मन का दीप जलाए रखना

 

चारों तरफ़ घना अँधियारा

मन का दीप जलाए रखना।


अँधियारे में एक परछाईं

साथ तुम्हारा पकड़े होगी।

उँगली में उँगली हाथों में

हाथ गहे कस जकड़े होगी॥

रूप बदलकर तरह तरह

से साथ चलेगी वो पल-पल,

परछाईं के पदचिह्नों पर

अपनी नज़र गड़ाए रखना॥


वो परछाईं नहीं तुम्हारी

जिसकी है वो देख रहा है।

जाना तुम्हें किधर किस रास्ते

अपना दर्पण फेंक रहा है॥

उस दर्पण में मार्ग हज़ारों

देखो पहचानों तुम अपना,

चल पड़ना जो सुगम लगे

बस दिशा एक चमकाए रखना॥


जिल्दसाज़ की भरी पंजिका

हर पन्ने पर नाम तुम्हारा।

जो भी हिस्से में मिलना है

है हिसाब सब वारा न्यारा॥

घबराहट क्या अकुलाहट क्या

क्या-क्या प्रश्न उठें मन भीतर,

स्याही से चित्रित चिन्हों में

अपनी छवि बचाए रखना॥


**जिज्ञासा सिंह**

तुमको लिख पाती साजन

 

तुमको लिख पाती साजन 

तो रचि-रचि लिख जाती।

बिन मसि बिन लेखनी एक 

मैं अद्भुत ग्रन्थ सजाती॥


साँझ ढले बैठती तीर मैं,

निज मन के अँघड़।

श्वाँसों की सौ आँख बचाकर,

तुमको लेती पढ़॥

रंग-बिरंगे डोरों पर लिख,

तिरते भाव सजाती॥


भोर भए तुम दूर क्षितिज पे

चढ़कर आते भूप।

लहरों के दर्पण में सजता

सुंदर-नवल स्वरूप॥

मैं बहती धारा में उतरी,

और उतर जाती॥


जब भी दिखता बिम्ब तुम्हारा,

मनका बन जाता।

धागा बनकर हृदय पिरोती,

जीवन मुस्काता॥

मन का मनका जपता तुमको,

मैं तो तर जाती॥


**जिज्ञासा सिंह**