भाव के भूखे हुए हैं
उठ रही दीवार के
कानों से कह दो
उँगलियाँ होठों से
अब वे न उठाएँ
मृत्तिका होते हुए
रुधिराश्कों पे
चीर का एक सूत
ही अब फेर जाएँ
घाव दे लूटे हुए है॥
अंग हर प्रत्यंग हैं
इन बाजुओं की
शक्ति में घुसपैठ
करती क्षीणता है
तीव्र कंटक की
चुभन का दर्द पीना
अब समय की
धीरता गंभीरता है
पाँव के टूटे हुए हैं॥
नव नवल नव
पल्लवों के पात
अभिनव भाव से
सविनय बुलाते
गेह रखते हैं खुले
जंजीर में जकड़े
हुए जो पाँव थिर-
थिर काँप जाते
बाड़ में रूँधे गए हैं॥
जिज्ञासा सिंह
जंजीर में जकड़े
जवाब देंहटाएंहुए जो पाँव थिर-
थिर काँप जाते
बाड़ में रूँधे गए हैं॥
बहुत सुंदर सृजन जिज्ञासा जी 🙏
प्रिय सखी का बहुत आभार और अभिनंदन!
हटाएंवाह ! अति सुंदर गेय रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दीदी।
हटाएंअति सुंदर भावपूर्ण रचना जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंसस्नेह।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १३ फरवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
रचना की प्रशंसा और चयन के लिए हृदयतल से आभार और अभिनंदन है आपका प्रिय सखी श्वेता जी।
हटाएंआज पहली बार
जवाब देंहटाएंगेय रचना दिखी
आभार
बहुत आभार आपका आदरणीय सखी।
हटाएं' रुधिराश्कों ' वाह क्या शब्द है, अत्यंत भाव पूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंसादर
तहेदिल से बहुत आभार आपका।
हटाएंवाह! सखी जिज्ञासा ,बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंसखी का नेह सिंचित आभार
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंआपके वह ने दिन बना दिया आभार आदरणीय।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना है दीदी, यथार्थ परक
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