बिरह की बाँसुरी

ये झिलमिलाती
खिलखिलाती 
मुस्कुराती शाम
चैनो हराम
फिर करने लगी है 
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है

बरसती बारिशें है आज बेमौसम
झमाझम
दे रहीं हैं नव खुशी
इंद्रधनुषी 
रूप वो धरने लगी है
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है

करुँ क्या मैं
जो अंबर है
चाँद को है छुपाए
सितारों से सजाए
आरती अब थाल में सजने लगी है
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है

वो आएंगे
औ छाएंगे
मेरे हिर्दय बसेंगे
आज मुझसे फिर कहेंगे
प्रेम की जो धार सूखी थी,सहस बहने लगी है
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है

यहीं होगा
मिलन होगा
इसी भू पर
सहस्रों पुष्प बरसाकर
गगन के संग धरती आज फिर हँसने लगी है
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है

**जिज्ञासा सिंह**

बेटे (रूप बदलते हुए )



रात बेटा आया सिरहाने बैठा 

माथे का पसीना पोंछा ।

मासूम नज़रों से मां को देखा 

और बड़ी देर तक कुछ सोचा ।।

 

बोला मुझे माफ़ कर दो माँ

अब ऐसा नहीं होगा दोबारा ।

तुम तो जानती हो मेरी ग़लतियाँ

मेरा कच्चा चिट्ठा सारा ।।

 

मैं झगड़ता हूँ सदा से

और माफ करती तुम मुझे

बड़ी मुश्किल में हूं मैं आज

तुम्हारी बेरुखी से ।।

 

बेटे ने कहा मासूमियत से

माँ को तरस आया ।

उठी, जल्दी से ख़ुश होकर

सजाकर पेट भर खाना खिलाया ।।

 

बोली इस तरह नशे में

दंगा मत करना आइंदा ।

नहीं तो मुझे नहीं पाओगे तुम

अब इस दुनिया में ज़िंदा ।।

 

बेटा सुनता रहा माँ की

नींद में डूबी आवाज़ ।

और बदलता रहा

पल पल अपना अन्दाज़ ।।

 

धैर्य रख कर माँ के 

सोने का किया इंतज़ार ।

बंद हुईं आँखें जैसे उसकी 

चुराकर गहने हुआ फरार ।।

 

दो दिन बाद लौट कर  

आया नशे में धुत्त ।

माँ अचम्भित है आश्चर्यचकित है

दोहरा रूप देखकर बेटे का अद्भुत ।।

                  

**जिज्ञासा सिंह**

मधुर धुन

ऐसी कौन मधुर धुन गाए
सुन सुन मोरा जिय हुलसाए

कभी लगे बाँसुरिया बाजे
कभी पखावज की धुन साजे
लगे कन्हैया नाचत आए

दिखे सजी दुल्हन की डोली
गाएँ सखियाँ करें ठिठोली
शहनाई की तान सुनाए

झिमिर झिमिर सावन जब बरसे
तरुवर झूमे, धरिणी हरषे
भोर सुहानी छन छन छाए

खिले कमलिनी मंद मंद
औ बहे पवन फैले सुगंध
कोयल कुहुके पपिहा गाए

चले पवन उड़ जाय चुनरिया
छलके भरी हुई गागरिया
पथिक ठहर जब प्यास बुझाए

मिलें नैन बढ़ जाय हृदयगति
कोमल मन हर्षित औ पुलकित
रोम रोम है खिलता जाए

**जिज्ञासा सिंह**

खुशी के गीत

लिखूं कैसे खुशी के गीत, मन मेरा दुखी है
किसी के होंठ पे दिखती न मुझको वो खुशी है

जिसे चंद रोज़ पहले हमने तुमने की थी साझा
वो जा के दरमियाने सात परतों के छिपी है ।

झांककर देखती हूं,आज मैं धीरे से दर्पण
हैं फिर भी दिख रही सिकुड़न, जो माथे पे खिंची है

मेरे मन में वहम और शक की सुइयां चुभ रही हैं
करूं क्या डर के मारे, नींद मेरी उड़ चुकी है

वो कहते हैं करो विश्वास अपने आप पर तुम
मगर जुड़ती नहीं चटकी, जो टूटी सी कड़ी है

किसी आहट पे आंखें ढूँढती हैं कोई अपना
पर अनजानी सी दस्तक से ये दुनिया ही डरी है

**जिज्ञासा सिंह**

श्वाँस का घर्षण (कोरोना काल)

तू अडिग अविचल मनुज, फिर है भला बेचैन क्यूँ ?
सुस्त पड़ती धमनियां और अश्रु बहते नैन क्यूँ ?

