मेरे अंदर की शक्तियों का संतुलन
जो परिलक्षित होता रहा हर सदी में
व्रतों से सुख समृद्धि और विश्वास
जीवन भर का साथ
मांग लेती रही मैं ?
वटवृक्ष को पूज कर
सृष्टि को आंगन में उतारकर
तरुवर के पत्तों से सांसें निचोड़कर
प्रवाहित करती रही मैं
चांद को छलनी से झांककर
ग्रह नक्षत्रों को साधकर
आंचल फैला, शीतलता मांगकर
उलझनों को शान्त करती रही मैं
धारा में खड़े होकर
सूर्यदेव को अर्ध्य देकर
वनस्पतियों फलो को अर्पण कर
जीवन को परिपूर्ण करती रही मैं
सोलह श्रृंगार कर
गौरीशंकर को आसन पे बिठाकर
शीश चरणों में नवाकर
आशीर्वचनों से झोली भरती रही मैं
बहुत कुछ करती तो हूँ पर
अपने पे विश्वास नहीं करती मैं
ब्रम्हांड की अपार शक्तियां समाहित हैं मेरे ही अंदर
बस अहसास नहीं करती मैं
**जिज्ञासा सिंह**
भावपूर्ण सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंआपके स्नेहिल प्रोत्साहन के लिए हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ..।सादर अभिवादन...।
हटाएंप्रकृति का सम्मान करके नारी ने पर्यावरण को संतुलित रखने में अपना महती योगदान दिया है, अपनी शक्तियों से परिचित न होकर भी वक्त आने पर सदा ही हर विपदा का सामना किया है
जवाब देंहटाएंजी..सच कहा है आपने ।स्त्री हर परिदृश्य में शक्ति और संतुलन का आधार है ।आपकी सराहनीय टिप्पणी का अभिनंदन करती हूँ..।आदर सहित.....।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 20 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंजी..अवश्य...।मेरी कविता को"सांध्य दैनिक मुखरित मौन में"जैसे मंच पर प्रकाशित करने के लिए आपका आभार व्यक्त करती हूँ..।सादर धन्यवाद..।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२१-११-२०२०) को 'प्रारब्ध और पुरुषार्थ'(चर्चा अंक- ३८९८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
जी ज़रूर अनिता जी ...।आपने मेरी रचना को 'प्रारब्ध और पुरुषार्थ में 'स्थान दिया ।जिसके लिए मैं आपका आभार प्रकट करती हूँ ।आदर सहित जिज्ञासा...।
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंनमस्कार ओंकार जी,
हटाएंप्रोत्साहित करने के लिए आपका आभार..।
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंनमस्कार जोशी जी,
हटाएंसुंदर टिप्पणी के लिए आपका आभार ..।
हृदयग्राही पंक्तियां जिज्ञासा जी
जवाब देंहटाएंछठ महापर्व की हार्दिक शुभकामनाओं सहित,
डॉ. वर्षा सिंह
आप जैसे महानुभावों की सुंदर टिप्पणियों से अभिभूत हूँ ।मैं अभी नई ब्लॉगर हूँ ।कृपया स्नेह बनाए रखें ।छठ पर्व की मंगलकामना के साथ..जिज्ञासा..।
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंज्योति जी मेरी कृति की सराहना के लिए आपका सादर धयवाद..।छठ पर्व की शुभकामनाओं के साथ..जिज्ञासा..।
जवाब देंहटाएंआस्था और विश्वास के बीच सुंदर कशमकश दर्शाता सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंनमस्कार कुसुम जी ,
जवाब देंहटाएंआपकी सारगर्भित टिप्पणी के लिए हृदयतल से आभार व्यक्त करती हूँ..।मेरे ब्लॉग पे आपका स्वागत है आदरसहित.. जिज्ञासा..।
बहुत कुछ करती तो हूँ पर
जवाब देंहटाएंअपने पे विश्वास नहीं करती मैं
ब्रम्हांड की अपार शक्तियां समाहित हैं मेरे ही अंदर
बस अहसास नहीं करती मैं
–जिज्ञासा सिंह जी आत्मबोध हो जाना बड़ी बात है... नैया पार समझी जाती
–उम्दा सृजन हेतु साधुवाद
आदरणीय विभा रानी दी,प्रणाम !
जवाब देंहटाएंआपकी तथ्यपरक टिप्पणी के लिए आपका आभार व्यक्त करती हूँ ।
आदर सहित जिज्ञासा..।
अपनी सामर्थ्य का एहसास ही आत्म-विश्वास बढ़ाता है.
जवाब देंहटाएंआप जैसे विद्वतजन कि टिप्पणी ही मेरे लिए मार्गदर्शन है..।आपको सादर प्रणाम प्रेषित करती हूँ..।कृपया अपने सुंदर सुझाओं से हौसला बढ़ाती रहें..।आदर सहित जिज्ञासा..।
जवाब देंहटाएंवाह जिज्ञासा जी, क्या खूब कहा कि ----चांद को छलनी से झांककर
जवाब देंहटाएंग्रह नक्षत्रों को साधकर
आंचल फैला, शीतलता मांगकर
उलझनों को शान्त करती रही मैं ...हृदय तक समाती रचना ...वाह
अलकनंदा जी आपकी सराहनीय टिप्पणी को नमन..।ख़ूबसूरती से किया गया उत्साहवर्धन निरंतर हौसला बढ़ता है..सादर अभिवादन..।
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ करती तो हूँ पर
जवाब देंहटाएंअपने पे विश्वास नहीं करती मैं
ब्रम्हांड की अपार शक्तियां समाहित हैं मेरे ही अंदर
बस अहसास नहीं करती मैं
वाह!!!
बहुत सुन्दर सटीक लाजवाब सृजन।
सुधा जी आपका बहुत बहुत आभार..।इतनी सुंदर टिप्पणियों से अभिभूत हूँ मैं..।अपना स्नेह बनाए रक्खें ।आपको मेरा अभिवादन ।
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