माटी तेरा मोह न छूटा
तेरे कारण ही जग रूठा
जब सोलह श्रृंगार किया
तो बैरी हुआ सलोना प्रीतम
भूल गई अपनी परछाईं
बैठ बजाती रही मृदंगम
जितने फेरे लिए अग्नि के
उतने युग प्रीतम ने लूटा
ऐसा बीज मिला हिस्से में
सींचा पर न हुआ अंकुरित
लाखों यत्न प्रयत्न विफल सब
दूषित हुआ भाव संप्रेषित
तटबंधों की कृत्रिम धरा थी
ताना बाना पाना टूटा
इस माटी ने उस माटी को
बारंबार पुकारा रह-रह
तू सनाथ है मैं अनाथ री
बाँह पकड़ ले मेरी, कर गह
हँसती रही निपात हँसी वह
जब पकड़ा तब भाँडा फूटा
जब-जब बहा प्रपात क्षुधा का
तब-तब माटी हुई संक्रमित
बैठ किरण पर उड़ी पवन संग
मिली दिशा न जाऊँ मैं कित
सत्य कहूँ माटी का दर्पन
खिला गया है बूटा-बूटा
जिज्ञासा सिंह