देखो चमके दूर शिखर।
गिरी बरफ़ है भर-भर-भर॥
बढ़ी पहाड़ों पर है सर्दी।
सेना पहने मोटी वर्दी॥
सरहद-सरहद घूम रही है।
माँ धरती को चूम रही है॥
भेड़ ओढ़कर कंबल बैठी।
बकरी घूमे ऐंठी-ऐंठी॥
याक मलंग जा रहा ऊपर।
बरफ़ चूमती है उसके खुर॥
मैदानों में मेरा घर है।
चलती सुर्रा हवा इधर है॥
टोपी मोज़ा पहने स्वेटर।
काँप रहा पूरा घर थर-थर॥
कट-कट-कट-कट दाँत कर रहे।
जब भी हम घर से निकल रहे॥
हवा शूल बन जड़ा रही है।
कँपना पल-पल बढ़ा रही है॥
करना क्या है सोच रहे हम?
आता कोहरा देख रहे हम॥
ऐसे में बस दिखे रज़ाई।
मम्मी ने आवाज़ लगाई॥
अंदर आओ आग जली है।
खाते हम सब मूँगफली हैं॥
जिज्ञासा सिंह
आपकी यह बाल कविता अच्छी है जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार जितेन्द्र जी।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द शनिवार 16 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चौपाइयाँ...
लाजवाब👌👌
लाजवाब ! जिज्ञासा जी, ठिठुरती सर्दियों में आग तापने, गरम-गरम मूँगफलियाँ खाने का स्वाद आ गया। अभिनंदन !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह जिज्ञासा, पहाड़ों में बिताए गए 31 सालों की हमारी यादों को तुमने बड़ी ख़ूबसूरती के साथ फिर से ताज़ा कर दिया.
जवाब देंहटाएंमनमोहक रचना
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंसर्दी के मौसम का सुन्दर वर्णन
जवाब देंहटाएंSandar
जवाब देंहटाएंवाह ... सुन्दर बाल रचना है ... मौसम को बाखूबी शब्दों में उतारा है ...
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