सरगमी धुन
और बसंती ऋतु।
एकटक हूँ
हो गई हूँ बुत॥
झुंड में लहरों पे उड़ना
चहचहाना चोंच भरना।
एक लय एक तान लेके
फ़लक पे जाके उतरना॥
झूमते-गाते परिंदे
चल दिए मेरी नदी से,
नैन खोले मैं खड़ी
हूँ दृश्य है अद्भुत॥
कूकती कुंजों में कोयल
पीकहां बोला पपीहा।
डोलता मद में भ्रमर
मकरंद भरकर एक फीहा॥
पीत वस्त्रों में
सुसज्जित ये धरा,
इतरा रही है
प्रेमरंग में धुत॥
खोल दी हर गाँठ ऋतु ने
दूर तक उजास है।
दिख रहा है उस जहाँ तक
रंग और उल्लास है॥
धूप दे अपने परों को
चेतना उनमें भरी है,
आज जीना चाहती हूँ
भाव ले अच्युत॥
**जिज्ञासा सिंह**