदा डाल दी है प्रकृति ने ।
  बूँद जल की हो गई है, इस धरा पे अमृतमय ।।

दृश्य ये हम चर अचर को, दृष्टिगोचर दिख रहा ।
कुछ क्षणों की बात है, आगाह हमको कर रहा ।।

अमृतमय इस बूँद का, कर लो मनुज तुम संचयन ।
वरना कर न पाओगे एक बूँद का भी आचमन  ।।

**जिज्ञासा सिंह**

पृथ्वी का सूर्य से संवाद (विश्व पर्यावरण दिवस)

बादलों के झुरमुट से झाँकते हो भानु तुम,
ऊर्जा का जग में संचार किए जाते हो

काले भूरे बादलों की चीर देते छाती यूँ 
किरणों की रंगीन प्रभा दिए जाते हो

व्योम के विशाल वक्ष करते तुम राज और
नित्य प्रति मेरा श्रृंगार किए जाते हो

उपवन औ कानन भी राह तकें, मुड़ मुड़ के
कलियों और पुष्पों के बहार बन जाते हो

मानव का जीवन है, तुमसे ही अच्छादित
भोजन औ भाजन का उपहार दिए जाते हो

सुन लो भास्कर अब मेरी भी इतनी बात
निशदिन ही मेरे मेहमान बन आते हो

दुनिया में आके मेरे लेते हो थाह मेरी
सुनते न दर्द मेरा चुप्प भाग जाते हो

अंधियारे से डर के भागते हो रवि, जिस
कैसे है लड़ना मुझे ? उससे समझाते हो

रुको जरा ठहरो तुम मेरे घर एक रात
जीती हूँ मैं कैसे ? नैन देख जाते हो

ऐसी क्या मजबूरी, ऐसा क्या अनुशासन ?
मुझको अकेला छोड़ रोज चले जाते हो

ग्रहों औ नक्षत्रों में श्रेष्ठ पे विराजमान
सृष्टि के कंठ का हार कहलाते हो

आज तुम्हें बाँधूंगी हिरदय की उस डोरी 
जिसकी हर श्वाँस तार तार किए जाते हो

कौन यहाँ सुनता है ? मेरे मन की व्यथा
किसके सहारे तुम छोड़ मुझे जाते हो

मेरे प्रियवर ! ओ मेरे तुम मित्र सखा !
क्यों ऐसी दुविधा में डाल मुझे जाते हो

कहते जग के प्राणी मेरी ही संतति हैं
इनकी मोह माया में बाँध मुझे जाते हो

रोज रोज छलनी करे मेरा ही आँचल जो 
उनकी ही रक्षा का वचन लिए जाते हो

आखिर ये मानव हैं, दुनिया बदलने वाले
इन्हें कैसे रहना है क्यों न बतलाते हो ?

कब ये समझ पाएँगे,पृथ्वी है मातृ रूप
पृथ्वी के शोषण से जीवन गँवाते हो

**जिज्ञासा सिंह**

कोरोना से दो दो हाथ (आपबीती )


