साजन के द्वार चली,
पलकों की छाँवों में
स्वप्नों का मेला है।
कलश भरे ड्योढ़ी पे जलते हैं दीप नये,
गाती रंगोली है थाल लिए स्वागत को।
तोरण की लड़ियाँ हैं लचक-लचक नाच रहीं,
मैहर की थाप सजग जोह रही आगत को॥
कोहबर में जानें को,
महवर है पाँव रची,
रहबर का रेला है॥
झीनी चूनरिया ओढ़निया के ओट छुपी,
नेहों की फुलवारी खिली सजी धागन में।
झाँक-झाँक ताक राह अंतरतम उत्सुक हो,
ठिठक-ठिठक पाँव चलें प्रियतम के आँगन में।
किरणों की सज्जा है
बिखरी है चन्द्रप्रभा,
मिलने की बेला है॥
इंद्रधनुष संग स्वयं लाया है अंबर ये,
रैना जो कारी थी रंग आज जाएगी।
अद्भुत संयोग सतत जीवन संयोग बने,
मधुमय सुगन्ध लिए धरती इतराएगी।
जीवन के उत्सव की
आई ये मधुयामिनी,
क्षण ये अलबेला है॥
जिज्ञासा सिंह
बहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत कमाल की रचना … लाजवाब लिखा है
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंवाह जिज्ञासा ! कलकल बहती हुई नदी के जैसा संगीतमय गीत !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सरस गीत जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंवाह! जिज्ञासा जी ,बहुत खूबसूरत सृजन।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर, मनमोहक कविता हेतु हार्दिक अभिनंदन जिज्ञासा जी. शायद आज आपका जन्मदिन है. उसकी शुभकामनाएं भी स्वीकार कीजिए.
जवाब देंहटाएंझीनी चूनरिया ओढ़निया के ओट छुपी,
जवाब देंहटाएंनेहों की फुलवारी खिली सजी धागन में।
झाँक-झाँक ताक राह अंतरतम उत्सुक हो,
ठिठक-ठिठक पाँव चलें प्रियतम के आँगन में।
अनुपम
वाह!!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर मनभावन गीत
लाजवाब👌👌👌👌