बूँद का अभिशाप मत लो
सृष्टि का संहार निश्चित,
है नहीं संदेह किंचित्।
मनुजता सोई पड़ी मृत,
अश्रु का संताप मत लो॥
पृथ्वी छल छल जरी है,
उर्वरा मुँह बल परी है।
कोख में शस्या मरी है,
शोक का प्रालाप मत लो॥
आँगने का दीप रोया,
चार दिन से मुँह न धोया।
आँख में कीचड़ सजोया,
चुप्पियों का ताप मत लो॥
सुन सको तो ये सुनो न,
जो लिखा है वो पढ़ो न।
या कहा उसको बुनो न,
बिन कहे का चाप मत लो॥
जिज्ञासा सिंह
वाह! सुंदर सारगर्भित सृजन जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" गुरुवार 28 सितंबर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंआभार दीदी! नमस्ते
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
हटाएंबहुत सुंदर 👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंवाह वाह बहुत सुन्दर, प्रकृति की पीड़ा से परिपूर्ण
जवाब देंहटाएंप्रकृति के चिंतन को समेटे ... पर काश समय रहते हम प्रकृति की पीड़ा को समझें ...
जवाब देंहटाएंप्रकृति के अंधाधुंध क्षरण से उपजी पीड़ा को बहुत हृदयस्पर्शी भावों में पिरोया है आपने ।बहुत सुन्दर एवं सारगर्भित सृजन ।
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