भ्रम का झूला

 

सुखद भ्रमों का झूला टूटा।

पेंगों ने रह-रह कर लूटा॥


लटक रहा रेशम डोरी पे,

झूला था मन के आँगन में।

झूल रहा था रोम-रोम मेरा,

वो बाँधे निज आलिंगन में।

मैं झूली कुछ ऐसे झूली

भूल गई अपनी काया भी,

खुलती जाती डोर स्वयं से

बिखरा जाता बूटा-बूटा॥


झूले की शाखें-शाखों में,

कुसुम सुरंगी खिले हुए थे।

देखा नैनों से अपने ही,

भौंरे घुलकर मिले हुए थे।

चूस-चूस मकरंदों को वे

मुझमें विस्मय भरते जाते, 

हिस्से में उतना मैं पाई

जो उनके अधरों से छूटा॥


टूटा झूला गिरा धरा पर,

करता है अब चित अवचिंतन।

उस झूले पर क्यों झूली मैं,

जो न बना मेरा अवलंबन।

था निर्दृष्टि भाव वो पूरित

जानें क्यों बनकर मैं संगी,

झूले के स्वप्नों संग सोई

जागी तो निकला सब झूठा॥


जिज्ञासा सिंह

वो मेरे बचपन का आँगन


खंडहर बन झड़ रहा है


नेह की ईंटें जड़ा वो,

सौ बरस से है खड़ा जो।

त्याग तप औ साध्य श्रम,

की ही मिसालें दे रहा जो।

वो मेरे बाबा का मस्तक,

और पिता का धड़ रहा है।

हाँ मेरे बचपन का आँगन,

खंडहर बन झड़ रहा है॥


कूँजते नन्हें विहग औ,

चहकतीं किलकारियाँ।

खेलते सिकड़ी व कंचे,

साथ में फुलवारियाँ।

उँगलियों को पकड़ जो

सरपट चली थी लेखनी,

ढूँढ कर मासूम मन के 

भाव को मन पढ़ रहा है॥


दर दीवारों से निकल जो,

गुम्बदों में जा लगे।

धूल के वे पाँव अब तो,

चाशनी में हैं पगे।

जो पगे एक बार तो फिर,

देखते न मुड़ कभी

इस नई तृष्णा का आँगन

फूलकर खिल बढ़ रहा है॥


जिज्ञासा सिंह