विश्वास करो सब संभव है

विश्वास करो सब संभव है ।
दुर्गम पथ का हर राही ही
झंझावातों से जूझ, बूझ
हर मार्ग बनाता सौरव है ।।

वो ही पड़ाव पर पहुँचेगा,
अपने तलवों को घिस घिस के ।
दुविधा के छाले फूटेंगे,
हर घाव बहेगा रिस रिस के ।
गूलर की छालें छील पका
जो सरस बनाता अवयव है ।।

जब धीर बढ़े, गंभीर चले,
दोनों कर जुड़े हुए पथ में ।
शाश्वत सत विचरे भाव प्रबल,
बैठे स्थिर दोनो रथ में ।
झाँझर बजती नूपुर गाते,
संग झूम नाचती ये भव है ।।

जो ले विराग का भाव चले,
रूठे है हवाओं की धुन है ।
है धूल धूसरित वातचक्र, 
घनघोर अनर्गल गर्जन है ।
थकती जाती मति की गति भी,
पीड़ा का होता उद्भव है ।।

जो था विराट वो हुआ लघू,
हर चोटी को कर गया नमन ।
कैसे क्यों कब उत्तुंग छुए,
कब ठहर गए कब हुआ गमन ।
सब कुछ विस्मृत हो जाता जब,
चहुँ ओर मार्ग दिखता नव है ।।

ये बड़ी प्रबलता का क्षण है,
अपने अंदर की शक्ति संजो ।
जो बरगद जैसा वृक्ष बने,
ऐसे ही बीजों को तू बो ।
खग विहग सजाएँगे दुनिया,
सदियों तक गूँजे कलरव है ।।

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल

आज़ादी के मतवाले

मातृभूमि पर प्राणों की
ओ आहुति देने वाले
आज़ादी के मतवाले 

पत्ता पत्ता तिनका तिनका
तेरा आज ऋणी है ।
तेरे त्याग तपस्या से 
सिंचित अपनी धरणी है ।।
वीर पुरुष ओ वीर सिपाही
वतन है तेरे हवाले
आज़ादी के मतवाले

तूने अपना लहू दिया
एक पल भी न कुछ सोचा
दुश्मन से दिन रात लिया
सरहद पर डटकर मोर्चा
ऐसे सेनानी को झुककर
मस्तक आज नवा ले
 आजादी के मतवाले

तेरी श्रद्धा तेरी भक्ति
तेरा समर्पण है भारत
राष्ट्र के आगे छोड़ गए 
परिवार,मित्र, घर, दौलत 
तन मन न्योछावर तुझपे
रणभूमि पे लड़ने वाले 
आजादी के मतवाले

आज़ादी जिसने दिलवायी
अगर भूल जाएँगे 
फिर से वही गुलामी होगी
दासत्व में घिर जाएँगे 
दे सम्मान उन रणधीरों को 
अपने शीश बिठा लें
आजादी के मतवाले

गणतंत्र दिवस पर सभी शूरवीरों को सादर नमन💐👏
**जिज्ञासा सिंह**

गुलाबो के फूल (बालिका दिवस)


फुलवा चुन चुन चलीं गुलाबो,मंदिर आज सजाने ।
नील कंवल से नैना झिलमिल, बिन बतियाँ मुस्काने ।।
सुमधुर बिहँसन देख सभी, सम्मोहित हो हो जाएँ ।
खड़ी गुलाबो निरख रहीं, औ नैनों से बतियाएँ ।।

कानन कुंडल छबी अनोखी, मेहंदी हाथ रचाए ।
है मासूम कली सी खिलती, सबके मन बस जाए।।
चंचल मन की चंचल खुशियाँ, न जानें बेचारी ।
बाली उमर में काम करे वो, निर्धनता से हारी ।।

पढ़ने की है उमर, खेलने का उसका अधिकार ।
नहीं जानती है समाज वो, न जाने सरकार ।।
डलिया में भर फूल, सभी से करती है मनुहार।
उन पैसों से आज चलेगा, उसका घर परिवार ।।

