बूँद का अभिशाप मत लो
सृष्टि का संहार निश्चित,
है नहीं संदेह किंचित्।
मनुजता सोई पड़ी मृत,
अश्रु का संताप मत लो॥
पृथ्वी छल छल जरी है,
उर्वरा मुँह बल परी है।
कोख में शस्या मरी है,
शोक का प्रालाप मत लो॥
आँगने का दीप रोया,
चार दिन से मुँह न धोया।
आँख में कीचड़ सजोया,
चुप्पियों का ताप मत लो॥
सुन सको तो ये सुनो न,
जो लिखा है वो पढ़ो न।
या कहा उसको बुनो न,
बिन कहे का चाप मत लो॥
जिज्ञासा सिंह