सुखद भ्रमों का झूला टूटा।
पेंगों ने रह-रह कर लूटा॥
लटक रहा रेशम डोरी पे,
झूला था मन के आँगन में।
झूल रहा था रोम-रोम मेरा,
वो बाँधे निज आलिंगन में।
मैं झूली कुछ ऐसे झूली
भूल गई अपनी काया भी,
खुलती जाती डोर स्वयं से
बिखरा जाता बूटा-बूटा॥
झूले की शाखें-शाखों में,
कुसुम सुरंगी खिले हुए थे।
देखा नैनों से अपने ही,
भौंरे घुलकर मिले हुए थे।
चूस-चूस मकरंदों को वे
मुझमें विस्मय भरते जाते,
हिस्से में उतना मैं पाई
जो उनके अधरों से छूटा॥
टूटा झूला गिरा धरा पर,
करता है अब चित अवचिंतन।
उस झूले पर क्यों झूली मैं,
जो न बना मेरा अवलंबन।
था निर्दृष्टि भाव वो पूरित
जानें क्यों बनकर मैं संगी,
झूले के स्वप्नों संग सोई
जागी तो निकला सब झूठा॥
जिज्ञासा सिंह