जिज्ञासा सिंह
जिज्ञासा की जिज्ञासा
मैं जीवन में नित नए अनुभवों से रूबरू होती हूँ,जो मेरे अंतस से सीधे साक्षात्कार करते हैं,उसी साक्षात्कार को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है मेरा ब्लॉग, जिज्ञासा की जिज्ञासा
ये मृदुल ऋतु का समय है
आज कायाकल्प करना.. गीत
आज कायाकल्प करना
उड़ चले उन तीतरों को रोकना,
जो कुलाचें मारते मैदान बिन।
मद में डूबे हाथियों के झुंड से,
चल रहे हैं दूमते राहों पे जिन।
रौज में उड़ना दूमना ठीक है,
है ज़रूरी पंख के परवाज़ खुलना॥
मछलियों का झुंड कछुओं की,
गति में है पुरातन से अतल में।
बीन बजता नागमणि के सामने,
दर्प दिखता नीरनिधि के सजल में।
देखना दिखना दिखाना खूब है,
है जरूरी धार पकड़े साथ बहना॥
मार्ग हैं पगडंडियां सड़के भी हैं,
कौन राही किस डगर जाता कहाँ?
हाथ पकड़े अंक भरते पीठ धारे,
हैं दिखे क्या मंजिलों के नव निशाँ।
चाल चलकर चर चलाना चाल चलन,
है जरूरी समय के पांवों से चलना॥
जिज्ञासा सिंह
हे हंसवाहिनी सरस्वती!.. प्रार्थना गीत
खोलो मेरे मन का दर्पण
मेरे कर कमलों में शोभित
ये पुष्पहार करना अर्पण॥
कुंजन वन बीच सरोवर में
नित हंस विचरता था अनमन
माँ स्नेह आपका मिला अतुल
शरणागत आ बैठा चरनन
हम विहग जगत में भटक रहे
निज पंथ खोजते हैं कण-कण॥
न वेदपुराण पढ़े हमने
जानूँ ना गीता रामायण
नैनों में बसी एक छवि मनहर
शब्दों का कराती पारायण
इस शब्दमोह प्रेमी मन को
देना माँ निरंतरता क्षण-क्षण॥
माँगूँ सानिध्य आपका मैं
माँ ज्ञान मिले अज्ञान हटे
हम नित अनुभव के धनी बनें
कल्पना लोक में रहें डटे
पाठन औ पठन ही जीवन हो
जीतें अबोधता से हर रण॥
जिज्ञासा सिंह
🌼बसंत पंचमी की हार्दिक बधाई🌼
भाव के भूखे हुए हैं.. गीत
भाव के भूखे हुए हैं
उठ रही दीवार के
कानों से कह दो
उँगलियाँ होठों से
अब वे न उठाएँ
मृत्तिका होते हुए
रुधिराश्कों पे
चीर का एक सूत
ही अब फेर जाएँ
घाव दे लूटे हुए है॥
अंग हर प्रत्यंग हैं
इन बाजुओं की
शक्ति में घुसपैठ
करती क्षीणता है
तीव्र कंटक की
चुभन का दर्द पीना
अब समय की
धीरता गंभीरता है
पाँव के टूटे हुए हैं॥
नव नवल नव
पल्लवों के पात
अभिनव भाव से
सविनय बुलाते
गेह रखते हैं खुले
जंजीर में जकड़े
हुए जो पाँव थिर-
थिर काँप जाते
बाड़ में रूँधे गए हैं॥
जिज्ञासा सिंह
क्या नया साल है?
हर तरफ़ है ख़ुशी, क्या नया साल है?
झूमती ज़िंदगी, क्या नया साल है?
लोग हैं आ रहे, लोग हैं जा रहे,
धूम है हर गली, क्या नया साल है?
प्रीत के गीत गाएँगे, झूमेंगे मिल,
कह रही दोस्ती, क्या नया साल है?
रात में जो थी, कोहरे की चादर बिछी,
नव किरन झाँकती, क्या नया साल है?
जिनका फुटपाथ पे, आशियाना सजा,
मुनिया पढ़ती दिखी, क्या नया साल है?
झुग्गियों में भी कुछ, झालरें लग रहीं,
आ रही रोशनी, क्या नया साल है?
प्रेम-सौहार्द की एक नौका सजी,
देश में बह रही, क्या नया साल है?
