क्षणिकाएँ


आँचल
स्नेह और ममता भरा
राज छुपाए आंसुओं का गहरा
कभी आह्लादित कभी विहवल

नैन
समेटे समंदर
कजरारे, रत्नारे बडे़ सुंदर
चलाते वाण करते बेचैन

केश
काले घटाओं से
बात करते सतरंगी हवाओं से
रूठते, बदल देते वेश

आलिंगन
भुलाता सदियों का दर्द
कभी गर्मजोशी कभी सर्द
अपनत्व का पुनर्मिलन

हृदय
अकुलाहट, बेचैनी, डर
प्रेम, तपस्या, त्याग का घर
कभी भय, कभी निर्भय

**जिज्ञासा सिंह**

जंगली जानवरों का शहर आगमन

भेड़िए का रूप धरकर काल आया
काल ने पहले मुझे कुछ यूँ चिढ़ाया

देख ले मैं आ गया हूँ, स्वयं चलकर
भागना मत ऐ मनुज ! तू मुझसे डरकर
तूने ही तो आके मुझको था बुलाया

मैने तुझसे कब कहा था दो निमंत्रण
था बंटा मेरा तुम्हारा मार्ग कण कण
फिर भी तू मेरी जमीं को रौंद आया

मित्र मैं कैसे न आऊँ द्वार तेरे
जब लगाता तू मेरे हज्जार फेरे
बन के तू घुसपैठिया सब लूट लाया 

क्षीण वन की संपदा तुमने ही की है
खोखली है माँद वृक्षों की कमी है
होके मैं मजबूर तेरे शहर आया

अब डरो या देखकर मुझको मरो तुम
मुझसे बचने की मशक्कत सौ करो तुम
डाकुओं को कौन किसने कब बचाया

जानवर मैं, तू है मानव इस धरा पे
है बड़ा मुझसे भी दानव वसुधरा पे
अब मैं जाके हूँ तुझे कुछ समझ पाया
भेड़िए का रूप.....
    
   **जिज्ञासा सिंह**

नदिया तू तो अम्मा जैसी


मेरे दुख सुन तू रो जाती,
मेरी खुशी में बिहँसी ।
नदिया तू तो अम्मा जैसी ।।

ऊबड़ खाबड़,कंकर,पत्थर,
खोहों में जब फंस जाऊँ ।
दुर्गम झंझावातों में,
उलझी उनको दिख जाऊँ ।।

अम्मा बिलकुल ऐसे तड़पें
तेरी लहरों जैसी ।

अवघट रस्तों में फंसकर,
मेरे कदम जरा भी फिसलें ।
जैसे सरिता में डूबी वो,
बाहर अंदर तड़पें, निकलें ।।

अम्मा रह रह ऐसे कटतीं,
तेरी कटानो जैसी ।

अपनों के सह व्यंग बाण,
जब उनके हिय लग जाऊँ ।
सागर की धारा में जैसे,
बूंद बूंद घुल जाऊँ ।।

मेरी जुदाई में वो झरतीं,
सूखी रेतों जैसी ।
नदिया तू तो अम्मा जैसी ।।

**जिज्ञासा सिंह**

टूटा तारा



नभ से टूटा तारा
जाने गया कहाँ ?

टूटा तारा
शायद टूटे
मन को भाया ।
अपनों ने दोनों 
को खुद से
तोड़ गिराया ।।

तारे को मन के अंदर 
मिल गया जहाँ 

दोनों हिल मिल
एक दूजे के 
संग में रहते ।
अपनी व्यथा 
घुटन खुद ही से
जब तब कहते ।।

बात न बनती कहने से
कुछ यहाँ वहाँ

टूटे मन औ 
टूटे तारे 
फिर न जुड़ते ।
जुड़ भी जाएँ 
उधड़ उधड़ कर 
गिर गिर पड़ते ।।

बिखरे मिलते इधर उधर 
और  जहाँ तहाँ

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल

क्या सावन है


क्या सावन है 

सुआ हरा हरा
आसमान भी हरा हरा
तलैया हरी हरी
निमिया हरी हरी 
दृश्य लुभावन है 
क्या सावन है ?

