माटी तेरा मोह न छूटा.. गीत

 

माटी तेरा मोह न छूटा 

तेरे कारण ही जग रूठा 


जब सोलह श्रृंगार किया 

तो बैरी हुआ सलोना प्रीतम 

भूल गई अपनी परछाईं 

बैठ बजाती रही मृदंगम 

जितने फेरे लिए अग्नि के 

उतने युग प्रीतम ने लूटा 


ऐसा बीज मिला हिस्से में 

सींचा पर न हुआ अंकुरित 

लाखों यत्न प्रयत्न विफल सब 

दूषित हुआ भाव संप्रेषित 

तटबंधों की कृत्रिम धरा थी

ताना बाना पाना टूटा 


इस माटी ने उस माटी को

बारंबार पुकारा रह-रह

तू सनाथ है मैं अनाथ री

बाँह पकड़ ले मेरी, कर गह

हँसती रही निपात हँसी वह

जब पकड़ा तब भाँडा फूटा


जब-जब बहा प्रपात क्षुधा का 

तब-तब माटी हुई संक्रमित

बैठ किरण पर उड़ी पवन संग

मिली दिशा न जाऊँ मैं कित

सत्य कहूँ माटी का दर्पन

खिला गया है बूटा-बूटा


जिज्ञासा सिंह 


15 टिप्‍पणियां:

  1. "पाँच लिंकों के आनन्द में" मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय दिग्विजय अग्रवाल भाई जी। सादर शुभकामनाएं ।

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  2. माटी के मोह में फँसा इंसान अकरणीय भी कर जाता है अकथनीय भी कह जाता है, अनंत आकाश की ओर नज़र ही नहीं जाती

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  3. मोह ही क्लान्ति का कारण है। लेकिन मोह ही जीवन को सौन्दर्य व संवेदना देता है । बहुत सुन्दर गीत

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  4. लाजबाव सृजन प्रिय जिज्ञासा

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    1. नाम न आने से परिचय नहीं मिला।
      प्रशंसा के लिए आपका हार्दिक आभार!

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