कोई समझे विकट विवशता, उसके बालेपन की ।
नन्हीं सी ये स्वयं कली है, वाट लगी बचपन की ।।
बचपन में जब मिली न रोटी, शिक्षा क्या पाएगी ?
ये समाज की रीढ़ है, नीचे झुकती ही जाएगी ।।

ये पिछड़ी तो स्वयं पीढियाँ, घुटने पे रेगेंगी ।
बेटी अंबर खाक चढ़ेंगी, फुलवा ही बेचेंगी ।।
चलो सभी मिल जुलकर, ऐसे कदम बढ़ाएँ ।
फुलवा वाले हाथ, हवा में यान उड़ाएँ ।।

**जिज्ञासा सिंह**

पथ के अनुगामी



वटवृक्ष घनी छाया का जब
अनुभव अन्तर्मन सीख चले
शीतलता के उस आँगन में
तुम दीप जलाना आज प्रिये ।।

नैनों से झरती एक बूँद जब
सिंचित कर दे मरुभूमि
गीली रेतों के प्रांगण में
तुम पौध लगाना आज प्रिये ।।

अंधी संकियारी कुइंयाँ में
उतराते मन के घट लुढ़कें
गांठों की कड़ियाँ ढीली कर
तुम जल भर लाना आज प्रिये ।।

चहुँ ओर तिमिर घनघोर घना
है दूर मयूख कहीं नभ में
उस नवल किरन की छाँव तले
तुम बढ़ती जाना आज प्रिये ।।

भौतिकता औ विलास छादित
जब चकाचौंध चमके दृग में
अनुशीलन कर गहरी नदिया
की धार बहाना आज प्रिये ।।

जग का, मन का औ जीवन का
अवरुद्ध विषम हर मार्ग दिखे
फिर मातुपिता के चरणों में
जाकर झुक जाना आज प्रिये ।। 

**जिज्ञासा सिंह**

सर्द मौसम की बारिश


ये बारिश का मौसम लगता बड़ा सुहाना
याद आता मेरी गलियों में तेरा आना 

झाँक के धीरे से मेरा दरवाजा तकना
छज्जे पे मेरे दिखते ही बंगले झँकना
शरमा के वो बगल की गलियों में मुड़ जाना
ये बारिश का मौसम लगता बड़ा सुहाना ।।

मैं रिक्शे में बैठी बिलकुल छुई मुई सी
जैसे कली खिले सेमल की नई रुई सी
तुझे देखते ही पलकों का स्व झुक जाना
ये बारिश का मौसम लगता बड़ा सुहाना ।।

हाय कसम से उँगली दाँतों में दब जाती
सखियाँ तेरी बातें सुन जब थीं मुस्काती
और कलेजा धक से बिलकुल जम सा जाना 
ये बारिश का मौसम लगता बड़ा सुहाना ।।

कभी कनखियों से दर्पण मैं देखूँ ऐसे
देखूँ दर्पण मैं, दिखती छवि तेरी जैसे
शरम के मारे मेरा खुद से ही शर्माना 
ये बारिश का मौसम लगता बड़ा सुहाना ।।

भीगे बदन सरकती ओढ़नी जब भी सर सर
अगल बगल मैं देखूँ अपने इधर उधर
गज़ब तुम्हारी नजरों का जब हो टकराना
ये बारिश का मौसम लगता बड़ा सुहाना ।।

वो ऋतुएँ, वो साँझ, भोर औ भरी दुपहरी
सब भूलूँ पर ना भूलूँ बरसात सुनहरी
कमसिन उमर और बारिश का साथ पुराना
ये बारिश का मौसम लगता बड़ा सुहाना ।।

**जिज्ञासा सिंह**

प्यारे राजनीति में आएँ


घट और घाट सभी कुछ निर्जन ।
झड़कर उजड़ चुके हैं कुंजन ।।
बड़ा बवंडर छाया भू पर,
सबसे छुपके नजर बचाएँ ।
प्यारे राजनीति में आएँ ।।

वो भूखा है, रहने दो,
बिन कपड़े के जीने दो ।
उसका बोझ उसी के द्वारा, 
सिर पर उसको ढोने दो ।।
किसे जरूरत है कि उसके
वोट की कीमत उसे बताएँ ।
प्यारे राजनीति में आएँ ।।