गाँव झूमे 
बगिया झूमे  
हरसिंगार झूमे 
बाँसकोठी गिर गिर झूमे 
बहे पुरवैया बयार सुहावन है 
क्या सावन है 

झींगुर गाए  
पपिहा गाए 
भौंरा गाए 
गोरी गाए 
कजरी,मल्हार मनभावन है 
क्या सावन है

नौ मन बरखा
झर झर बरखा
झिमिर झिमिर बरखा
बदरी बरखा
सतरंगी छावन है
क्या सावन है

घंटा बजे
घड़ियाल बजे
डमरू बजे
करताल बजे
रग रग पावन है
क्या सावन है...

**जिज्ञासा सिंह**

परिस्थिति का मारा


ये लाल परिस्थिति का मारा
किसकी आँखों का तारा है ।
न साथ में मातु पिता इसके
न दिखता कोई सहारा है ।।

कुछ एक घड़ी पहले मैंने
देखा था दौड़ लगाते इसे
मेरी गाड़ी उसकी गाड़ी
के आगे पीछे जाते उसे

मेरे भी केशों की सज्जा को
वेणी लेकर आया था
बोला था ले लो एक लड़ी
दस रुपया दाम बताया था

मैं कहूँ तू ले ले दस रुपया
पर वेणी नहीं खरीदूँगी
तू मुझसे ज़िद मत कर प्यारे
मैं बीस रुपैया दे दूँगी

वह बोला मुझसे तान भृकुटि
क्या तुम्हें भिखारी लगता मैं
अपने सम्मान की खातिर ही
फूलों की फेरी करता मैं

बिन मातु पिता का बालक मैं
पर जिसने मुझको पाला है
उसने मेहनत की रोटी का ही
मुझको दिया निवाला है

मैं हूँ जरूर जग में अनाथ 
पर मेहनत करना जानूँ मैं
भूखा प्यासा सो जाऊँ मैं
पर स्वाभिमान को मानू मैं

**जिज्ञासा सिंह**

भारत भूमि को मेरा नमन (स्वामी विवेकानंद जी को समर्पित)


एक नमन हमारा ले लो ही भारत भूमि पियारी 

मस्तक तेरे तिलक लगाएँ चंदा तारे सूरज 
निशदिन जल से चरण पखारें गंगा जमुना सतलुज 
अंतरिक्ष तक चमके उज्ज्वल छवी तुम्हारी 

ऋषियों मुनियो ने जब खोली घनी जटाएँ 
जा अम्बर पे लिख दीं सुंदर वेद ऋचाएँ 
अंतर्मन के चक्षु खुले और खिली ज्ञान की क्यारी 

आर्यभट्ट का शून्य, व्यास का गीता ज्ञान निराला 
वाल्मीकि की रामायण मीरा का गीत गोपाला 
सूर और तुलसी की गाथा पढ़ती दुनिया सारी 

मन में बसी अयोध्या औ मथुरा में प्राण हमारे ।
काशी मुक्ति मार्ग दिखलाती,मन में चारो धाम बसा रे  
मातु पिता के चरणों की रज हमको जान से प्यारी 

संविधान का मूलमंत्र ही है अभिमान हमारा    
संस्कृति और सभ्यता का गुण देखा विश्व ने प्यारा 
जब नरेंद्र की भरी सभा में गूंजी घंटों तारी 

**जिज्ञासा सिंह**   

जंगल में सावन ( बाल कविता )


इकतारे पे गाय रही कोयलिया
झूमती मोरनी, तोता, तीतर, गौरैया

दृश्य है,सुंदर मधुर सुहावन
झूमता संग संग सारा मधुबन
आ गई मैना होठों पे रक्खे बाँसुरिया

मेंढकों ने तबले पे छेड़ी है जो सरगम
नगाड़े झूम बजाएं भालूराजा डमडम
नाचती घूम रही हिरनी बांधे पैजनियां

बिलों से झाँक रहे हैं गोजर, बिच्छू, चींटी
बदलता रंग, बजावे नन्हा गिरगिट सींटी
नाग ने काढ़ा फन औ झूम उठी नागिनिया

आ गए जंगल के राजा बैठे सिंहासन 
सामने हाथी घोड़ा जमा के बैठे अपना आसन
सियारों और गंधों के बीच दिखावे करतब है बाँदरिया  

जाके बगुलों और बतखों ने बिगुल बजाया
मची है जंगल में दुंदुभी,झूम कर सावन आया
भीगकर मगन हो रहे, झीलों में कछुआ माछरिया

**जिज्ञासा सिंह**

नदी सहारा ढूँढ रही (बाढ़ )


