आज कायाकल्प करना
उड़ चले उन तीतरों को रोकना,
जो कुलाचें मारते मैदान बिन।
मद में डूबे हाथियों के झुंड से,
चल रहे हैं दूमते राहों पे जिन।
रौज में उड़ना दूमना ठीक है,
है ज़रूरी पंख के परवाज़ खुलना॥
मछलियों का झुंड कछुओं की,
गति में है पुरातन से अतल में।
बीन बजता नागमणि के सामने,
दर्प दिखता नीरनिधि के सजल में।
देखना दिखना दिखाना खूब है,
है जरूरी धार पकड़े साथ बहना॥
मार्ग हैं पगडंडियां सड़के भी हैं,
कौन राही किस डगर जाता कहाँ?
हाथ पकड़े अंक भरते पीठ धारे,
हैं दिखे क्या मंजिलों के नव निशाँ।
चाल चलकर चर चलाना चाल चलन,
है जरूरी समय के पांवों से चलना॥
जिज्ञासा सिंह
वाह ! वक़्त के हिसाब से चलने वाला ही कामयाब होता है.
जवाब देंहटाएंआपके वाह से लेखानी को संबल मिलेगा, बहुत आभार आपका।
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 17 मार्च 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंजी, बहुत धन्यवाद यशोदा सखी। पहुंचाती हूं पांच लिंकों पे।
हटाएंवाह बहुत सुंदर। बाकी चलने का नाम है जिंदगी।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार शिवम् जी।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवाह! सखी जिज्ञासा जी ,बहुत खूब!
जवाब देंहटाएं