जाने कितने प्रश्न लिए
घर से निकला वो
प्रश्नों के हल मिले जिधर
जिस ओर चला वो
अवधूतों का डेरा चलता आगे आगे
विधि का जहाँ बसेरा डग जाते हैं भागे
मार्ग नहीं आदम का घर भी न उस ओर
तंद्रा भंग हुई पलकों में उर हैं जागे
कैसी है ये दशा कहाँ जाना है प्राणी
जाने न है अंत कहाँ किस ओर भला हो॥
वही रूप वो ही समरूपक सर्वविदित वो
सर्वाग्रह सर्वव्याप्त जगत मन में जागृत जो
जगा रहा वह जग को प्रतिपल स्वयं जागकर
मार्ग बनाता जाता है क्षण-क्षण प्रमुदित वो
किरन काटती अवरोधन को बिना कटार
गौण हो चुके रस्तों पर एक दीप जला वो॥
होना है ब्रह्मोत्सव आत्म उद्भव का उद्यम
दीर्घ मंद्र लय तान सजे सुर ताल मृदंगम
अलबेला वो नगर नगर सब जीवित वासी
शून्य रखे उपवास खड़ा अभिनंदन में थम
गहरी होती श्वाँस मधुर उद्गीती धुन सी
अंतरतम में वास वहीं जीवंत कला हो॥
जिज्ञासा सिंह
अध्यात्म का गूढ़ रहस्यमयी संसार मन को अपनी ओर खींचता रहता है।
जवाब देंहटाएंअत्यंत सुंदर अभिव्यक्ति जिज्ञासा जी।
सस्नेह।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ मई २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत आभार प्रिय मित्र।रचना के चयन के लिए दिल से शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आदरणीय।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंसादर आभार आपका।
हटाएंभगवान बुद्ध के जीवन की खोज और उनकी ज्ञान प्राप्ति को आपने अत्यंत सुंदर शब्दों में छंद बद्ध किया है
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका दीदी।
हटाएंजगा रहा वह जग को प्रतिपल स्वयं जागकर
जवाब देंहटाएंमार्ग बनाता जाता है क्षण-क्षण प्रमुदित वो
किरन काटती अवरोधन को बिना कटार
गौण हो चुके रस्तों पर एक दीप जला वो॥
अत्यंत उत्कृष्ट एवं लाजवाब सृजन
वाह!!!
हौसला बढ़ाती प्रतिक्रिया के लिए बहुत शुक्रिया सखी।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट लेखन ... महात्मा के जीवन में कितना कुछ है जो ग्रहण भी किया जा सकता है ...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कृति
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