सोचा हुआ नहीं होता जब

 

सोचा हुआ नहीं होता जब

बिखर-बिखर रोता है मन।

दिखती हैं अवरुद्ध दिशाएँ

चारों तरफ़ नया घर्षन॥


आग उगलते शब्द स्वयं के

दूजे के लगते अंगार।

आह कराह दिखे बस संगी

निर्मल जल भी लगता खार।

है खटास की नदी बह रही

बीच भँवर में डोले नाव,

ऊपर से आती लहरों का

अपनी धुन पर अपना नर्तन॥


इधर नदी है उधर समुंदर

दिखता उसके पार हिमालय।

होनी का घर वहीं कहीं पर

हो तटस्थ करती वो निर्णय।

लगी अदालत की चौखट पर

अभ्यर्थी बन शीश झुकाना

वो भी सुन ले एक फ़रियादी

दुःखी खड़ा ले अंतर्मन॥


निःसंदेह सुनेगी होनी

सुनकर अभिप्राय समझेगी।

कड़ुई विषम परिस्थिति का 

वो हँसकर न उपहास करेगी।

विपदाओं के घन काटेगी

इन्द्रधनुष निकलेंगे अगणित,

यही विनय है यही याचना

उसके सम्मुख यही नमन॥


जिज्ञासा सिंह

एक दीपक जल रहा है

 

एक दीपक जल रहा है


आँधियों की बस्तियों में,

एक दीपक जल रहा है।

खा रहा झोंके अहर्निश,

जूझता पल-पल रहा है॥


टूटतीं हैं खिड़कियाँ,

है झाँकती घायल किरन।

हो रहा चारों तरफ़,

नव श्वाँस का आवागमन।

डगमगाते दीप के राहों

में गहरी खाइयाँ,

खाइयों में ही उगा

एक झाड़ बन संबल रहा है॥

हाँ वो दीपक जल रहा है॥


काटता घनघोर तम,

लेकर कटारी ज्योति की।

कसमसाकर निकल आता,

वो सुदर्शन मौक्तिकी।

बंद था जो सीपियों में

एक युग से तिमिर संग,

सज गया माला में शोभित

कंठ में झिलमिल रहा है॥

अब भी दीपक जल रहा है॥


कौन है जो भटकता,

हर एक दिशा में चक्षु खोले।

जुगनुओं के इस नगर में,

दीपकों की ज्योति मोले।

मोम बनकर पिघलना है

जानता पाषाण भी,

है उसी को मूल्य लौ का

जो निरन्तर चल रहा है॥

सच में दीपक जल रहा है॥


जिज्ञासा सिंह