जिज्ञासा सिंह
बढ़ी पहाड़ों पर सर्दी (चौपाई छंद.. बाल साहित्य)
देखो चमके दूर वह शिखर।
बरफ़ गिरी है उसपे भर-भर॥
बढ़ी पहाड़ों पर है सर्दी।
सेना पहने मोटी वर्दी॥
सरहद-सरहद घूम रही है।
माँ धरती को चूम रही है॥
भेड़ ओढ़कर कंबल बैठी।
बकरी घूमे ऐंठी-ऐंठी॥
याक मलंग जा रहा ऊपर।
बरफ़ चूमती है उसके खुर॥
मैदानों में मेरा घर है।
चलती सुर्रा हवा इधर है॥
टोपी मोज़ा पहने स्वेटर।
काँप रहा पूरा घर थर-थर॥
कट-कट-कट-कट दाँत कर रहे।
जब भी हम घर से निकल रहे॥
हवा शूल बन जड़ा रही है।
कँपना पल-पल बढ़ा रही है॥
करना क्या है सोच रहे हम?
आता कोहरा देख डरे हम॥
ऐसे में बस दिखे रज़ाई।
मम्मी ने आवाज़ लगाई॥
अंदर आओ आग जली है।
गजक साथ में मूँगफली हैं॥
जिज्ञासा सिंह
दाँत से पकड़ा जो आँचल.. गीत
दाँत से पकड़ा जो आँचल
दाँत से पकड़ा जो आँचल
कह रहा है ढील दे दो,
आज छूना चाहता है
समय के विस्तार को।
पंख पहले से उगे हैं
है परों में जान अब भी,
माँगता है वह अकिंचन
स्वयं के अधिकार को॥
देखना उसकी किनारी,
खिल रहे हैं फूल अब भी।
खूब कलियाँ आ रही हैं
ला रही हैं नवल सुरभी।
बस उन्हें नित सींचना है
और सहलाना विनय से,
हो सुगन्धित कर सकेंगे,
भूमि के उद्धार को॥
याद कर लो धूप में वे
छा गए थे छाँव बनकर।
घेरकर चारों तरफ़ से
एक सुंदर गाँव का घर।
गाँव में वो घर औ घर में
माँ से लिपटे थे हुए,
बस उन्हीं कोमल मनोभावों
को सुंदर प्यार को॥
माँगता है आज जो वह
माँगना पहले उसे था।
पर समय का मूल्य देकर
आसमाँ न चाहिए था।
देके अपनी आरज़ुएँ
समय को उसने जिया जो
अब चुकाने आ गया वह
समय हर उपकार को॥
जिज्ञासा सिंह
लखनऊ
मन में अनुराग भरे.. गीत
साजन के द्वार चली,
पलकों की छाँवों में
स्वप्नों का मेला है।
कलश भरे ड्योढ़ी पे जलते हैं दीप नये,
गाती रंगोली है थाल लिए स्वागत को।
तोरण की लड़ियाँ हैं लचक-लचक नाच रहीं,
मैहर की थाप सजग जोह रही आगत को॥
कोहबर में जानें को,
महवर है पाँव रची,
रहबर का रेला है॥
झीनी चूनरिया ओढ़निया के ओट छुपी,
नेहों की फुलवारी खिली सजी धागन में।
झाँक-झाँक ताक राह अंतरतम उत्सुक हो,
ठिठक-ठिठक पाँव चलें प्रियतम के आँगन में।
किरणों की सज्जा है
बिखरी है चन्द्रप्रभा,
मिलने की बेला है॥
इंद्रधनुष संग स्वयं लाया है अंबर ये,
रैना जो कारी थी रंग आज जाएगी।
अद्भुत संयोग सतत जीवन संयोग बने,
मधुमय सुगन्ध लिए धरती इतराएगी।
जीवन के उत्सव की
आई ये मधुयामिनी,
क्षण ये अलबेला है॥
जिज्ञासा सिंह
बूँद का अभिशाप मत लो.. गीत
बूँद का अभिशाप मत लो
सृष्टि का संहार निश्चित,
है नहीं संदेह किंचित्।
मनुजता सोई पड़ी मृत,
अश्रु का संताप मत लो॥
पृथ्वी छल छल जरी है,
उर्वरा मुँह बल परी है।
कोख में शस्या मरी है,
शोक का प्रालाप मत लो॥
आँगने का दीप रोया,
चार दिन से मुँह न धोया।
आँख में कीचड़ सजोया,
चुप्पियों का ताप मत लो॥
सुन सको तो ये सुनो न,
जो लिखा है वो पढ़ो न।
या कहा उसको बुनो न,
बिन कहे का चाप मत लो॥
जिज्ञासा सिंह