ये झिलमिलाती
खिलखिलाती
मुस्कुराती शाम
चैनो हराम
फिर करने लगी है
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है
बरसती बारिशें है आज बेमौसम
झमाझम
दे रहीं हैं नव खुशी
इंद्रधनुषी
रूप वो धरने लगी है
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है
करुँ क्या मैं
जो अंबर है
चाँद को है छुपाए
सितारों से सजाए
आरती अब थाल में सजने लगी है
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है
वो आएंगे
औ छाएंगे
मेरे हिर्दय बसेंगे
आज मुझसे फिर कहेंगे
प्रेम की जो धार सूखी थी,सहस बहने लगी है
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है
यहीं होगा
मिलन होगा
इसी भू पर
सहस्रों पुष्प बरसाकर
गगन के संग धरती आज फिर हँसने लगी है
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है
**जिज्ञासा सिंह**
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (1-6-21) को "वृक्ष"' (चर्चा अंक 4083) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
कामिनी जी, नमस्कार !
हटाएंमेरी रचना को चर्चा अंक में शामिल करने के लिए आपका बहुत शुक्रिया,निरंतर आपके स्नेह की आभारी हूं, शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।
कुछ ही दिनों पश्चात ऐसे दिन आने वाले हैं
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका गगन जी,सादर नमन ।
हटाएंआशावाद से ओत प्रोत अभिव्यक्ति सुन्दर सृजन हेतु साधुवाद
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार बलबीर सिंह जी,ब्लॉग पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणी का हार्दिक स्वागत करती हूं,सादर नमन ।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब जिज्ञासा जी। बांसुरी इतने सुन्दर हाव भाव जगा रही है और उम्मीदों का सावन सजा रही है जो नितांत आलौकिक भाव हैं ।पर एक बात समझ में नही आई कि इतनी सकारात्मकता लिए कोई बांसुरी विरह की बांसुरी कैसे हों सकती है !😀 बहुत अच्छा लिखा आपने। हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 🙏💐💐🌷
जवाब देंहटाएंबहुत आभार सकी इतनी सुंदर और आत्मीय प्रतिक्रिया के लिए, यूं समझिए कभी कभी विरह में दर्द भरी तान भी छोड़नी पड़ती है,आज तो आप पोल खोल के मानेंगी 😀😀🙏💐।आनंद आ गया ।
जवाब देंहटाएं😀😃
हटाएंशायद, हर खुशी की अपनी एक सीमा होती है और उसी अन्त को करीब आता देख मन कांप उठता है। जैसे, किसी त्योहार के अवसर पर जब सभी इकट्ठे होते हों और अनायास ही विदाई की असह्य घड़ी आ जाए.....
जवाब देंहटाएंऐसे ही क्षण की कल्पनाओं की अनुभूति एक कोमल मन करने लगे तो, मन में बिरह की बाँसुरी कैसे न बजे।
सुन्दर अनुभूति का प्रतिनिधित्व करती बेहतरीन रचना। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया जिज्ञासा जी।
शुभ प्रभात
पुरषोत्तम जी आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया कविता को नव आयाम दे गई,आपका कोटि कोटि आभार एवम आपको मेरा सादर नमन ।
हटाएंभावभीना सुंदर सृजन !
जवाब देंहटाएंआदरणीय दीदी,आपका बहुत बहुत आभार ।
हटाएंगगन के संग धरती आज फिर हँसने लगी है
जवाब देंहटाएंमेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है
बहुत बढ़िया जिज्ञासा दी। मिलन के साथ विरह की भी कल्पना।
ज्योति को आपकेे स्नेह भरे शब्दों का स्वागत करती हूं, सादर नमन ।
हटाएं'प्रेम की जो धार सूखी थी,सहस बहने लगी है
जवाब देंहटाएंमेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है'
-सुन्दर अभिव्यक्ति!
आदरणीय गजेंद्र जी,नमस्कार आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया का हार्दिक स्वागत है,ब्लॉग पर आने के लिए आपका असंख्य आभार ।
हटाएंयहीं होगा
जवाब देंहटाएंमिलन होगा
इसी भू पर
सहस्रों पुष्प बरसाकर
गगन के संग धरती आज फिर हँसने लगी है
मेरे मन में बिरह की बाँसुरी बजने लगी है
कहीं मिलन तो कहीं विछोह...
खुशी और दुख दोनों से आत्मसात करते मन से उपजी अद्भूत रचना....। और हर पंक्ति गुनगुनाने लायक।
वाह!!!
सुधा जी आपकी प्रशंसा कविता को विस्तार दे गई ,आपकी सुन्दर टिप्पणी का हृदय से स्वागत करती हूं, आपका बहुत बहुत आभार ।
हटाएंबहुत सुंदर रचना, मनमोहक
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए विनीता जी आपका बहुत शुक्रिया ।
जवाब देंहटाएं