घर, बिजली, पानी और सड़कें,
सजी रजिस्टर में बढ़ चढ़ के ।
देने वाला प्यार से देगा,
यहाँ नहीं मिलता कुछ लड़ के ।।
मिल जाए तो खाओ सब्जी
वरना रोटी चटनी खाएँ ।
प्यारे राजनीति में आएँ ।।

लाखों लाख योजना निशदिन,
बनती है अपनी खातिर ।
लालच का बाजार सजाए,
बैठ गए हैं सब शातिर ।।
थैला लेकर जो पहुँचेगा
उसकी लेते सभी बलाएँ ।
प्यारे राजनीति में आएँ ।।

दल बदलुओं की भीड़ लगी है,
मान मनौवल जारी है ।
कभी इधर हैं कभी उधर हैं,
कहते सबसे यारी है ।।
जाएँगे वो वहीं खुशी से
सपरिवार जो उन्हें बुलाएँ ।
प्यारे राजनीति में आएँ ।।

खादी की बाजार सजी औ,
राजनीति का मौसम है ।
लकदक कुर्ता पाजामा औ,
उस पर टोपी रेशम है ।।
नहीं पूँछ है दीन हीन की
दुखियारा क्यूँ रूप दिखाएँ ?
प्यारे राजनीति में आएँ ।।

कुर्सी, मेजें, सिंहासन बन,
जगह जगह हैं सजी हुई ।
गेंदे की माला से गर्दन,
ऊपर तक है भरी हुई ।।
बस में लदकर चले आ रहे
बूढ़े, बच्चे औ महिलाएँ ।
प्यारे राजनीति में आएँ ।।

**जिज्ञासा सिंह**

आया लोहड़ी का त्योहार..(बाल कविता)

 आया लोहड़ी का त्योहार

आया लोहड़ी का त्योहार,
हर्षित पूरा है परिवार ।
रंग बिरंगी लड़ियों से है
सजा हुआ सबका घर द्वार ।।

ढूंढ ढूंढ के सूखे सूखे
लकड़ी उपले सजा रहे हैं ।
हाथ सेंकते घूम घूम के
अगिन के फेरे लगा रहे हैं ।।
बजा बजा के ताली गाते
नाचें झूम, मची झनकार ।
आया लोहड़ी का त्योहार ।।

कोई खाए तिल की पपड़ी
कोई मूंगफली की खाय ।
गजक रेवड़ी तरह तरह की
मित्रों को तोहफा दे आय ।।
मम्मी दादी आज बनाएँ 
सारे व्यंजन जयकेदार ।
आया लोहड़ी का त्योहार ।।

सुंदरी मुंदरी, दुल्ला भट्टी
कथा सुनाते दादा जी ।
कैसे वीर योद्धा थे वो
हमें बताते बड़े सभी ।। 
कहते तुम भी वीर बनो
औ दुश्मन का कर दो संहार ।
आया लोहड़ी का त्योहार ।।

मित्रों औ अपने प्रियजन संग
हम हैं सदा मनाते लोहड़ी ।
एक दिन बाद है आने वाला
प्रिय त्योहार हमारा खिचड़ी ।।
उस दिन भी हम मजे करेंगे
साथ रहेंगे सारे यार ।
आया लोहड़ी का त्योहार ।।

**जिज्ञासा सिंह**

कोरोना की आहट

फिर रीता सा शहर दिखे है मेरा ।
भारी मन से हवा बहे,
गम का दिखे बसेरा ।।

काली काली घिरी घटाएँ 
मुंडेरी पर लटकी आएँ, 
हैं जल से वो लदी हुई
कब भेहरा के वो बह जाएँ,  
किस ऋतु का ये कैसा मौसम
चारों तरफ़ घनेरा ।।

ऊपर की साँसें ऊपर हैं
नीचे धरती खिसक रही,
नई दुल्हन की चादरिया
भी रह रह करके धसक रही,
ढाँढस भी अब कौन धराए
अपनों ने मुँह फेरा ।।

