साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी
रनिवास छोड़ मैं दौड़ पड़ी
सारंगी ऐसी बाजी
कौन कहे यह धुन कैसी
मन आजु यती ने साजी
युगों गए यहि धुन पर मीरा
बनी प्रेम रोगी ।
साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी ।।
कहाँ बजे और कौन सुने
यह धुन मैं ही जानूँ
सकल प्रीत की उठती ज्वाला
लपट हृदय बिच भानू
खेल नहीं ये मन ही जाने
क्या पहचानें पोंगी ?
साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी ।।
नगर ढिंढोरा पीट रहे जो
मर्म व्यथा क्या जाने
हाय करमगति भेद गई है
जाने अनजाने
कहे तीव्र स्वर में हुंकार भर
मैं जग की ढोंगी ।
साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी ।।
भूत की करन भविष्य कहे
कुछ ग्रंथ कहें कुछ मानस
मैं तो कर्मकार के झुक गइ
रहा नहीं कुछ भानस
कोई ठगिनी, कहे योगिनी
कहता कोई भोगी ।
साँकल द्वार लगी कि लगी
अभ्यंतर आय बसा जोगी ।।
**जिज्ञासा सिंह**