मेरी ढलती हुई साँसों का सौदा मत करो तुम, 
सहस्रों बार रोपा था मैंने साँसों का पौधा ।
तुम आए औ उखाड़े वो मेरा खिलता हुआ गुलशन,
कृत्रिम दुनिया हमें देती रही इतना बड़ा धोखा ।।
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ये आया है तो जाएगा, हराएंगे इसे हम ही,
मनुजता की कसम हमको, न टूटेंगे, न हारेंगे ।
जरा सा संभल लेने दो,अभी है बचपना हममें,
किसी दिन करके दो दो हाथ,इसे रस्ता दिखा देंगे ।।
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     अप्रैल माह शुरू होते ही मैंने कोरोना का टीका लगवाने के लिए अपनी डॉक्टर मित्र को फोन लगाया और उससे टीके के बारे में पूरी जानकारी ली, कि हम कब और किस जगह आराम से टीका लगवा सकते हैं,मेरी मित्र ने कहा कि दो तीन दिन रुक जाइए,अभी बहुत भीड़ है, फिर लगवाइए, पतिदेव ने मुझसे कहा प्राइवेट अस्पताल चल के लगवा लेते हैं, पर मुझे अपनी मित्र पे ज्यादा विश्वास था, और मैं दो तीन दिन रुक गई,इसी बीच पतिदेव को जरूरी काम से दिन भर के लिए बाहर जाना पड़ गया, वो पूरी एहतियात के साथ बाहर गए और शाम घर आ गए ।
        दूसरे दिन सुबह ही पतिदेव ने मुझसे कहा कि मेरे सिर में दर्द है, मैंने सिरदर्द में जो कुछ भी घरेलू उपाय होते है,उससे दर्द कम करने की कोशिश की,दर्द थोड़ा कम हुआ और वो आराम से ऑफिस चले गए, शाम को लौटे तो उन्होंने कहा कि थोड़ा बुखार लग रहा है,चूँकि वो हल्के फुल्के बुखार या जुकाम में दवा बिलकुल नहीं लेते और ठीक हो जाया करते हैं, मैंने बुखार नापा,नब्बे से थोड़ा ऊपर था, दवा देने की कोशिश की उन्होंने नहीं ली । रात बीत गई,अगले दिन बुखार आने पर मैंने उन्हें साधारण फ्लू की दवा दी,बुखार उतर गया,परंतु फिर शाम को आ गया,इस बार मैने अपने डॉक्टर से पूंछकर फिर दवा दी और उनका बुखार उतर गया, मैने उनका कोविड टेस्ट करवाया, कोविड टेस्ट की रिपोर्ट निगेटिव आई, और हम सब बिलकुल तसल्ली में हो गए, हमने एहतियातन टायफायड टेस्ट करवा लिया,वो रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई,अब हम और तसल्ली में हो गए कि इन्हें कोरोना नहीं है,टायफायड है ।परंतु मैंने घर में सबको अलग अलग कमरे में रहने की हिदायत दे दी और कह दिया कि अगले चार पाँच दिन सब अलग ही रहेंगे ।इधर करीब चार दिन बीतने के बाद पतिदेव को थोड़ी खाँसी शुरू हो गई, मैने उनका दोबारा कोरोना टेस्ट करवाया,उसकी रिपोर्ट दूसरे दिन मिलनी थी ।
       उसी शाम बेटे को तेज सिरदर्द हुआ और उसे बुखार आ गया, मैने उसे बुखार की दवा दी बुखार उतर गया,दूसरे दिन सुबह मेरी मेड जो मेरे घर ही रहती है,उसे भी गले में दर्द के साथ बुखार आ गया,शाम को बेटी माथे पे विक्स चुपड़ रही थी मैंने पूछा क्या बात है,वो बिचारी मुझे परेशान देख बोली कुछ नहीं माँ बस थोड़ा दर्द है, मैने बुखार लिया उसे भी बुखार था,मेरे तो होश उड़ गए कि सभी अलग अलग कमरे में बंद थे फिर भी सब को बुखार है, सबको बुखार आता रहा, उतरता रहा,किसी को सौ किसी को एक सौ दो । उधर पतिदेव को चक्कर आना शुरू हो गया, इसी बीच उनकी कोविड की दूसरी रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई,मेरे मामाजी रिटायर्ड डॉ. हैं, मैं हमेशा उन्हीं से चिकित्सकीय परामर्श लेती हूं, पर मैं इस बीमारी को अपने घर के लोगों को नही बताना चाह रही थी, क्योंकि मेरा करीब नजदीकी पचास लोगो का परिवार है,और मैं सबको हाल बता के पागल हो जाती अतः मैंने पतिदेव के भतीजे,जो कि डॉ. है, और उसकी कोविड अस्पताल में ड्यूटी थी, उसी के परामर्श पर अपने पूरे परिवार का इलाज करने की सोची, उसने बताया चूंकि चाचा जी पॉजिटिव हैं,और आप सभी को एक जैसे लक्षण हैं, अतः आप सभी कोविड की चपेट में हैं,आप अगर सबका टेस्ट करवाएंगी तो इलाज में देर हो जाएगी,सबसे पहले इलाज शुरू करिए, उसे सभी की पूरी जानकारी देकर मैंने सबका इलाज घर ही पे शुरू कर दिया और चौबीस घंटे की ड्यूटी के लिए अपने को तैयार किया,पूरे घर में ऊपर नीचे किसी को काढ़ा,किसी को गरारा,किसी को गर्म पानी दे ही रही थी ऊपर से बार बार डॉक्टर से दवा पूँछना,हाल बताना जारी था, हां इस बीच मैं अपनी डॉ. मित्र से भी बराबर संपर्क में रही उन्होंने कहा कि आपका इलाज सही चल रहा है, गनीमत ये रही कि तीनों बच्चों का(मेड भी लड़की है )बुखार तीसरे दिन उतर गया, परन्त मुझे उसी दिन करीब एक सौ दो बुखार चढ़ गया और गले में भयंकर टीस वाला दर्द शुरू हो गया मुझे,पतिदेव और बेटे को गले में बहुत दर्द हुआ ।