लाडली दुल्हन बनी है।
माँग में झूमर लटकता,
माथ पे बेंदा दमकता।
नाक नथिया हँस रही है,
कान पे कुंडल बहकता।
कह रहा है फुसफुसाके,
हाय दिल पे आ ठनी है॥
लाडली दुल्हन बनी है॥
झूम के वो जब चलेगी,
मुग्ध ये सृष्टि तकेगी।
तारिकाएँ चाँदनी संग,
नाचती पीछे रहेंगी।
मेह ने बूँदों से अपने,
सरगमी धुन नव बुनी है॥
लाडली दुल्हन बनी है॥
क्या अनोखा दृश्य ये है,
मन मेरा बस में नहीं है।
जो अभी कोपल उगी थी,
अब कली बन सज रही है।
दो कुलों के द्वार नव,
कुसुमों की खिलती नव लड़ी है॥
लाडली दुल्हन बनी है॥
जिज्ञासा सिंह
बहुत सुन्दर ! खुशी-खुशी कर दो विदा, तुम्हारी बेटी राज करेगी --
जवाब देंहटाएंवाह!खूबसूरत सृजन जिज्ञासा जी ।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण सृजन
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा मंगलवार (16-05-2023) को "काहे का अभिमान करें" (चर्चा-अंक 4663) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर गीत जिज्ञासा जी
जवाब देंहटाएंलाडली को दुल्हन बनते देखना अविस्मरणीय क्षण होता है, बहुत सुंदर सृजन !
जवाब देंहटाएंशानदार रचना है...खूब बधाई जिज्ञासा जी। कृपया प्रकृति दर्शन के इस ब्लॉग को फालो कीजिएगा।
जवाब देंहटाएंसुन्दर गीत जिज्ञासा जी
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