रे जुलाहे बीन दे अब मेरी चादर


रे जुलाहे बीन दे 
अब मेरी चादर ।
ओढ़ लूँ ऊपर से नीचे
आबरू का तंतु भींचे
चल पड़ूँ सब ढाँपकर ।।

कुछ है लेना छूटना कुछ
जो मिला वो है बहुत कुछ,
भार सा सिर पर लदा है
कर निछावर दूँ सभी कुछ,
हूँ तनिक न अनमनी मैं
दूँ तुझे प्रासाद भरकर ।।

मैं सकल संसार खुद में
बीज बोती रोपती थी,
ग्रहण कर लूँ स्वयं में सब
लोभ माया पोहती थी,
अधिक पाया पर न जानूँ,
क्या मिला है अधिक पाकर ?

भाग्य से है तू मिला
यह सोच, लाई द्वार पे
तू ही कारीगर अनोखा
जो भी चाहे काढ़ दे 
जब चलूँ दुनियाँ निहारे
आज ऐसे रंग भर ।।

**जिज्ञासा सिंह**

6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह अनोखा जुलाहा और उत्कृष्ट रचना !!

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(३०-०४ -२०२२ ) को
    'मैंने जो बून्द बोई है आशा की' (चर्चा अंक-४४१६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. बहुत बहुत आभार प्रिय अनीता जी । चर्चा मंच में रचना को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक अभिनंदन ।
    मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

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  4. बहुत बहुत आभार आपका अनुराधा जी

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