माटी तेरा मोह न छूटा
तेरे कारण ही जग रूठा
जब सोलह श्रृंगार किया
तो बैरी हुआ सलोना प्रीतम
भूल गई अपनी परछाईं
बैठ बजाती रही मृदंगम
जितने फेरे लिए अग्नि के
उतने युग प्रीतम ने लूटा
ऐसा बीज मिला हिस्से में
सींचा पर न हुआ अंकुरित
लाखों यत्न प्रयत्न विफल सब
दूषित हुआ भाव संप्रेषित
तटबंधों की कृत्रिम धरा थी
ताना बाना पाना टूटा
इस माटी ने उस माटी को
बारंबार पुकारा रह-रह
तू सनाथ है मैं अनाथ री
बाँह पकड़ ले मेरी, कर गह
हँसती रही निपात हँसी वह
जब पकड़ा तब भाँडा फूटा
जब-जब बहा प्रपात क्षुधा का
तब-तब माटी हुई संक्रमित
बैठ किरण पर उड़ी पवन संग
मिली दिशा न जाऊँ मैं कित
सत्य कहूँ माटी का दर्पन
खिला गया है बूटा-बूटा
जिज्ञासा सिंह
वाह ! सुन्दर भावपूर्ण गीत !
जवाब देंहटाएंबहुत आभार सर।
हटाएं"पाँच लिंकों के आनन्द में" मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय दिग्विजय अग्रवाल भाई जी। सादर शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंजी सादर आभार आपका।
हटाएंमाटी के मोह में फँसा इंसान अकरणीय भी कर जाता है अकथनीय भी कह जाता है, अनंत आकाश की ओर नज़र ही नहीं जाती
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम दीदी।
हटाएंवाह! सखी ,बेहतरीन सृजन।
जवाब देंहटाएंविनम्र आभार मित्र।
हटाएंमोह ही क्लान्ति का कारण है। लेकिन मोह ही जीवन को सौन्दर्य व संवेदना देता है । बहुत सुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंआपका बहुत आभार दीदी।
हटाएंमाटी की सौंधी गंध ...
जवाब देंहटाएंबहुत आभार मित्र!
हटाएंलाजबाव सृजन प्रिय जिज्ञासा
जवाब देंहटाएंनाम न आने से परिचय नहीं मिला।
हटाएंप्रशंसा के लिए आपका हार्दिक आभार!