दर्द में डूबे हुए हर एक नारी और नर ।
आसमाँ भी रो रहा और मेघ बरसें तड़पकर ।।

तूने सागर को मथा,तू चढ़ गया,उत्तुंग गिरि पर ।
प्रस्तरों को काट डाला, उड़ रहा अंतरिक्ष ऊपर ।।

है नहीं कोई जगह,पहुँची न हो तेरी कला ।
फिर तुम्हें है साधती क्यों काल बनकर ये बला ?

सोचकर देखो कदम डगमग हुए थे कब तुम्हारे ।
और पेशानी पे थी चमकी, कब पसीने की व्यथा रे ।।

दूसरों के दर्द में तू पकड़ माथा,कब था रोया ।
किस घड़ी करके मशक्कत, तूने ऐसा बीज बोया ।।

जिस विटप की छाँव, तू बैठे गिने गुण और अवगुण ।
जीतना है आज तुझको, खुद से लड़के आज ये रण ।।

मन का रण ये,तन का रण ये, धन का है ये महायुद्ध ।
है विचारों से भी लड़ना, कौन है इतना प्रबुद्ध ।।

श्वाँस का घर्षण छिड़े,छाए व्यथा हर अंग में ।
रोंया रोंया टूटता, कालिख पुती हर रंग में ।।

हर तरफ फैली विफलता,हर तरफ आक्रोश जैसा ।।
फिर भला कैसे संवारें देश, औ श्रृंगार कैसा ?

क्यों न हम फिर से सहेजें, मूल्य और अपनी धरोहर ।
पहले अपना घर संवारें, फिर चढ़ें हम चाँद पर ।।

क्यों न हम कुछ बीज बोएं और उगाएं वृक्ष ऐसे ।
साँसों की फिर सौदेबाजी, कर न पाए कोई हमसे ।।

है उठे ये प्रश्न मन में, मित्र कुछ ऐसे बनाएँ ।
जीने की जिनमें कला हो, दुख पड़े तो पूँछ जाएँ ।।

कह सकें जिनसे सदा,मन की कठिन दारुण कथा ।
दूर से ही समझ ले जो, मेरे हिरदय की व्यथा ।।

वरना अर्थी जब उठेगी,  कुछ न होगा हाथ में ।
अश्रु में न नैन डूबे, न ही कोई साथ में ।।

**जिज्ञासा सिंह**

बाँसुरी बाँस की

बाँसुरी, बाँस की  

बार बार बदलती है अपना रूप


हथौड़ियों की चोट सह,खोखला कर देती है स्वयं को 

ढलती साँसों के अनुरूप 


फिर जन्म लेती है एक मधुर तान

कानों में रस घोलते हुए


जीवन में भर देती है सुन्दर गान

अधरों से गुजरते हुए


बह जाता है झर कर अहम और क्रोध

बाँसुरी के धुन के संग


बाँस की बाँसुरी रूखी सूखी सी

दे देती है जीवन को मधुर रंग


       **जिज्ञासा सिंह**

शालीनता का कड़वा घूँट


उनकी वही कड़वी बात 
फिर आत्मसात 
कर गई मैं 
जो मुझे तोड़ने की कोशिश कर रही है 
पर उन बातों से 
ऐसे ख़यालातों से 
मेरा अपना आकाश बहुत बड़ा है 
जिससे मेरा अस्तित्व जुड़ा है 
वो है तो मैं हूँ 
वरना क्या कहूँ 
समझने वाले कहते हैं मुझसे
कि जब भी कुछ अनसुलझे 
प्रश्न हों 
या प्रश्न उठ रहे हों 
तुम्हारे मनुष्य होने पर 
उन भ्रांतियों को ढोने पर 
जो मैंने पीढ़ियों ढोयी हैं 
खुद अपने लिए भी तो बोयी हैं 
नागफनी की अमर बेल 
ये नहीं है कोई खेल 
इसे मैंने अस्तित्व के दांव पर 
पलकों की छाँव पर 
दिया उगने 
और ज़हर उगलने 
वाले तलाश करते रहे मुझमें 
मेरी ही कमी, उन्हें आग उगलने 
का मौक़ा दे गई 
मेरी शालीनता ही कटघरे में खड़ी हो गई 
निजी जीवन और सार्वजनिक 
दैहिक, दैविक, भौतिक,
सब मेरे पास था 
पर कहीं कुछ ज़रा उदास था 
उदासी से बचने की होड़ में 
जोड़तोड़ में
जीवन गुज़ारा 
पर वो बेचारा 
मात खा गया 
और उसी बात पर आ गया 
कि मैं हूँ क्या ?
मेरे लिए है, ही नहीं ये दुनिया
ये मेरे लिए आघात है 
सहनशक्ति पर प्रतिघात है 
सोचा जीवन मूल्यों की आहुति दे दूँ 
 छवि बनाने की शक्ति ले लूँ 
और मुखौटे का लबादा ओढ़कर 
सच झूठ जोड़कर 
उन्हें अपना बना लूँ 
या फिर जड़ों में सत्यता की खाद डालूँ 
और उन्हें फलदार वृक्ष बनने को मजबूर करूँ 
या फिर इस दोगले समाज के आगे जी हुज़ूर,जी हुज़ूर करूँ 
इस यक्ष प्रश्न के हल की तलाश है 
मन कुछ थोड़ा सा उदास है ...