हम तीनो बराबर खाँसी, और गले के दर्द से जूझ रहे थे, पर दोनो बच्चियां बिलकुल ठीक थीं, मुझे तीन दिन बुखार आया, फिर बुखार उतर गया । अब असली संघर्ष चालू हुआ,किसी को खाँसी, किसी को गले में दर्द, किसी को अजीब सा जुकाम और मुझे तो साँस लेने में तकलीफ होने लगी, हाँ हम बराबर ऑक्सीजन लेबल चेक करते रहे जो कि भगवान की कृपा से सबका सही रहा ।और हमने आठ दिन तक सभी का इलाज डॉक्टर की सलाह पर किया,तब तक हम सभी बुखार और गले में दर्द से थोड़ी राहत पा रहे थे,सभी का स्वाद जा चुका था । अज्ञानतावश पतिदेव को दवा लेने में थोड़ा विलंब हो गया था, जिससे उन्हें बहुत कमजोरी हुई,बहुत चक्कर आया,पर वो झेल ले गए, बेटा,बेटी, और मेरी प्यारी मेड ने बहुत हिम्मत से काम लिया,मेरी सारी बातें मानते हुए मेरा साथ दिया जिससे वो लोग भी अब काफ़ी ठीक हो रहे थे, स्वाद जाने से बच्चे बड़े परेशान हुए,बेटी तो बार बार रोती थी, कि मैने सबसे कहा था कि दूर रहो ।ये सारी बातें आठ अप्रैल से पच्चीस अप्रैल के बीच की हैं ।
      मेरी तबियत सबसे बाद में और थोड़ी ज्यादा खराब हुई, शायद मैने वैक्सीन नहीं लगवाई थी या सबको संभालने में थोड़ी लापरवाही हो गई । मैंने अपने ऊपर जो प्रयोग किए वो आप सब मित्रजनों से जरूर साझा करना चाह रही हूँ, मैने चिकित्सक के परामर्श के अनुसार एलोपैथी की पूरी दवा ली,इसके बाद मैने कोरोनिल का कोर्स किया,मुझे कोरोनिल का अणु तेल बहुत फायदा किया उससे मेरा गला साफ हो जाता था, (गला हर दो मिनट में भारी और जकड़ जाता था)और हल्की नींद आ जाती थी,जो कि कई दिनों से आना बंद थी,सबसे बड़ी बात मैं रोज सुबह की निकलती हुई धूप में प्राणायाम जरूर करती थी,हालांकि कैसे किया,वो तो एक दुःस्वपन जैसा है,साँस लेने में नाक गले, सब में गंदा तीखा अजीब दर्द होता था इसके अलावा साँस से जुड़े हल्के और अनेकों व्यायाम किए तथा रोज रात में बीस मिनट टहलती थी, हल्के फुल्के घरेलू नुस्खे भी अपनाए, कुल मिलाकर हम धीरे धीरे ठीक हो गए, कोविड पीरियड में हम शरीर के हर अंग में दर्द तथा कमजोरी की वजह से कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं,ऊपर से साँस भी साथ नहीं देती,पर थोड़ा, हल्का प्रयास आख़िर में सफलता का मूलमंत्र बन जाता है,आज सोचती हूँ, तो डर जाती हूँ, कि कैसे हम सब झेलकर बच गए, उस समय का विकट प्रयास हमारे काम आया,और इन्ही सब बातों ने हमें अस्पताल जाने से बचा लिया ।चूँकि उस वक्त अस्पताल तथा ऑक्सीजन सिलेंडर कहीं मिल भी नहीं रहे थे,सब के सब भरे हुए थे, हमने एहतियातन एक सिलेंडर की व्यवस्था भी की।जो बाद में दूसरे के काम आया।
       एक बात और, मैंने कोविड के बुखार के बीच बंद कमरे में अपने को स्थिर रखने के लिए रामचरित मानस के भिन्न भिन्न प्रसंगों पर दस छंद लिखे और अपने को मन न होते हुए भी ब्लॉग पर सक्रिय रखा जिससे मुझे अवसाद से बचने में सहायता मिली, इसके अलावा बच्चों ने बहुत सारे तरीके बताए,मेरा बेटा मुझसे बार बार कहता था मां कोविड से दिमाग से खेलो,सोचो मत कुछ भी, पतिदेव तो दिनभर हमारे कमरे में झांकते हुए सबकी कुशल पूछते थे,पर डांट खा जाते थे कि आप ही लाए हो बाहर से, मेरी बेटी थोड़ा ठीक हो गई फिर कभी वो मेरा सिर,कभी पैर मालिश करती कि माँ को नींद आ जाय, अपनी मेड की क्या कहें ? उस बेचारी की मैने पाँच दिन सेवा की और उसने मेरी पंद्रह दिन बहुत सेवा की ।
     आप सब मित्रों के नेह और आशीष से हम सभी बिलकुल ठीक हैं, रेणु जी से कई महत्वपूर्ण सलाह मिली, और मैने उस पर अमल भी किया, सच कहूँ तो मेरी लेखनी ने भी मेरा बहुत साथ दिया और हिम्मत दी ।  ईश्वर से प्रार्थना है, कि इस महामारी का किसी को सामना न करना पड़े ।।    
"नेह का बंधन ही असली बंधन है ।
नेह ही धन है,जीवन है ।।
नेह करो अपनों से, परायों से
नेह में डूबा जिसका अंतर्मन है ।।
वह हारता नहीं,जीतता है सदा
जो करता नेह का निर्वहन है" ।।
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   शुभकामनाओं सहित.. जिज्ञासा सिंह...