मैं जीवन में नित नए अनुभवों से रूबरू होती हूँ,जो मेरे अंतस से सीधे साक्षात्कार करते हैं,उसी साक्षात्कार को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है मेरा ब्लॉग, जिज्ञासा की जिज्ञासा
बिरह की बाँसुरी
बेटे (रूप बदलते हुए )
रात बेटा आया सिरहाने बैठा
माथे का पसीना पोंछा ।
मासूम नज़रों से मां को देखा
और बड़ी देर तक कुछ सोचा ।।
बोला मुझे माफ़ कर दो माँ
अब ऐसा नहीं होगा दोबारा ।
तुम तो जानती हो मेरी ग़लतियाँ
मेरा कच्चा चिट्ठा सारा ।।
मैं झगड़ता हूँ सदा से
और माफ करती तुम मुझे
बड़ी मुश्किल में हूं मैं आज
तुम्हारी बेरुखी से ।।
बेटे ने कहा मासूमियत से
माँ को तरस आया ।
उठी, जल्दी से ख़ुश होकर
सजाकर पेट भर खाना खिलाया ।।
बोली इस तरह नशे में
दंगा मत करना आइंदा ।
नहीं तो मुझे नहीं पाओगे तुम
अब इस दुनिया में ज़िंदा ।।
बेटा सुनता रहा माँ की
नींद में डूबी आवाज़ ।
और बदलता रहा
पल पल अपना अन्दाज़ ।।
धैर्य रख कर माँ के
सोने का किया इंतज़ार ।
बंद हुईं आँखें जैसे उसकी
चुराकर गहने हुआ फरार ।।
दो दिन बाद लौट कर
आया नशे में धुत्त ।
माँ अचम्भित है आश्चर्यचकित है
दोहरा रूप देखकर बेटे का अद्भुत ।।
**जिज्ञासा सिंह**
मधुर धुन
खुशी के गीत
श्वाँस का घर्षण (कोरोना काल)
बाँसुरी बाँस की
बाँसुरी, बाँस की
बार बार बदलती है अपना रूप
हथौड़ियों की चोट सह,खोखला कर देती है स्वयं को
ढलती साँसों के अनुरूप
फिर जन्म लेती है एक मधुर तान
कानों में रस घोलते हुए
जीवन में भर देती है सुन्दर गान
अधरों से गुजरते हुए
बह जाता है झर कर अहम और क्रोध
बाँसुरी के धुन के संग
बाँस की बाँसुरी रूखी सूखी सी
दे देती है जीवन को मधुर रंग
**जिज्ञासा सिंह**