मेरी बगिया और मैं

दीवाली पे फिर मुस्काई मेरी बगिया
हंस हंस के कुछ यूँ, बतियायी मेरी बगिया 

बोली मुझसे कहाँ गई थीं सखी हमारी
ढूँढ रहे थे मैं और मेरी नन्ही क्यारी
तरस गईं थीं तुम्हें देखने को ये पत्तियाँ 
दीवाली पे...।

दुखी था आम का पेड़ और छोटा सा चीकू
मुर्झा जाती हूँ मैं, गर तुमको न देखूँ
सहलाती तुम मुझे और खिल जातीं कलियाँ 
दीवाली पे...।

चलते फिरते तुम, मुझको पुचकारा करतीं 
पूरी बगिया तेरी राह निहारा करती 
जैसे हम तुम हों बचपन की बिछुड़ी सखियाँ 
दिवाली पे...।

तुम अपने में मगन, हो गईं मुझको भूल 
देखो हमने नहीं खिलाए अपने फूल 
मुरझा कर के लटक गईं कितनी वल्लरियाँ 
दिवाली पे...।

जाने क्यूँ तुम बहुत रूठ जाती हो हमसे ?
शाखा,पत्ते दिखते सब टूटे बिखरे से 
हम तड़पे पानी बिन जैसे कि, माछरियाँ 
देवाली पे...।

देखो ! यूँ उपवन न छोड़ा करते 
हम तुमको साँसे और जीवन भी हैं देते 
नैनों में भर देते हम मनमोहक छवियाँ
दिवाली पे...।

तुमने जैसे हाथ लगाया,चमक गए हम 
घर के आँगन,दरवाज़े पे महक रहे हम 
चमक रहा है मेरा घरौंदा और क्यारियाँ 
दीवाली पे...।

बगिया की ये बातें सुनकर सन्न हुई मैं 
सच्चा मित्र मिला और बहुत प्रसन्न हुई मैं 
बातें उसकी समझ,मैंने कर ली गलबहियाँ
दीवाली पे...।

**जिज्ञासा सिंह** 
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

13 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. प्रोत्साहित करने वाली प्रतिक्रिया के लिए आभार..।
      सादर..।

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  2. सराहने के लिए आभार व्यक्त करती हूँ शिवमजी..।

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  3. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 20-11-2020) को "चलना हमारा काम है" (चर्चा अंक- 3891 ) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।

    "मीना भारद्वाज"

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  4. जी..जरूर..। मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका हृदय से अभिनंदन..। "जिज्ञासा की जिज्ञासा" पर आप अपना स्नेह बनाये रखें..।

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  5. Dil ko chu lene wali rachna akhiri antra bahut khub my lovely di

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