सोचा हुआ नहीं होता जब
बिखर-बिखर रोता है मन।
दिखती हैं अवरुद्ध दिशाएँ
चारों तरफ़ नया घर्षन॥
आग उगलते शब्द स्वयं के
दूजे के लगते अंगार।
आह कराह दिखे बस संगी
निर्मल जल भी लगता खार।
है खटास की नदी बह रही
बीच भँवर में डोले नाव,
ऊपर से आती लहरों का
अपनी धुन पर अपना नर्तन॥
इधर नदी है उधर समुंदर
दिखता उसके पार हिमालय।
होनी का घर वहीं कहीं पर
हो तटस्थ करती वो निर्णय।
लगी अदालत की चौखट पर
अभ्यर्थी बन शीश झुकाना
वो भी सुन ले एक फ़रियादी
दुःखी खड़ा ले अंतर्मन॥
निःसंदेह सुनेगी होनी
सुनकर अभिप्राय समझेगी।
कड़ुई विषम परिस्थिति का
वो हँसकर न उपहास करेगी।
विपदाओं के घन काटेगी
इन्द्रधनुष निकलेंगे अगणित,
यही विनय है यही याचना
उसके सम्मुख यही नमन॥
जिज्ञासा सिंह