नदी सहारा ढूँढ रही 

भर भर भर भर कटे कटान
गिरे जा रहे बने मकान
नागिन जैसी फन फैलाए
अपना चौबारा सूंघ रही

बूढ़े बाढ़े कई दरख़्त
नदी मुहाना रखते सख्त
काट काट कर दिए गिरा
अब जड़ पकड़े वह झूम रही

वृक्षों पर रहते थे पक्षी
मनुज बन गया उनका भक्षी
विहगों की यादों में डूबी
सरिता दर दर घूम रही

नदी की धारा बन विपदा 
कुछ छोड़ेगी भी नहीं पता
गली गली कूचा कूचा अब 
देहरी अँगना चूम रही 

वो नदी है उसको बहना है
वो इस धरती की गहना है
जो उसका चमन उजाड़े हैं
ले करवट उनको ढूँढ रही 

**जिज्ञासा सिंह**

झरनों का संगीत


झरनों का संगीत सुना तो होगा
मद्धिम गाते गीत सुना तो होगा
कल कल छन छन उज्ज्वल सी बहती धारा का 
आते जाते प्रीत सुना तो होगा

कितने प्रस्तर कितने कंटक राह में आए
सबके सम्मुख अपना मस्तक सदा उठाए
बूंद बूंद से सागर की लहरों की मानिंद
हार में भी एक जीत सुना तो होगा

झरना झर झर अपना सब कुछ देता झाड़
कितना हो दुर्गम, कितना हो खड़ा पहाड़
चलकर रुकना, बीच में थकना न जाने वो
सदा विजय की नीत सुना तो होगा

राह में मिलती गंध छोड़ता जाता वो
नभ की मधुर सुगंध धरा पर लाता वो
नैनो में बस जाता, हिय की प्यास बुझाता
हर मन का मनमीत सुना तो होगा

**जिज्ञासा सिंह**

बहरूपिए भिखारी


बने भिखारी खड़े हुए

गंदली दाढ़ी,फटी जुराबें
फटेहाल दिखते भी मुझको
बास तुम्हारे मुँह की कहती
रोटी नहीं मिली कल तुमको
  
लिए कटोरा घूम रहे
अब मेरे द्वारे गड़े हुए

कभी शहर के इस कोने पे
कभी दिखे उस कोने पर
कितने चक्कर रोज़ मारते
खाने के एक दोने पर

लगता है बस भीख मांगते
छोटे से तुम बड़े हुए

अरे मनुज हो कभी तो सोचो
क्यों कर इस जग में आए हो
देह तुम्हारी हृष्ट पुष्ट है
मन से केवल भरमाए हो

कहूँ अगर कुछ कर्म करो
तो सीना ताने अड़े हुए

ऐसी क्या मजबूरी है जो
कर्म न करना चाहो तुम
भीख मांगकर पेट पालने
का पेशा अपनाओ तुम

तरह तरह का रूप धरे
तुम सबके पीछे पड़े हुए

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र-गूगल से साभार 

बचपन के दोस्त


 चलो दोस्त फिर से मुस्कुरा लें । 
ज़्यादा नहीं बस थोड़ा सा,
अपने लिए वक़्त निकालें ।।

याद करें वो घड़ियाँ,

जब खेलते थे हम ताई की बनाई गुड़ियाँ,

मन की ढेरों यादों से,

अपनी कुछ नन्ही सी यादें चुरा लें ।

चलो...


याद करें वो स्कूल के दिन,

खो खो खेलते,कंचे रखते गिन गिन,

झिलमिलाते कंचों सी,

अपनी यादें रंगीं बना लें

चलो...


याद तो होगा ही झूलों पे लम्बी पेंगें लगाना,

हरे लाल गुलाबी दुपट्टों का लहराना,

पत्तियों की सही कीप से ही,

मनमोहक मेहंदी रचा लें ।

चलो...


याद है मुझे मेरी हर ख़ुशी में तुम्हारा ख़ुश होना,

मेरे छोटे से ग़म में मुझसे पहले रोना,

यादों के मोतियों को पिरो,

माला बना सीने से लगा लें ।

चलो...


दोस्त तो दोस्त होते हैं हमेशा,

कोई रिश्ता नहीं होता उनसा,

साल भर सही बस एक दो पल ही,

एक दूसरे को आँखों में बसा लें ।

चलो...


       **जिज्ञासा सिंह**