तुमको लिख पाती साजन
तो रचि-रचि लिख जाती।
बिन मसि बिन लेखनी एक
मैं अद्भुत ग्रन्थ सजाती॥
साँझ ढले बैठती तीर मैं,
निज मन के अँघड़।
श्वाँसों की सौ आँख बचाकर,
तुमको लेती पढ़॥
रंग-बिरंगे डोरों पर लिख,
तिरते भाव सजाती॥
भोर भए तुम दूर क्षितिज पे
चढ़कर आते भूप।
लहरों के दर्पण में सजता
सुंदर-नवल स्वरूप॥
मैं बहती धारा में उतरी,
और उतर जाती॥
जब भी दिखता बिम्ब तुम्हारा,
मनका बन जाता।
धागा बनकर हृदय पिरोती,
जीवन मुस्काता॥
मन का मनका जपता तुमको,
मैं तो तर जाती॥
**जिज्ञासा सिंह**
भक्ति और समर्पण के भावों से गुँथी सुंदर रचना!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दीदी।
हटाएंमन का मनका जपता तुमको, मैं तो तर जाती। बहुत अच्छा गीत रचा जिज्ञासा जी आपने।
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपकी उपस्थिति अति प्रसन्नता दे गई। आभार जितेन्द्र भाई साहब।
हटाएंमीरा की सी प्रीत, समर्पण और भक्ति की भावना से परिपूर्ण गीत!
जवाब देंहटाएंइतनी सुंदर प्रतिक्रिया ने रचना को सार्थक कर दिया । बहुत आभार आपका आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत मनभावन सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका भारती जी।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार 16 अप्रैल 2023 को 'बहुत कमज़ोर है यह रिश्तों की चादर' (चर्चा अंक 4656) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार और अभिनंदन
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआभार आपका।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 25 एप्रिल 2023 को साझा की गयी है
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत आभार आपका आदरणया यशोदा जी।
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही मनभावन
लाजवाब गीत।
बहुत बहुत आभार सखी।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत मनभावन सृजन
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