आहट घबराहट की ऐसी
शंका है, शंकालु सभी,
कौन किधर से कब निकला है
किससे मिलकर अभी अभी,
मिलना-मिलन सभी कुछ दुर्लभ
सिमटा खुद में डेरा ।।

बंधीं बल्लियाँ, कसी रस्सियाँ 
दिखें कई दरवाजों पर,
दिनचर्या भी हुई संयमित
रोक लगी है साजों पर,
दिखे हर तरफ फिर से दहशत
खामोशी ने घेरा ।।

जीवन का अकाट्य शत्रु
ये पैर पसारे घर घर,
क्षणिक चूक से बनके मेहमां
आ जाता ये सजकर,
नहीं देखता दिन-रैना ये
संध्या और सवेरा ।।

धीरे धीरे पैठ बनाकर 
अंदर घर कर लेता,
दारुण दुख की हर पीड़ा
को रोम रोम में देता,
अरि जैसा ये घात लगाता
जीवन चैन लुटेरा ।।

कोई इसको कोविड कहता
कोई कहे करोना,
सबको इसने दर्द दिए हैं
सबका इससे रोना,
जाति न कोई धर्म न कोई
न तेरा न मेरा ।।

**जिज्ञासा सिंह**

हिंदी में है दम


 "जागृति" पिक्चर में कवि प्रदीप के लिखे गाने 
"आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की" की तर्ज़ पर लिखी "हिंदी दिवस" पर मेरी रचना:- 

हिंदी अपनी जूझ रही है, भाषा के अधिकार में ।
आओ सुदृढ़, समृद्ध करें हम, और इसे संसार में ।।
हिंदी में है दम, हिंदी में है दम.....

आज मिलावट की भाषा को, लोग मान्यता देते हैं,
अंग्रेजी के लिए स्वयं की, भाषा पे लड़ लेते हैं,
अपनी हिंदी नौसिखिया, ज्ञानी बेचे बाजार में ।
आओ सुदृढ़, समृद्ध करें, हम और इसे संसार में ।।
हिंदी में है दम, हिंदी में है दम... 

साँसों और लहू में बहती, हिंदी बहती रग में है, 
अपनों ने ही हिंदी का, अपमान किया इस जग में है,
हिंदी अपनी भाषा है, अंग्रेजी मिली उधार में ।
आओ सुदृढ़, समृद्ध करें, हम और इसे संसार में ।।
हिंदी में है दम, हिंदी में है दम....

गहन व्याकरण की जननी, ये भाषाओं में उत्तम है,
विज्ञानी भी इसे मानते, ये भाषा सर्वोत्तम है,
पढ़ो, पढ़ाओ बच्चों को, बोली जाए परिवार में ।
आओ सुदृढ़, समृद्ध करें, हम और इसे संसार में ।।
हिंदी में है दम,हिंदी में है दम...

हिंदी है जन जन की भाषा, अपना उसका गौरव है,
इसे बोलना और समझना, बड़ा सरल औ सौरव है, 
शामिल करना हमें इसे है, जन जन के उद्गार में ।
आओ सुदृढ़, समृद्ध करें हम और इसे संसार में ।।
हिंदी में है दम, हिंदी में है दम...

**जिज्ञासा सिंह**

ज़िंदगी मेरी सहचरी


आज तो एक सिरा जाल का ही काटा है,
अभी तो लाख सिरे काटने को बाकी हैं ।
आज तो देख ली है एक झलक ही तुमने,
अभी तो देखना जीवन की मेरे झाँकी है ।।

यही सदियों से कहा मेरे सभी अपनों ने,
तू तो सहने के लिए इस जहान में आई ।
अरी नादान छोड़ लड़कपन की नादानी, 
तू एक स्त्री है, सदियों से गई भरमाई ।।

नज़र का क्या कहूँ ? उसने भी क्या नहीं देखा,
सदा झुकती रहीं, मासूम पुतलियों के संग ।
मगर तू देती रही हौसला सदा मुझको,
सजी तकदीर की रेखा हथेलियों के रंग ।।

