मन का जोगी


साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी

रनिवास छोड़ मैं दौड़ पड़ी
सारंगी ऐसी बाजी
कौन कहे यह धुन कैसी
मन आजु यती ने साजी
युगों गए यहि धुन पर मीरा
बनी प्रेम रोगी ।
साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी ।।

कहाँ बजे और कौन सुने
यह धुन मैं ही जानूँ 
सकल प्रीत की उठती ज्वाला
लपट हृदय बिच भानू
खेल नहीं ये मन ही जाने
क्या पहचानें पोंगी ?
साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी ।।

नगर ढिंढोरा पीट रहे जो
मर्म व्यथा क्या जाने
हाय करमगति भेद गई है
जाने अनजाने
कहे तीव्र स्वर में हुंकार भर
मैं जग की ढोंगी ।
साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी ।।

भूत की करन भविष्य कहे
कुछ ग्रंथ कहें कुछ मानस
मैं तो कर्मकार के झुक गइ
रहा नहीं कुछ भानस
कोई ठगिनी, कहे योगिनी 
कहता कोई भोगी ।
साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी ।।

**जिज्ञासा सिंह**

बाल विवाह


सोलह बरस में रंग,
सबका खिल गया
और मेरा ढल गया ।।

मांग सिंदूरी हुई
मुझको मिली सौगात
कौन ये सब सोचता
मासूम हैं जज्बात
कठघरे में मैं खड़ी
उनको लगा, जग मिल गया ।।

था बरस जब पाँचवा 
मेरा बसंती
फर्क बेटे बेटियों का
कान सुनती 
दादियों औ नानियों की 
बात से ही टूटता ये दिल गया ।।

जन्म दे, दो फाड़
में बाँटा है माँ ने
क्या कहूँ लोगों को 
अब मैं इस जहाँ में
पीढ़ियों से घात होते देख
कर ही ये कलेजा हिल गया ।।

दस बरस होते कसी
पैरों में बेड़ी
फिर भला चढ़ती 
मैं कैसे ऊँची सीढ़ी
पहले पग से ही जहाँ की 
बंदिशों से होंठ मेरा सिल गया ।।

**जिज्ञासा सिंह**

पंखुड़ियाँ

तुड़ी मुड़ी सूखी पंखुड़ियाँ 
पीले लाल गुलाब
यादों की हमसाया मेरी
दीमक लगी किताब ।

कल के मधुरिम 
एहसासों में पूरे डुबे अहे
रेशा रेशा कलियों का
अफसाना खूब कहे
कैसा मेरा था गुरूर
कैसी थी आब ?

खुशबू कई बरस 
पहले की भीनी भीनी
घोले अधर मिठास
शहद भी फीकी चीनी 
हर पंखुड़ी छुपाए दिल 
में मीठा ख्वाब ।।

एक पन्ने के मध्य 
रखी है मेरी वो छवि
प्रेमपत्र में गीत रचे थे
बन तुमने कवि
तुम देते हो पुष्प 
झुकी करती आदाब ।।

पुलक रहा मन 
अभीभूत हूँ देख पंखुड़ी
पत्र लिए पढ़ती
खो जाती खड़ी खड़ी
कभी सजाई थी पंखुड़ियाँ 
ज्यूँ मेहताब ।।

**जिज्ञासा सिंह**

ऑनलाइन बालमन


बावरा मन 
बालपन का, क्या करे
भटकता है 
राह को ढूँढे फिरे

नव बसंती क्यारियों में 
कुसुम सा खिलना उसे था
वक्त की पैमाइशों में 
दंश मिलते, क्या पता था
सूर्य की किरणें दिए सी 
जल के उजियारा करे ।।

नव उमंगें नव तरंगें 
ले उमर आई जवाँ 
दहशतों के दौर में 
उजड़ा रहा हर नौजवाँ 
ध्येय बिन, बिन लक्ष्य के
कैसे उड़ानों को भरे ?

