आज मन मेरा
मुसाफ़िर फिर चला है।
भागता अपने
मुताबिक़ मनचला है॥
कह रही हूँ मान जा पर
वो मेरी सुनता नहीं है।
भावनाओं की मेरे वो
कद्र अब करता नहीं है॥
तू वही है पूँछती क्या?
आज उसके लग गले,
जो विषमताओं में
पग-पग चाहता मेरा भला है।
चुप हुआ जाता है
मेरे पूँछने पर जाने क्यूँ?
बालपन से आज तक
रूठा कभी मुझसे न यूँ॥
लाख मन उसका कुरेदूँ
हाथ न आए मेरे।
लग रहा नादानियों ने
फिर मेरी उसको छला है॥
मैं पकड़ पाऊँ न उसको
डोर उसकी दूर तक।
भ्रमणकारी पाँव मन के
भागता है बेधड़क॥
वो चला जाएगा तो कुछ
न बचेगा पास मेरे,
सोचकर घबरा गई
ये कौन सी उसकी कला है?
मन है मैं हूँ और दूजा
है नहीं कोई यहाँ।
लौट आया फिर भटक कर
दूर तक जाने कहाँ?
झाँकता आँचल उठा के
दे रहा मुझको तसल्ली।
छोड़कर जाना मुझे सच
में बहुत उसको खला है ॥
**जिज्ञासा सिंह**