तुमको लिख पाती साजन

 

तुमको लिख पाती साजन 

तो रचि-रचि लिख जाती।

बिन मसि बिन लेखनी एक 

मैं अद्भुत ग्रन्थ सजाती॥


साँझ ढले बैठती तीर मैं,

निज मन के अँघड़।

श्वाँसों की सौ आँख बचाकर,

तुमको लेती पढ़॥

रंग-बिरंगे डोरों पर लिख,

तिरते भाव सजाती॥


भोर भए तुम दूर क्षितिज पे

चढ़कर आते भूप।

लहरों के दर्पण में सजता

सुंदर-नवल स्वरूप॥

मैं बहती धारा में उतरी,

और उतर जाती॥


जब भी दिखता बिम्ब तुम्हारा,

मनका बन जाता।

धागा बनकर हृदय पिरोती,

जीवन मुस्काता॥

मन का मनका जपता तुमको,

मैं तो तर जाती॥


**जिज्ञासा सिंह**

18 टिप्‍पणियां:

  1. भक्ति और समर्पण के भावों से गुँथी सुंदर रचना!

    जवाब देंहटाएं
  2. मन का मनका जपता तुमको, मैं तो तर जाती। बहुत अच्छा गीत रचा जिज्ञासा जी आपने।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ब्लॉग पर आपकी उपस्थिति अति प्रसन्नता दे गई। आभार जितेन्द्र भाई साहब।

      हटाएं
  3. मीरा की सी प्रीत, समर्पण और भक्ति की भावना से परिपूर्ण गीत!

    जवाब देंहटाएं
  4. इतनी सुंदर प्रतिक्रिया ने रचना को सार्थक कर दिया । बहुत आभार आपका आदरणीय सर।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत खूबसूरत मनभावन सृजन

    जवाब देंहटाएं
  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  7. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार 16 अप्रैल 2023 को 'बहुत कमज़ोर है यह रिश्तों की चादर' (चर्चा अंक 4656) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार और अभिनंदन

      हटाएं
  8. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 25 एप्रिल 2023 को साझा की गयी है
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  9. वाह!!!
    बहुत ही मनभावन
    लाजवाब गीत।

    जवाब देंहटाएं