वक्त के घातक प्रवंचन 
में फँसा मासूम मन
ओस की बूँदें छिड़क
कैसे करे अब आचमन
भ्रम के सागर में डुबा 
बाहर निकलने से से डरे ।।

बावरा मन 
बालपन का, क्या करे ?
भटकता है 
राह को ढूँढे फिरे ।।

**जिज्ञासा सिंह**

दूधिया सी चाँदनी


नील नभ में है जड़ित 
मोती सा दिखता चंद्रमा
नृत्य करतीं तारिकाएँ  
झूमता है आसमाँ 

चाँद की निर्मल प्रभा
सज्जित हुआ सारा गगन
दूधिया सी चाँदनी से
चमकता है ये चमन
उतरती हैं मेनका 
स्वागत करे स्वर्णिम जहाँ ।।

ओस की लड़ियाँ सुशोभित
भोर हर तिनके पे हैं
मोगरे सी गुंथी आभा
पुष्प के मनके पे हैं
हीरकों की किरन से
है दमकता हर बागबाँ ।।

पंछियों का झुंड कलरव
कर रहा अंबर तलक
रजत पंखों की छटा बिखरी
चमकती दूर तक
नयन ओझल एक,
 दूजा उड़ चला है कारवाँ ।।

**जिज्ञासा सिंह**

शौर्य के प्रतीक

सैनिकों की शहादत को शत शत नमन🙏💐
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आसमाँ से फूल बरसे आसमाँ से ।
जा रहा देखो सितारा इस जहाँ से ।।

वीर जो लिपटा तिरंगे में चला है,
हर दिशा में शौर्य उसका उड़ रहा है ।
वो महामानव, जगत से अलविदा कह,
देश का गौरव बढ़ा के जा रहा है ।।
चल रही है जिसके संग में ये जमी
आन दिखती है यहां से और वहां से ।।

झुक गया बियबान भी कदमों में उसके,
और चिड़ियों का चहकना रुक गया है ।
पुष्प भी मुरझा गए हैं आज ऋतु के,
भ्रमर का भी गुनगुनाना थम गया है ।।
प्रकृति ने ओढ़ी थी जो धानी सी चादर,
ढक गई है शोक में वो कालिमा से ।।

वो सजग था, वीर था, रणधीर था वो
भारती का लाल सोया नींद गहरी।
वो मुकुट है, शान है अभिमान है वो
वो हमारा मान, वो है राष्ट्र प्रहरी ।।
उसने तन मन धन सभी कुछ राष्ट्र माना,
हम बताएँगे देश के नौजवाँ से ।।

**जिज्ञासा सिंह**

रीता दीपक

मैं खूंट खूंट तिल तिल
घटती दियना की बाती
हूँ सघन रैन जलती 
उँजियारा कर न पाती ।

पड़ा अकाल धरनि क्लेशित
है शुष्क पड़ी
काले नभ पर उजली सेमल
मोती सरिस जड़ी
रीता दीपक हाथ,
दौड़ मैं नभ तक जाती 
हूँ सघन रैन घटती 
उँजियारा कर न पाती ।।

विकट कोस कुम्हार
गई दियना मैं लाई
उद्भव कितना कठिन
दीप जब जली सलाई
अंतर्दुनिया मेरी जाने
जग को क्या बतलाती
हूँ सघन रैन घटती 
उँजियारा कर न पाती ।।

देखूँ मैं चहुओर
इसी दीए की महिमा
कीर्ति और अनुराग
लिए फैली है गरिमा
बस मेरे ही द्वार
फड़ककर ये बुझ जाती ।।
हूँ सघन रैन घटती 
उँजियारा कर न पाती ।।

**जिज्ञासा सिंह**

वागीश्वरी की नंदिनी


वे गीत थीं संगीत थीं, 
माँ शारदे की प्रीत थीं
बसती रहीं हर हृदय में, 
बन भोर की उद्गीत थीं ।

शिशुकाल में लोरी सुना
वो माँ सी मन पे छा गईं
हर यौवना को प्रीत धुन से
चाँद पर पहुँचा गईं
प्रेम की सरगम सुहानी
हर हृदय की मीत थीं 

दुख की घड़ी सुख का मिलन
हर भाव सिंचित हो नयन
ले आबरू कर जुस्तजू
जुड़ता रहा हर आम जन
टूटे हुए की आसरा
हारे हुए की जीत थीं 