उठाऊँ जैसे कदम रखूँ पहली सीढ़ी पे, 
कोई न कोई मेरी राह में बाधा आए ।
सोचकर यही सदा बढ़ती रही राहों पे, 
काँटों संग फूल खिले और सदा मुसकाए ।।

अरी ओ जिंदगी तुझसे करुँ शिकायत क्या ?
जख्म लेकर धरा पे जनम हुआ था मेरा ।
तुझे ही शुक्रिया कहती हैं मेरी हर साँसें,
जुबाँ थकती नहीं है मानते एहसाँ तेरा ।।

तूने मुझको सिखाया कदम कदम कैसे चलूँ, 
और मै काट बंधनों को आगे बढ़ती रही ।
उसी क्रम में बची हैं बेड़ियाँ अभी भी कई,
तोड़ने की सदा तू प्रेरणा बनती ही रही ।।

मिला जो साथ तेरा यूँ ही तेरी बाँहों में, 
झूलकर आसमाँ भी छू लूँगी मैं एक दिन ।
यही है कामना तू बन के मेरी यूँ साथी, 
सम्भाल लेगी मुश्किलों के आते हर पल छिन ।।

**जिज्ञासा सिंह** 
 

तिलस्मी मन


देश दुनिया जीत ली, मन से जो हारा
हारकर अपने से, होता बेसहारा ।।

ऐ मनुज है भाग्य तेरा अर्थ जग में,
तू खड़ा परिचय निकाले स्वयं मग में ।
है वही कामी, वही नामी जहाँ में,
जीत जिसके भाव में, हर एक रग में ।
वो ही मोती बन के माला में सजे,
उसका ही झूमें नगीना बन सितारा ।।

मन हुआ दृढ़ और चंचल पल ही पल में,
डूबता कीचड़ में, उतराता है जल में ।
अंकुरण प्रस्फुटित होता बीज में फिर,
भोर खिल कर बदल जाता है कमल में ।।
चढ़ है जाता लक्ष्मी के चरण में वो,
फिर वो जाता नैन सारे जग निहारा ।।

एक पापी मन कभी अपना न होता,
इस जगत के बंध्य खुद में ही पिरोता ।
दीर्घ लघु हर मार्ग पर खुद को फँसाता,
गर्धपों सा पीठ पर हर भाव ढोता ।।
है समझता शीर्ष पर ऊपर है वो पर,
स्वयं के चक्षू से जाता है उतारा ।।

इस तिलस्मी मन को जो भी जीत ले,
मन से मन की, मन विजय की नीत ले,
जीतकर जग में करे प्रस्थान मन से,
तू भला है या बुरा, सुभीत ले ।।
तू ही मन का,मन ही तेरा,
हर विषमता और समता में सहारा ।। 

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल 

हँसे नववर्ष !


नवागत वर्ष,
हर्ष हो हर्ष ।
सजे कचनार ।
गगन गुलजार ।।

सघन वन सजे ।
शरद ऋतु रजे ।।
कटीली झाड़ ।
कुसुम की आँड़ ।।

छुपी जाए ।
वो शर्माए ।।
कहे ऋतुराज ।
चले हैं साज ।।

बसंती रंग ।
मैं हूँ बेरंग ।।
मिलूँ कैसे ?
समुख उनसे ।।

कहेगा वो ।
हंसेगा वो ।।
कटीली हूँ ।
नुकीली हूँ ।।

अरे ऐ मन ।
न कर अनमन ।।
मैं हूँ जैसी ।
मगर फिर भी  ।।

उसी की हूँ  ।
मैं देती हूँ ।।
सदा संबल ।
वो जाता खिल ।।

खड़ा मधुमास ।
जगाता आस ।।
करूँ स्वागत ।
वो है आगत ।।

कुसुम ले नव ।
बिहँसती भव ।।
भ्रमर के गीत ।
मधुर संगीत ।।

घुला जग में ।
मेरे रग में । ।
हँसे नव वर्ष ।
दिखे उत्कर्ष ।।

सभी खुश हों ।
जगत सुख हों ।।
यही विनती ।
मैं हूँ करती ।।

**जिज्ञासा सिंह**