हँस रहा गणतंत्र खुलकर
आज देखा भोर में वो,
खिल रहा था क्यारियों में।
फूल-फल से आच्छादित,
अनगिनत फुलवारियों में।
ओढ़ कर धानी चुनर
हर्षित धरा भी साथ थी
क्षितिज कंचन सुरमई
प्रमुदित मुदित मन भास्कर॥
एक दिन मैं देश से अपने,
मिली आकाश में।
उड़ रहा था पंख खोले,
डूबकर उच्छवास में।
आत्मा उसकी अनोखी
तीन रंगों से सजी थी,
श्वेत केसरिया हरे
भावों के रस में लिपटकर॥
देश के अद्भुत आलौकिक,
रूप से परिचय हुआ जब।
एकता सद्भाव और,
विश्वास का उद्भव हुआ तब।
मूल्य की अतुलित धरोहर
सभ्यता सौंदर्य अनुपम,
जगमगाता हर दिशा में
तिमिर गहरा काटकर॥
जिज्ञासा सिंह