कौतुकी आवाज़ का
कायल रहा संसार सुन
गौण हो जाती कृति
मधु सी बहे रसधार धुन
वागीश्वरी की नंदिनी 
लेती ह्रदय वे जीत थीं ।।

**जिज्ञासा सिंह**

मन आय बसो वीणापाणिनि


मन आय बसो वीणापाणिनि
हे सरस्वती हे वरदायिनि

चाल कुचाल घिरा है जग ये
कीचड़ कीच भरा है डग ये 
कंज खिले कैसे अब वारिनि

साधे सधे न मन की गति ये
कोटि करे न नव जागृति ये
ओज घेरकर बैठी यामिनि

प्रीति बढ़ाऊँ ध्यान लगाऊँ 
फिर भी तुम तक पहुँच न पाऊँ 
राह दिखाओ बुद्धि विधायिनि

अंबर, धरती अरु रत्नाकर
सूने तुम बिनु है कुसुमाकर
सुर संगीत सजाओ रागिनि

ज्ञानज्योति की किरण हो देवी
हम मूरख शरणागत सेवी
शरण लगा लो ज्ञान प्रकाशिनि

 **जिज्ञासा सिंह**

बालगीत (१)पानी देखो नहीं गिराना(२) ताल तलैया मुझको प्यारी


पानी देखो नहीं गिराना

बूंद बूंद से जल की धारा
सिंचित होता खेत हमारा
खेतों में अनाज लहराना ।
पानी देखो नहीं गिराना ।।

पीने का पानी है बहुत कम
पिएं, मगर फेंके न उसे हम
बहने से है उसे बचाना ।
पानी देखो नहीं गिराना ।।

पानी बिन जंगल न होंगे
पशु, पक्षी, बादल न होंगे
न नाचेगा मोर सुहाना ।
पानी देखो नहीं गिराना ।।

पानी से भोजन है पकता
लोग नहाते, कपड़ा धुलता
पानी बिन पड़ता मर जाना ।
पानी देखो नहीं गिराना ।।

अतः सहेजो ऐसे पानी 
जैसे अपनी प्यारी नानी
दादा, दादी, प्यारे नाना ।
पानी देखो नहीं गिराना ।।

(२)ताल तलैया मुझको प्यारी

पर दिखती है नहीं मुझे वो
दादी कहतीं सूख गई वो
उससे सिंचती थी फुलवारी ।

बरखा में भर जाती थी
चिड़ियां लाखों आती थीं
रंगबिरंगी मछली न्यारी ।

सिंघाड़े से सज जाती थी
बचपन में मैं बतियाती थी
जब डोंगी की करूं सवारी ।।

तैरें बतख, श्वेत वो बगुले
मेढ़क कूदे, उठे बुलबुले
कछुआ, चले चाल मतवारी ।

एक तलैया बची हुई है
वो भी आधी सूख गई है
मुझको करनी उससे यारी ।
ताल तलैया मुझको प्यारी ।।

**जिज्ञासा सिंह**

गद्दी पर है धमाचौकड़ी


पर्णी पादप सभा लगी है
मचा कोलाहल भारी
गिद्ध, कबूतर, बगुला आए
औ गौरैया प्यारी ।

शनैः-शनैः उड़े आ रहे
रंगबिरंगे पक्षी
शाकाहारी चोला धारे
बैठे मांस भक्षी
दावत और बगावत से
पद लेने की तैयारी ।।

कर्कश ध्वनि में भाषण देते
कौआ बन कर वक्ता
मैना रानी हैं विपक्ष की
सबसे बड़ी प्रवक्ता
आज सभी को नंगा
करने की समग्र तैयारी ।।

कौन हमें जो खाना देगा
कौन बनाए नीड़
कौन लगाए ऐसी बगिया
जहाँ आम संग चीड़
कौन हमें उड़ने को अंबर
चर्चा सबमें जारी ।।

गिद्ध महोदय दूर गए
उड़ नदी किनारे बैठे
बगुला वंश स्वयं की मछली
न डालो तो ऐंठें 
गद्दी पर है धमाचौकड़ी
सब हैं सब पर भारी ।।

**जिज्ञासा सिंह**