**जिज्ञासा सिंह**

मानवता के दूत

 

तुम्हारी माँ 
क्या ? हो सकती है मेरी माँ 
गर हाँ 
तो आओ 
मुझमें समा जाओ

तोड़ दो सारा बंधन
करो ग्रहण मेरा आलिंगन
गिरा दो अपने,पराए की दीवार
मिटा दो अहंकार

समा जाएं हम फिर से मातृत्व के गर्भ में
दोबारा, जन्म लें मानवता के उत्थान के संदर्भ में
फिर क्या कठिन हो हमारी डगर
अग्रणी हो जब प्रखर

सरिता हो जब हमारी संगिनी
बर्फ बन जाय ज्वालामुखी की अग्नी
व्योम सा हो विस्तार
हरा भरा,पल्लवित, कुसुमित हो,ये संसार

 हंसेगी,मातृभूमि गदगदाएगी
हमारे अटूट बंधन को सीने से लगाएगी
कहेगी,वाह रे मिलन मेरे सपूतों का 
मानवता के दूतों का ।।

**जिज्ञासा सिंह**

बचपन का सपना (मातृ दिवस )

बचपन की आस
मेरी भी होती माँ काश
वो चूमतीं मेरा तन मन
मैं घड़ी घड़ी करती आलिंगन

मांगती मोटर व कार
सपनों से भरा संसार
वो देखतीं हँसकर
कहतीं थोड़ा सा ठहर

अरी ! ओ नटखट
तू कितनी भोली है चल हट
क्या संसार इतना छोटा है ?
जानती नहीं वो भैंसे सा मोटा है

वहाँ बहुत बड़ा सागर है
तेरी तो छोटी सी गागर है
कैसे भरेगी इतना पानी
भूल जाएंगी नानी

नानी भूलीं तो कहानी कौन सुनाएगा
कि परियों का राजा आएगा,
सागर पार संसार ले जाएगा
संसार में जब आएगी रात
तू माँ को करेगी याद

फिर कौन सुनाएगा लोरी
दूध से भरी कटोरी
तुझे नींद कैसे आएगी
माँ की यादों में रात बीत जाएगी

हो जाएगी भोर
चिड़ियाँ चहचाएंगीं,नाच उठेगा मोर
नाचते मोर को देख, मैंने भी चाहा नाचना 
और टूट गया मेरा प्यारा सपना
काश ! ये सपना फिर आए
माँ के भ्रम में जीवन बीत जाए ।।

**जिज्ञासा सिंह**

"आप सभी को मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ"
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आम का पेड़

