पलकों में उर हैं जागे



जाने कितने प्रश्न लिए
घर से निकला वो
प्रश्नों के हल मिले जिधर
जिस ओर चला वो

अवधूतों का डेरा चलता आगे आगे
विधि का जहाँ बसेरा डग जाते हैं भागे
मार्ग नहीं आदम का घर भी न उस ओर
तंद्रा भंग हुई पलकों में उर हैं जागे
कैसी है ये दशा कहाँ जाना है प्राणी
जाने न है अंत कहाँ किस ओर भला हो॥

वही रूप वो ही समरूपक सर्वविदित वो 
सर्वाग्रह सर्वव्याप्त जगत मन में जागृत जो
जगा रहा वह जग को प्रतिपल स्वयं जागकर
मार्ग बनाता जाता है क्षण-क्षण प्रमुदित वो
किरन काटती अवरोधन को बिना कटार
गौण हो चुके रस्तों पर एक दीप जला वो॥

होना है ब्रह्मोत्सव आत्म उद्भव का उद्यम
दीर्घ मंद्र लय तान सजे सुर ताल मृदंगम
अलबेला वो नगर नगर सब जीवित वासी
शून्य रखे उपवास खड़ा अभिनंदन में थम
गहरी होती श्वाँस मधुर उद्गीती धुन सी
अंतरतम में वास वहीं जीवंत कला हो॥

जिज्ञासा सिंह