वो नन्हा सा
बौना सा
दो पत्तियों वाला पौधा
जिसे मैंने नाजों से पाला पोसा
बड़ा बन गया
आज मुझे धीरे से मां कह गया ।।
जब उसमे बौर आए
वह मुझे देख मुस्कराए
अमियां आईं
नानी कह इठलाईं
इतनी
कि पिसकर बन गईं चटनी
मैंने भी स्वाद लिया चटखारे लेकर
आम के पने को पीकर
अंदर तक रम गईं
मेरी सांसें थम गईं
तब,
जब 
अचार बनाया
खट्टे मीठे का तड़का लगाया
चाटते रहे लोग उंगलियां
मेरी भी ली गईं बड़ी बलाइयां
खटाई तो साल भर चलती रही
दाल चटनी,सांभर का स्वाद बनती रही
मेरा  नन्हा सा बिरवा दिन दूना
रात चौगुना
बढ़ गया 
धीरे धीरे छत तक चढ़ गया
हरे,
आधे पीले, आधे हरे
पीले पीले
आधे लाल आधे पीले
ऐसे आमों के घौदे
कोई धीरे से छू दे 
तो टपक पड़ें
हम तो खड़े खड़े
अपने हाथों से उन्हें तोड़ने लगे
स्वादों की कड़ियाँ जोड़ने लगे
कौन कितना मीठा है बताने लगे
खुद खाए, दूसरों को खिलाने लगे
कई बार तो उसमें बेमौसम बौर आया
आम लगा और खूब खाया
उसकी ठंडी मदमस्त हवा भी कम नहीं
चिड़ियों को बसेरे का गम नहीं
क्या कुछ नहीं दिया उसने
उसके साथ जुड़े हैं मेरे अनमोल सपने 
पर जाने क्यूं ? इस साल वो उदास है
मेरे भावों का करता परिहास है
लाखों बौरों में, कुछ एक अमियाँ आई हैं
ये देख मेरी नजरें भर आई हैं
लगता है वो मुझसे कुछ नाराज है
शायद मैने भी उसकी अहमियत को किया नजरंदाज है
क्या करुँ ? उसे कैसे समझाऊँ ?
कैसे बताऊँ ?
कि मैं उसे देख नहीं पाई,
छू नहीं पाई
अब ऐसा नहीं होगा
उसका सम्मान होगा
आखिर वो जीवनदाता है
हमारी श्वाँसों का अधिष्ठाता है
उसने हमे बहुत कुछ दिया
जीवन को हरा भरा किया
हमीं उसे भूल जाते है
अपने फ़ायदे के लिए इन्हें चोट पहुँचाते हैं 
हमें इनके बारे में सोचना होगा 
वरना स्वाद तो दूर की बात है,
चन्द साँसों के लिए भटकना होगा.... 

**जिज्ञासा सिंह**

अपनेपन का विछोह

ये तुमसे मेरा कैसा विछोह है ?

देखा नहीं जाना नहीं
अच्छी तरह पहचाना नहीं
फिर भी पीड़ा देता,ये कौन सा मोह है ?
ये तुमसे मेरा कैसा विछोह है ?

अभी कुछ ही दिनों की बात है
थोड़ी सी गुफ्तगू, कुछ शब्दों की मुलाकात है
तुम आखिर मेरे कौन हो ? क्या रिश्ता है ? यही ऊहापोह है
ये तुमसे मेरा कैसा विछोह है ?

हर घड़ी हर पल
परछाइयों की तरह साथ रहे हो चल
तुम्हारी झील सी आँखों में डूबा हर आरोह है
ये तुमसे मेरा कैसा विछोह है ?

जानती हूं कुछ शब्दों ने हमें वाक्य बना दिया
जुड़ना,जीना,हंसना,रमना,एक दूसरे को समझना सिखा दिया
ये उन्हीं शब्दों की एक सुंदर कड़ी का अवरोह है
 अपनेपन के अहसासों का विछोह है
अपनेपन का विछोह है ।।

**जिज्ञासा सिंह**

महराजिन ( घरेलू कामगार.. श्रमिक दिवस )

हाथ पोटली थामे फिर आई वो
तंबाकू के सड़े दाँत दिखे, धीरे से जब मुस्कराई वो

गोदी से उतारकर लिटाया फर्श पर बेटा
कमर में साड़ी का बांधा फेंटा
शॉल को अपने इर्द गिर्द लपेटा
झाड़ू उठा जल्दी से,कूड़ा समेटा
गई बाहर कूड़े को फेंक पोंछा ले आई वो
हाथ पोटली थामे...

कई परिवारों का सामूहिक घर
डोलती वो इधर से उधर
निपटाती काम,पड़ा देखती जिधर
चाहे शाम हो या सहर
एक ही लय में दिखी,कभी न थकी नज़र आई वो
हाथ पोटली थामे...

तैयार किए छप्पन व्यंजन
दम आलू,कढ़ी, खीर,पनीर,भरवाँ करेला और बैगन
सजाया दस्तरख्वान,परोसा रोटी और मक्खन
बचा खुचा समेटा,खाली किए बर्तन
इसी बीच पोटली खोल, जाने क्या खा आई वो
हाथ पोटली थामे...

अरे ! जरा सुन महाराजिन
पिछले हफ्ते जब आईं थीं छोटी मालकिन
तूने काम किया था रात दिन
ले उसके पैसे और गिन
खनकते सिक्कों को बिना गिने पोटली में छुपा रख आई वो
हाथ पोटली थामे...

आज ब्याह है, महराजिन के घर में
और यहाँ सब लटका पड़ा है अधर में
डोल रहा है,खाना,कपड़ा,झाड़ू पोंछा सब भँवर में
कोई पीड़ा में कराह रहा,कोई ज्वर में
लग रहा देखकर, सबपे कहर ढा आई वो
हाथ पोटली थामे...

**जिज्ञासा सिंह**
                                                   चित्र साभार गूगल